3-विचार मंथन
आज तीसरा दिन है। हमारी उपस्थिति पूर्ववत है। खैनी-चूना के चुटकी के साथ। अब भोगन पंडित या किसी को पादना होता है तो लोग हंसे नहीं, अतः बड़ा एहतियात बरता जा रहा है।
’’असल में हमारे देश को विद्वानों या ज्ञानियों या शिक्षकों की आवश्यकता नहीं है।’’ पितामह बोल रहे थे ’’हमारे देश को आज औघरों की जरूरत है। जी हां, शमशान में जाकर धूनी जमाने वाले औघरों की। मुर्दों में भी अपनी सिद्धि सिद्ध करने वाले की। जानते हैं क्यों ? क्योंकि हम सब मुर्दा समान हो गए हैं। हम इतने पुरातन हो गए हैं कि हमें अपनी मृत्यु का एहसास तक नहीं। हम किस बात के लिए स्वयं को जीवित या जीवंत कहें। हमारा थोबड़ा तो खराब-सा कार्बन कॉपी है किसी का, इस बात के लिए ? कि इस बात के लिए कि सदियों हमारी मानसिकता गुलामों की रही है। हम सब बोतल के जिन्न हैं…..हुक्म करो आका…! सैकड़ों फिल्में बन रही हैं शायद ही कोई फिल्म हो जो मौलिक हो….पश्चिम के हॉलीवुड से प्रेरित ना हो। हम तो टाइटल तक अनुदित कर देते हैं…..एक कैप्शन तक हमें नहीं सूझता। टीवी के चैनलों को देखिए-सारे प्रोग्राम लगभग आयातित हैं। डांस प्रतियोगिता देखिए-आज का सच हिप-हॉप है। सर्कस! आप नकलची हैं और आप कहां से रचनाकार हो गए! कलाकार ? यही है जिंदा लोगों की निशानी ? क्या साहित्य, क्या कला, या संगीत! भला हो लोक संगीत का जिसने हमारी आबरू कुछ बचा रखी है। वरना दुशासन तो सारे कपड़े उतार ही दिए थे। भला हो लोक-बोलियों का, लोक-कवियों का, लोक-वाणी का, लोक-संस्कृति का……!’’
’’हे औघरों! बनारस के तट पर क्या कर रहे हो….यहां सभी मृत है, इधर आओ! बहुत सारे ज्ञानी पिशाच अपनी ज्ञान -गंगा में डूबे-मरे जा रहे हैं। औघरों! तुम ही हमारी अंतिम आशा हो- तनिक इन्हें बताओ कि अपने शरीर की राख ही वास्तविक भस्म होता है, वही हमारी विभूति के काबिल है। यह शंकर की भूमि है-हम कहां भटक गए हैं!’’
पितामह ठहर गए। वे कहीं खो से गए। जैसे वे यहां मौजूद ही ना हों। हमारे जेहन में उनकी बात सीधे-सीधे लगरही थी। हममें से यहां अधिकांश अपढ़ और मूर्ख थे -खेतिहर थे -पर पितामह की बात से प्रतीत होता था हम सब कुछ ना कुछ हजम कर रहे थे। लगता था ज्ञान की बातें मस्तिष्क से मस्तिष्क तक नहीं पहुंच रहे थी बल्कि दिल की बात सीधे दिल में घुस रही थी।
पितामह वापस लौटे। वे कहीं गए नहीं थे -वे यहीं थे मगर खो गए थे। अब आगे क्या ? हम सोच रहे थे। पीपल का एक सूखा पत्ता तैरता हुआ पितामह के समक्ष आ गिरा। पितामह पत्ते को उठाए, मुस्कुराए- ’’क्या यह पत्ता वापस इस वृक्ष का हिस्सा बन सकता है।’’ हमने सर ’ना’ में हिलाया। पितामह ने कहा-’’नहीं! इस रूप में तो कभी नहीं। हां, इसका रूप बदलकर- आप सब किसान हो, खेतों की कटाई -निराई करते हुए जड़ों को यों ही मिट्टी में छोड़ देते हैं-कुछ दिनों में ही यह जड़ें सड़ कर वापस उसी मिट्टी में मिल जाती हैं और जब आप नई फसल उगाते हो तो उसके तत्व नई फसल के जीवन में काम आते हैं। यह एक पत्ता भी संभव है यहीं सड़ गल कर इस विशाल वृक्ष का पोषण बने। हां, अत्यंत अल्प, और इसके पोषण से पत्तों में जान आए। हमारे इतिहास में भी विचार इसी तरह आकर बूढ़े हो कर या असमय काल ग्रस्त हो जाते हैं। हम अपने गांधी जी के विचार को क्या कहें ? पर, संभावना तो है। यह जरूर है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन ? इस रास्ते नहीं, किसी और रास्ते गांधी आएं। इसी तरह की उम्मीद मैं मार्क्सवाद से भी करता हूं। पर टूटे पत्ते सीधे अपनी कायनात का हिस्सा नहीं बन सकते-चेहरा बदल कर आना होगा। चेहरा बदलेगा कौन ? औघड़ विद्वान! क्योंकि समस्या, समस्या समझने से ज्यादा समस्या समझाने की है। और समझ! बड़ी मुश्किल सा शब्द है।’’
’’फिलहाल मैं उस मार्क्सवाद का संक्षिप्त इतिहास आपको बताना चाहूंगा कि इस साम्यवादी परिकल्पनावाली बात ने किस तरह सारी दुनिया को हिला रखा था। आज भी पूंजीवादी सरकार साम्यवाद के नाम से कांपती है। खैर!’’
’’जैसे प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति ने मार्क्सवाद की रसिया में स्थापना की और लेनिन इसके पहले लीडर बने, उनके बैनर तले विशाल रूस, यूनाइटेड स्टेट्स सोवियत रसिया (यूएसएसआर) विश्व का पहला मॉडल राज्य (संघ) बना। सुदूर साइबेरिया में कोयले की खदानें, पेट्रोल की संभावना और अन्य खनिज तत्व ढूंढ निकाले गए। जहां दैनिक तापमान साल के आठ-नौ महीने माइनस जीरो डिग्री हुआ करता था- वहां मार्क्सवादी सरकार ने श्रमिकों को उच्च सुविधाएं देकर अनछुए खजाने का दोहन प्रारंभ किया। क्याकोई पूंजीवादी राष्ट्र या कोई पूंजीपति राष्ट्र का पूंजीपति ऐसी विषम परिस्थिति में देश या समाज के भला की बात सोचता! वह क्यों समाज सेवा करने बैठा ? सुदूर क्षेत्र तक रेलवे लाइनें बिछी, बिजली-पानी और खाद की सुविधाएं पहुंचाई गईं। शहर बसाए गए। सार संक्षेप यह कि अपनी स्थापना के बाद से ही सोवियत रूस ने तरक्की प्रारंभ की। यह तरक्की कुछ अलग किस्म की थी- पैट्रोल या कोयले का खनन नहीं, कहीं से भी व्यापार की दृष्टि से (लाभ-हानि) लाभप्रद नहीं था। लेकिन सोवियत रूस ने लाभ-हानि से परे जाकर अपने लोगों (कामगारों) के जीवन यापन का ना केवल साधन जुटाया बल्कि आंतरिक उद्योग धंधों को आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया। अब सारा यूएसएसआर लेनिन का था-साइबेरिया में होने वाली क्षति अन्य जगहों से पूरी की जा सकती थी। वही किया गया।’’
’’बेशक ऐसी सोच कोई पूंजीवादी राष्ट्र नहीं अमल में ला सकता। इतना ही नहीं रसियन वैज्ञानिकों ने परमाणु क्षेत्र में, अंतरिक्ष के मामले में, नौसेना और मिलिट्री हथियारों के मामले -लगभग सभी मामलों में विश्व का अग्रणी देश कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति ने तो रसिया की मुहर विश्व पटल पर स्पष्टतः लक्षित कर दिया। अमेरिका और रसिया के बीच सैद्धांतिक शीत युद्ध तो पहले से ही जारी था -द्वितीय विश्व युद्ध ने तो दोनों की प्रतिद्वंद्विता पूरी तरह उजागर कर दी। जहां-जहां अमेरिका अपने स्वार्थ के कारण अमेरिकी सैन्य अड्डा बनाते, रसिया भी पास ही अपनी सेना भेजकर जैसे चेतावनी देता-खबरदार!’’
इन दोनों की लड़ाई का कारण ? दोस्तों! अमेरिका घोर पूंजीवादी राष्ट्र, वहीं सोवियत रूस पूंजीवाद विरोधी, साम्यवाद का समर्थक! सांप और नेवले जैसा संबंध!’’
’’वैसे तो मार्क्सवाद का योगदान समूचे ग्लोब पर लगभग 50-60 वर्षों तक छाया रहा। अमेरिका या लंदन जैसे पूंजीवादी देशों को भी इस सिद्धांत के कारण अपनी आंतरिक और बाहरी नीतियों में तब्दीली लानी पड़ी। मार्क्सवादी पार्टी की स्थापना सारे विश्व की राजनीति में अह्म हो गई। बेशक सभी जगह पूर्ण सफलता नहीं मिली मगर इसने जनता की वकालत मार्क्सवादी नजरिए से करके राज व्यवस्था को प्रभावित करने की भरपूर कोशिश की। यह विचार अफीम की तरह प्रभावशाली सिद्ध हुआ। उत्पादन के साधनों पर श्रमिकों का हक और बराबर की हिस्सेदारी, यह सोच ही सबसे चमत्कारिक थी। जिन श्रमिकों के काम के घंटे तय नहीं होते थे अब 8 घंटे से अधिक श्रमिकों से काम लेना गैरकानूनी हो गया, अतिरिक्त काम के लिए (ओ.टी.-ओवरटाइम) अतिरिक्त वेतन से दुगने पैसे जोड़े गए। श्रमिकों की स्वस्थ बस्तियां बसाई गई, हॉस्पिटल, सड़क, स्कूल और अन्य सुविधाएं दी गई। और ऐसा पूंजीवादी कंपनियों ने किया-लेबर एक्ट लगभग सारी दुनिया में लागू किए गए जिसमें श्रमिकों की डिग्निटी और सुविधाओं पर विशेष बल दिया गया-यह सब क्यों ? मार्क्सवाद के विचारों के कारण ही। जिन मजूरों को मानव तक नहीं समझा जाता था उन्हें बराबर का हक दिलाकर यह आत्मसम्मान का भाव वापस लाना कि इस फैक्ट्री के तुम भी एक हिस्सेदार हो। मजूर झूम उठे-एक बाग नहीं एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे….हम मेहनतकश इस दुनिया में….। अब फ्रांस का एक शोषित श्रमिक जर्मनी या पाकिस्तान के शोषित श्रमिकों के हित से एक समान भाव पर उतर आए। यह भाव नहीं रहा कि पूंजीपति मुंबई का है या जर्मनी का या श्रमिक रसिया का है या इंडिया का। मार्क्स के विचारों ने राष्ट्रीयता के भाव मिटा दिए। सारी दुनिया के श्रमिक एक हो गए -पूंजीपति तो अपने स्वार्थ के कारण पहले से ही एक अलिखित सूत्र में बंधे थे। अगर आकलन करें तो इस विचार ने हमारे अंधा युग (डार्क एज) के बाद मशीनों इत्यादि के अविष्कार ने जितना मानव जीवन को प्रभावित नहीं किया उससे कहीं ज्यादा अधिक श्रमिकों, गुलामों को जीवन दिया। मनुष्य जो मेहनतकश था उसे मानव समझा गया। मशीनों ने तो कहा कि हमें हाड़-मांस का समझा जाए -दूसरी ओर मार्क्सवाद ने बताया और एहसास करवाया की हाड़-मांस के प्राणी को मशीन न समझा जाए। मार्क्सवाद ने मनुष्य की गरिमा और मशीन के संचालन के बीच एक अलिखित घोषणा पत्र सारे विश्व को दिया। मशीन हमसे है, हम मशीन से नहीं। और इन मशीनों को चलाने वाले हाथ मानव के हैं -जीवंत इंसानों के। उनके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य अहम है। न्यूनतम आवश्यकताओं की गारंटी आवश्यक है।’’
पितामह थोड़ी देर रुके। क्षितिज की ओर नजर की। कुछ सोच रहे होंगे। भोगन पंडित अपने माथे का पसीना गमछा से पोंछ रहे थे। लगता है छुहारे का हलवा सब हजम कर गए थे। पितामह ने अपनी दृष्टि हमारी ओर की -’’मशीनों की बात जब जब होती है मुझे गांधी जी की बात याद आती है। गांधी जी ने मशीन और मनुष्य के श्रम के बीच एक लक्ष्मण रेखा खींच रखी थी। पर मनुष्य अपने हवस के आगे कहां सुनता है, दोस्तों! यह दुनिया तो अंधे धृतराष्ट्रों से भरी पड़ी है और उदंड दुर्योधन नंगा घूम रहा है, वैसे परिपेक्ष्य में कहां कोई ठहरे और गांधी जी को सुने। समझे। फिलहाल, मार्क्सवाद ने तो इनकी पुंगी बजाई ही बजाई। यहां गौर करने वाली बात है या कहें एक सवाल है जो आप सबके बीच उठाना चाहता हूं कि जो मशीनें मानव जीवन की बेहतरी के लिए आविष्कृत हुए हैं वह मानव श्रम के अस्तित्व को ही खा जाती है ? कैसी विडंबना है! कहां वह बारीक-सा धागा है जो जंजाल बन कर अपने दाता के लिए भस्मासुर बन रहा है। यह आज भी दिखता है। चंद लोग, चंद कंपनियां बस यही कर रही हैं अपने लाभ के लिए दुनिया का मशीनीकरण कर रही है, पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ रही है मगर इनकी सोच में कहीं भी कोई हाशिए का मानव नहीं है जो सर्वाधिक अपदस्थ है। लालच ? हवस ? अज्ञानता ? क्या वजह हो सकती है।’’
’’हमारी नैतिकता इतनी ऊंची नहीं कि गांधी की बात ये सुन समझ सकें। मार्क्सवादी श्रमिक एकता ही इन्हें ठीक कर सकता है। इस श्रमिक एकता यूनियन के प्रभावी विस्तार को रोकने के लिए पूंजीवादी कंपनियों ने दर्जनों हथकंडे अपनाए आउटसोर्सिंग, छोटी-छोटी इकाइयों का गठन, बड़ी फैक्ट्रियों की जगह अलग-अलग नामों से अलग-अलग कार्यालय और स्थापना इत्यादि खोलना जैसे हथकंडे जिससे कम श्रमिक हों और यूनियन कमजोर रहे। हवस के शिकारी कंपनियों ने फिलहाल तो बहुत सफलता पाई और पूरे विश्व में एक नए साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद को जन्म दिया। पहले जहां कंपनियां दूसरे देशों में घुसकर अपने लोगों से अपनों पर ही कोड़े बरसाए और हमारा धन तरह-तरह से निचोड़ा -आज इनका स्वरूप या चेहरा बदल गया है। मार्क्सवादी सिद्धांत सिर्फ एक मूक दर्शक भर रह गया है। पूंजीवादी घोड़ा बेलगाम है। बेतहाशा! ऊपर बताया ना कि विकास के नाम पर हमारे जैसे विकासशील राष्ट्र विश्व बैंक से कर्ज लेने या विश्व की कंपनियों को यहां दफ्तर खोल कर व्यापार करने की डील उनकी शर्तों के अधीन कर रही हैं। यह विश्व बैंक है क्या ? विश्व के चार पांच बड़े देशों का 90 प्रतिशत पैसा -और ये पैसा किसका -महान पूंजीपतियों का, जिनके पास अकूत खजाना है -जो राष्ट्र की नीतियों को अपने हित में प्रभावी करना खूब जानती है। सीधा सा मतलब है लूट जारी है। नाक इधर से नहीं तो उधर से पकड़ो। हमें कर्ज दिया कर्ज का पैसा विकास के नाम पर हमारे पास आया और हमने उसी पैसे से अपनी अर्जन शक्ति बढ़ाई -और माल किसका खपाया ? महान कंपनियों का! ले-देकर हम विश्व बैंक का ही पोषण कर रहे हैं -विश्व बैंक मतलब विश्व के पूंजीपति और मार्क्सवादी विद्वान चुप हैं। मार्क्स की व्याख्या करें तो कैसे करें!’’दोस्तों! क्या हम अपने पांव पर खड़े हैं ? क्या सचमुच हम आत्मनिर्भर हैं या इस रास्ते आत्मनिर्भर हो सकते हैं ? आखिर इसका अर्थ क्या है ? कहीं तो एक लक्ष्मण रेखा खींची होनी चाहिए। अब तो दिन दूर नहीं जब मिट्टी, पानी, आकाश सभी पूरी तरह प्रदूषित न हो जाए। मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए। प्रकृति द्वारा चेतावनी लगातार मिल रही है। मगर हम अचेत हैं। यह बिना सिद्धांत वाला अफीम है -इसका कोई माई बाप नहीं। दिशाहीन समय। दिशाहीन सच। दिशाहीन सोच। यह कैसा अंधा युग है! महाभारत में एक ही था धृतराष्ट्र यहां तो अंधों की फौज दिख रही है।’’
’’दोस्तों! हम इसलिए औघरों का आह्वान करते हैं कि जो दुनिया को बताएं कि अपनी मिट्टी, अपनी चमड़ी के भस्म को ही विभूति बनाए बगैर हमारी मुक्ति नहीं। कहीं तो रास्ता देखना होगा -बुद्ध की तरह अपना दीपक आप बनकर -बुद्ध के रास्ते मध्यमार्गी बनकर या अन्य रास्ते से। हमारी विरासत ने तो हजारों साल से हमें सब कुछ दिया -ज्ञान, मार्ग, दिशा सबकुछ! पर हम गुलाम भी ऐसे हुए कि लंदन-अमेरिका के अलावा कुछ दिखता ही नहीं। ये घूंघट के पट भारतीय और भारतीय विद्वान कब खोलेंगे! अपने पांव पर चलना कब सीखेंगे। विदेशी वैशाखी का सहारा कब छूटेगा ?’’
भोगन पंडित कह रहे थे-’’जरा सोचिए, ज्ञान की गंगा कहां-कहां प्रवाहित हो रही है। कहां गांधीजी का चरखा और कहां विश्व बैंक। कहां कंपनियों की लूट और हमारी दासता! क्या कभी सोचा था कि इतना जटिल रिश्ता भी हो सकता है।’’
’’ठीक कहे पंडिजी! हम का जाने-केहू नृप होए का मतलब।’’- धूरंधर अहीर खैनी घिस रहे थे।
’’बाकी अब तो समझना पड़ेगा। बे-समझे हम गुलामे बने रहेंगे। कब-तक नाली के कीड़े जैसा बजबजाते रहेंगे।’’-घीसू विश्वकर्मा बोले। उनकी बात सुनके बिलार सिंह चिक् दे खैनी थूके और बकरने लगे-’’बिल्कुल ठीक! अगर तरक्की असली चाहिए तो विचार भी असली चाहिए। हम सब अपढ़ हैं, मगर पितामह की बात कितनी सच्ची लग रही है।’’
’’इसका का माने हुआ रे…..मतलब यही निकला ना कि हम लोग मूरख-मुसटंडे रह गए – और मलाई कोई और खा रहा है। सदियों से इहे हो रहा है।’’- भोगल खैनी मुंह में दबाए।
’’बाकी उपाय क्या है अब तो पितामह ही बताएंगे।’’-भीखू पहली बार बकरे। और पितामह की बात सारी दुनिया मान लेगी, है नू…..बुड़बक हो….।’’- बिलार सिंह खैनी के रंग में आ गए थे।
’’तो पितामह की बात नहीं सुने… मात्र दो लोगों का विचार -मार्क्स और एंगेल्स ने मिलकर दुनिया को कैसी सौगात दी। यहां तो हम सब साथ हैं।’’-धूरंधर अपना विचार प्रेषित किए। ’’पर मार्क्स-एंगेल्स का देश पढ़े-लिखे लोगों का देश था। छोटा देश था। हमारी तरह भिन्न जाति-संप्रदाय में दुनिया उनकी नहीं बंटी थी। उनका देश हमारे देश से एकदम अलग। हम अनपढ़। गुलाम।’’ -भोगन
’’ए भोगन भाई! आपकी बात सोलहो आना सच! मगर अब इस सच को बदलना होगा। कल का सच आज का सच कैसे बन जाएगा। दुनिया कहां से कहां चली गई।ठीक कहे नू…?’’ -धुरंधर बोले।
’’अब तो सच का सत् जो निकले, पितामह ही बताएंगे, हम क्या बताएं। इतना ज्ञानी-मानी लोग हैं इस संसार में, उनको क्या यह सच नहीं दिखता!’’-भीखू।
’’खूब दिखता है। जैसा सच धृतराष्ट्र को दिखता था ना, वैसा ही सच। अपना नीहित स्वार्थ। और ये लोग ही शक्तिशाली हैं।’’-भोगन।
’’और हम लोगों की शक्ति दीन-हीन हो गई। हम बिखरे पड़े हैं। यूनियनबाजी खतम। मजूर एकता जिंदाबाद महज नारा बन कर रह गया!’’-बिलार सिंग बोले।
’’चलिए अंधेरा घिर रहा है। बात तो दूर तलक जाएगी शायद कभी खत्म ना हो। गरीबों का नियति ही ऐही है मर्दे कोइयो युग हो-भुगतना उन्हीं को है। बीच में कोई संत या मसीहा आता है -पर हम वहीं के वहीं वापस लौट आते हैं जहां से चले थे।’’-भोगन दार्शनिक अंदाज में बोल रहे थे।
’’चुप रे पंडितवा! खाली पोथी-नियति के बात करता है। जंजीर तोड़ेगा तब नू टूटेगा।’’- धुरंधर बिगड़ गए।
’’तू ही तोड़ेगा जंजीर! अकेले कबार लेगा क्या ? आएं….!’’- बिलार सिंग का लहजा गरम था।
’’काहे गरमिया रहे हैं बिलार भाई….इहां तो डिकससन (डिस्कशन) नू हो रहा है। बाते-बात से नू बात निकलती है सोचिएगा नहीं तो ब्रेनवा जम नहीं जाएगा।’’- भीखू।
’’हां, तू सोच भीखू। ब्रेन को जमने मत दो।’’
’’ऐ बुड़बक सब! ऐही एकता देखाओगे तुम लोग। बात के तह तक तो पहुंचने का कोशिश करो।’’-भोगन।
’’हम का सोचे खेतिहर सब! विद्वान लोग क्या कर रहा है ? पोथी-पुरान लेकर!’’- बिलार।
’’ऐसे सोचने से काम नहीं चलेगा। कब तक अंगूठा कोरे कागज पर मारते रहोगे। है कि नहीं भोगन जी….।’’
’’एकदम सही…। कहीं से तो सुरुआत करें के पड़ी।’’- बीसू।