कविता का रूप कैसे बदलता है देखें जरा। नये रचनाकार ने लिखा था, नवीन प्रयास था इसलिए कसौटी पर खरा नहीं उतरा। उसी कविता को कैसे कसौटी पर खरा उतारें-
चुनाव
हर कोई तो स्वतंत्र है यहां चुनाव करने को
सूरज भी और चंदा भी
हवा भी और पानी भी
धूल और मिट्टी भी
नदी और समुंदर भी,
बस्स् एक मानव ही नहीं है
उसको ही नहीं है
वह एक लाचार है
उसे घर मिल ही जाये
रोटी मिल जाये
साफ पानी ही पी ले
कमर सीधी कर ले
या फिर टिककर खड़ा ही हो जाये।
फलों का स्वाद ले ले,
वो गरीब इंसान एकदम लाचार है
ये सब सोच सोच कर बीमार है
एकदम बीमार!
यही कविता कुछ अन्य पंक्तियां जोड़ने पर देखें कैसे रूप बदलकर रोमांचित करती है-
चुनाव
हर कोई तो स्वतंत्र है यहां चुनाव करने को
सूरज भी और चंदा भी
हवा भी और पानी भी
धूल और मिट्टी भी
नदी और समुंदर भी,
बस्स् एक मानव ही नहीं है
उसको ही नहीं है
वह एक लाचार है
उसे घर मिल ही जाये
रोटी मिल जाये
साफ पानी ही पी ले
कमर सीधी कर ले
या फिर टिककर खड़ा ही हो जाये।
फलों का स्वाद ले ले,
वो गरीब इंसान एकदम लाचार है
ये सब सोच सोच कर बीमार है
एकदम बीमार!
यही असंतोष उसे आगे बढ़ाता है और गिराता भी है।