अंक-17-बहस-2-गांधी जी और मशीन

2-गांधी जी और मशीन

आज हम फिर पीपल की छांव तले बैठे थे। लगभग सब के सब आ चुके थे और समय पूर्व। हमें पितामह की बातों में रस आ रहा था। हम भारतीय इस ’रस’ के बड़े ही आग्रही होते हैं।शुष्क ज्ञान तो हमें कभी रास नहीं आया। जब तक व्यंजन को स्वाद देने वाली तरी न हो, नमक-मिर्च और अचार-पापड़ ना हो, हमारा भोजन नीरस है। यह हमारी खूबी और खामी भी है। आप चाहे जो समझें। हम आम भारतीय जन हैं, जब तक बातों में मजा आता है, गप्प में मजा आता है, भोजन में मजा या स्वाद है-वह हमारा भक्ष्य होता है। आंच पकाकर सिर्फ नमक डालकर हम क्यों खाएं- हमारी मिट्टी में दर्जनों मसाले हैं सब के सब औषधीय गुणों से भरपूर और स्वाद-रसयुक्त! हमारा व्यंजन चम्मच-कांटे का मोहताज नहीं, हमारी पांच उंगलियों में ही रस है, इसे हम सभी भारतीय अच्छी तरह से जानते हैं। क्या आप भात-दाल पापड़ या तिलोरी चम्मच के साथ खाना चाहेंगे ? या सेवईं रोटी या भाखरी-चटनी या दाल-बाटी-चूरमा ? हमारी बोली संगीत साज, सभी में रस है। हमारे कपड़े सादे हैं मगर ऐसा नहीं है कि वे बांके नहीं! रसिकता नहीं! हमारे धर्म में भी रस है। मायथोलॉजी में रस है। हमारा जो भी ज्ञान सम्पति है वह टीकाकारों द्वारा आमजन तक रसिक भाषा में ही संचित है। हमारे बीच गाह्य है। जिस भी वाद ने धर्म सम्प्रदाय ने सिर्फ ज्ञान की बातें की, वह हमारे जेहन में नहीं उतरा। जगह बनाया तो उसी तरह की बातों ने जो हमारे चित्त ने स्वीकार किया, बुद्वि ने नहीं। हम असल में आम भारतीय बौद्धिक हैं ही नहीं, हमें बुद्धिमतापूर्ण बातें पसंद हैं मगर शुष्क ज्ञान के रूप में नहीं। हम बुद्धि-विरोधी कतई नहीं-बस हमारा ग्रहण करने का तरीका जरा अलग है। हमारी रसना अलग है। यह कोई खूबी या खामी नहीं-यह हमारा स्वरूप है। हमारी विशेषता! इसलिए हम अपने जैसा है, हमारी तुलना पश्चिम या अन्य लोगों से नहीं की जा सकती।
आखिर यह सब हम आम भारतीय के रूप में क्यों बताना चाह रहे हैं ? इसलिए कि जब मार्क्सवाद के प्रचार-प्रसार अपने देश के संदर्भ में होने की बात आयेगी तो मैं उस महत्वपूर्ण कारणों में सबसे उल्लेखनीय बात की ओर आपको इंगित कर सकूं। कैसे बाहरी शुष्क ज्ञान (मार्क्सवाद) हम आम भारतीय समझ ही नहीं पाये। कारण और भी हैं-फिर कभी….।
फिलहाल, हम सब की तरह पितामह भी कुछ जल्दी पधार गये थे और खैनी-चूना के पूर्व अपनी टीका रख दी। घड़े का ठंडा पानी पिया। हम सब उनके आगे की कहानी सुनने को बेताब थे।
पितामह बोल पड़े-’’आज हम आपको कल के ही बताये थ्योरी को कुछ व्यवहारिक तरीके से समझाने का प्रयास करेंगे।’’
हम सब चुप! हम सब उनका सिर्फ मुंह ताक रहे थे। पीपल के पत्ते खड़-खड़ करते। गांव का आवारा कुकुर एक छांव में सुस्ता रहा था। नहीं, वह आवारा नहीं था, हमारा गांव ही उसका घर है। वह कुकुर हमारी संस्कृति का बढ़िया नमूना है। उसे सब कुछ ना कुछ देते हैं और वह बदले में पूरे गांव की रखवाली करता है। उसका नामकरण भी हो गया है- जॉनी! इंग्लिश नाम!
सन्नाटा पसरा था। इंतजार हो ही रहा था कि पितामह के होंठ हिले। तभी भोगन पंडित बड़ी जोर का पादे। और लंबा! पहले एक-दो को हंसी आई, फिर बजरंगी कमेंट किए- ’’सतुवा अचार जादे खाए हैं क्या…..!
एक ठहाका लगा! भोगन पंडित भी मुस्कुराने लगे।
’’अरे नहीं ससुरारी से साली इनके लिए छोहाड़ा के हलुवा बनाकर भेजी है-शुद्ध घी में।’’ किसी ने कमेंट किया। पीछे से आवाज आई-’’वोही हम कहें कि इतना जोरदार साउंड कैसे……।’’ कुछ देर हंसी ठठ्ठा चलता रहा।
अब पितामह की बारी थी-
’’आप लोगों ने गौर किया होगा कि मार्क्सवाद में मूल बातें क्या थी। धन। धन का संचय या धन के प्रति घोर आग्रह। संचय का भाव। धन को और धनवान बनाने के लिए कमजोर लोगों का शोषण! यह मानव विरोधी चरित्र है। कमजोर लोगों को भी न्यूनतम अधिकार प्राप्त हो-रोटी, कपड़ा, घर, स्कूल, स्वास्थ्य और आजादी। समानता के भाव। मार्क्स ने देखा कि बुर्जुवा का स्वार्थ इतना अंधा है या परिस्थितियों से इतना मजबूर है कि वह आम श्रमिकों के लिए शुभेच्छु हो ही नहीं सकता। व्यवस्था ने घोर शोषण को जन्म दिया। घोर असंतोष और श्रमिकों की दयनीय स्थिति।’’
’’जब उत्पादन के साधनों पर श्रमिकों का भी वही हक प्राप्त हो, जिसका कि वह अधिकारी है-इसका सीधा अर्थ निकलता है समाज में धन का समान वितरण। धन का कहीं एकत्रीकरण नहीं वरना सभी का समान अधिकार; अर्थात शोषण और असंतोष खत्म। यही समाज ऐसी राज्य-व्यवस्था प्रदान करेगी जिस शासन में ’रूलर’ व ’रुल्ड’ की पहचान कठिन होगी। अर्थात वास्तविक साम्यवाद की आदर्श स्थिति।’’ ’’इसी तरह का विचार हमारे देश में गांधी ने दिया। हालांकि उन्होंने कोई आर्थिक व सामाजिक थ्योरी नहीं बनाई, मगर अर्थव्यवस्था संबंधी उनके विचार थे जो यत्र-तत्र मिलते हैं। इन विचारों से सिद्ध होता है कि गांधीजी ने हालांकि कोई वैज्ञानिक अवधारणा जैसे तथ्य नहीं रखे मगर इस ओर उनकी चिंता और चिंतन साफ था। कह सकते हैं वे मानवीय अवधारणाएं हैं। अब उदाहरण स्वरूप आपको उनके विचार जो मशीन को लेकर थे, उसी को देखिए। किसी ने उनसे पूछा कि गांधीजी आप मशीन-विरोधी हैं -ऐसा क्यों! गांधीजी उस वक्त चरखा चला रहे थे, उन्होंने चरखे की ओर इशारा कर कहा कि वे मशीन विरोधी कैसे हो सकते हैं-चरखा भी तो एक मशीन है। हां, वे उस तरह के मशीनीकरण या तरक्की का विरोध करते हैं जो मानवीय श्रम की अनदेखी करता है। हमारे श्रम को ही पंगु बनाता है, अर्थात बेरोजगार बनाता है।’’ इतना कहा पितामह थोड़ा रुके। हम सब बड़े ध्यान से उन्हें सुन रहे थे। और भोगन पंडित भी।
पितामह आगे बोले, ’’इसे जरा और आगे जाकर समझने की कोशिश करते हैं। मान लीजिए एक सौ परिवारों की बस्ती है। उस बस्ती के हर परिवार के सदस्य चरखा से सूत बनाते हैं। यह गांव सूत से धोती और तौलिया निर्मित कर रहा है। इसका सीधा अर्थ हुआ कि गांव के परिवारों को सूत कातने से लगभग समान आय की प्राप्ति हो रही है। संभव है गांव में ही कोई ऐसा हुनरमंद व्यक्ति, मेहनती व्यापारिक बुद्धिवाला कुशल श्रमिक मौजूद हो जो इन उत्पादों की रंगाई-पुताई, डिजाइन, उनका संग्रहण कर दूर-दराज के मेलों-शहरों में उत्पाद बेचता हो और गांव के अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक कमाता हो शायद दस गुना अधिक, शायद पचास या सौ गुना अधिक। वह गांव का अमीर है और उसकी जीवन शैली भी, जाहिर है अन्य लोगों से भिन्न होगी। गांधी जी ने इस तरह अपेक्षाकृत अधिक धन कमाने वालों की स्थिति से इनकार नहीं किया। यह स्वाभाविक है, मगर जैसा कि गांधी जी का स्वभाव था, उन्होंने यह भी विचार रखा कि ऐसे लोग जो समाज में रहकर समाज के अन्य जनों से अधिक अर्जित करने की क्षमता और गुण रखते हैं तो ऐसे लोगों को अपना अतिरिक्त अर्जन समाज के हित में ही खर्च करना चाहिए, क्योंकि ये ही समाज के ’ट्रस्टी’ हैं। समाज का ट्रस्टी समाज हित में ही सोचेगा। उसे समझना चाहिए कि उसके अतिरिक्त लाभ में वहीं का आमजन या समाज की ही प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका होती है।’’
’’इस तरह गांधी जी ने ऐसे लोगों को ना बुर्जुआ कहा ना ही पूंजीपति बल्कि समाज के ट्रस्टी के रूप में देखा। वर्ग संघर्ष जैसी बात नहीं। लूट या शोषण की बात नहीं।’’
‘‘गांधी जी के इस ट्रस्टीशिप वाले विचार को एक आदर्श भाव ही कहा गया और व्यवहारिक जीवन में इन विचारों को पूरी तरह असफल माना गया।’’
‘‘गांधी के इस विचार की सफलता-असफलता की मीमांसा बाद में करेंगे, पहले देखते हैं उनका मशीन संबंधी विचार कितना क्रांतिकारी है या यूं ही भावुक कल्पना।’’
’’धूरंधर! जरा खैनी खिलाइए, मिजाज टंच कीजिए फिर बताते हैं।’’ पितामह पेड़ से टिक कर पसर गए। हम लोग भी थोड़ा रिलैक्स होना चाहते थे। खैनी घिसाने लगा, चुटकी बजने लगा। जिन्हें पियास लगा था वह उठकर घड़े का पानी पिए। गर्मी में घड़े का पानी अमृत सरीखा। गला तृप्त कर देवे। जो सत्तू खाकर आए थे उनको पानी अधिक लगा।
पितामह धूरंधर का बुद्धि-वर्धक चूर्ण खाए। सब ने खाया। जिन्हें बीड़ी फूंकना था वह धुंआ उड़ाए।
’’तो हम कह रहे थे………….कि गांधी जी का मशीन संबंधी विचार! हम जरा पीछे लौटते हैं, उसी गांव में जहां प्रत्येक परिवार चरखा चलाता है। सभी लगभग बराबर कमाते हैं। इसका मतलब क्या हुआ, मतलब हुआ उस गांव में सूत कातने का कारखाना या मिल स्थापित है। थोड़ी कल्पना और बढ़ाते हैं। आसपास के क्षेत्र में कपास की खेती होती है कपास की मांग की आपूर्ति होती है, परिवहन और वितरण की एक व्यवस्था बनती है, निर्मित माल सूत से कपड़े या अन्य उत्पाद तैयार किए जाते हैं, तैयार माल को आसपास या दूरदराज के बाजार केंद्रों में बेचा जाता है। इस तरह मांग और आपूर्ति में एक सामंजस्य है। इस तरह गांधी जी के मशीनी अवधारणा के तहत जहां मशीन का न्यूनतम प्रयोग मानव करेगा परिवहन वितरण इत्यादि सभी आयामों में मानव श्रमिक लगे हैं। एक ट्रक की जगह 8-10 बैलगाड़ी माल की ढुलाई कर रही है। सीधा मतलब है कि धन का वितरण समान है, समाज में संपन्नता जैसी चीज नहीं है मगर संतुष्टि हासिल है। मानव श्रम की गरिमा व्याप्त है। वैसी व्यवस्था की हामी नहीं जिसमे धन अनावश्यक रूप से कहीं-कहीं ही एकत्रित हो जाता है। धन का एकत्रीकरण है भी तो श्रम गुणवत्ता के कारण। (जिसे समाज का ट्रस्टी बताया गया)’’
’’इस बीच पास के नजदीकी क्षेत्र में कोई पूंजीपति या धनी व्यक्ति कपड़ा मिल स्थापित करता है, 25-50 श्रमिकों की मदद से और मशीन की सहायता से व्यापक माल निर्मित करता है और परिवहन (द्रुत परिवहन) की सहायता से आसपास और दूरदराज के क्षेत्र में एकाधिकार प्राप्त कर लेता है। उसका माल सुंदर, मजबूत और सस्ता भी है। उत्पादन कई गुना ज्यादा। बाजार में मोनोपली आ गया। मिल मालिक खूब मुनाफा कमाता है। वह अपने श्रमिकों को ठीक-ठाक वेतन और बोनस भी दे रहा है। वह पूंजीपति तो है मगर उसका चरित्र अभी सामंतवादी है-अपने श्रमिकों से प्यार भी करता है, उनका ख्याल भी रखता है।’’
’’कहने की आवश्यकता नहीं कि हथकरघा उद्योग जो संपूर्ण गांव कभी मिल की तरह स्थापित था-बिना स्थापना लागत के, बिना भवन के, बिना किसी अधिकारी कर्मचारी के, बिना किसी चौकीदार के…….बिना पेपर आदेश के, वह व्यवस्था पास में मिल स्थापित होने के बाद उसकी आदर्श स्थिति चरमरा गई। सम्पूर्ण गांव के परिवार बेरोजगार हो गये। परिवहन-वितरण और बाजार का पूर्व स्वरूप लुप्त हो गया। धन का समान वितरण खत्म!’’
’’अब मिल कहां स्थापित है-काम यहां भी है मगर सीमित लोगों के पास। काबिल लोगों की पूछ परख बढ़ेगी, ऑफिस में लेखापाल और क्लर्क होंगे मैनेजर और मालिक होंगे।’’
एक मशीन का आगमन क्या हुआ आर्थिक-सामाजिक स्वरूप को कैंसर रोग लग गया। जो मिल अभी सामंतशाही जैसी प्रतीत होती थी उसकी परीक्षा अभी बाकी है क्योंकि एक बड़ी कंपनी ने यहां अच्छा बाजार देखा और मॉडर्न मिल की स्थापना पास ही हो गई। इस मालिक ने कपास उगाने वाले कृषकों से या उत्पादक खेत पर भी एकाधिकार कर लिया। बाजार को ‘एक पर एक फ्री’ पॉलिसी से ग्राहकों को लुभाया जाने लगा। और….., इस तरह यह बीमारी आगे कुछ और गंभीर होती है-मिल मालिकों में घोर प्रतिस्पर्धा शुरू होती है-अब श्रमिकों का शोषण होता है। लूट मचती है। श्रमिक जाएं तो जाएं कहां। पुरानी व्यवस्था मर चुकी और नई व्यवस्था में सबके लिए स्थान नहीं। असंतोष बढ़ता है। प्रतिस्पर्धा में टिकने के लिए श्रमिकों की छंटनी होती है-वेतन व भत्ते कट किए जाते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य गया भाड़ में।’’
’’बीमारी और आगे बढ़ती है-पूरे विश्व में परमिट और कोटा प्रणाली समाप्त किया जा रहा है। खुलेपन का दौर आता है। विश्व पटल पर अपना बैलेंस शीट का घाटा कम करने के लिए, और तकनीक और पेट्रोल का आयात अनिवार्य करने के लिए विश्व बैंक और विश्व संस्थाओं से कई प्रतिकूल शर्तों को स्वीकार करते हुए विकासशील देशों को कर्ज हेतु समझौता करना पड़ता है। खुलापन का दौर प्रारंभ होता है। देश एक बाजार (पोटेंशियल) बना हुआ है। अब विश्व के कपड़ा मिलों से करार अनुसार उनके सस्ते और घटिया मगर आकर्षक माल हेतु तटकर समाप्त किए जाते हैं। विश्व बैंक ने हमारे सरकार को धीरे-धीरे सब्सिडी खत्म करने की शर्त रखी है। अब क्या होता है……….अपना बाजार विश्व के उत्पादों से भर गए। हमारे फैक्ट्री भी पहले जो रोजगार देते थे अब उनके श्रमिक बेरोजगार हो गए। स्थानीय फैक्ट्री बंद हो चला। हमारा स्थानीय मिल का माल विदेशी माल के आगे टिक नहीं पाया। यही हुआ उत्तर प्रदेश के गन्ना कारखानों के साथ। हम करार अनुसार विदेशों का बीट से बना सस्ता शक्कर आयात करने को विवश हैं -हमारे फैक्ट्रियों से निकला उच्च गुणवत्ता वाला अपेक्षाकृत महंगा गन्ने का शक्कर कौन खरीदेगा। बाजार विदेशी बीट वाली कार्बन युक्त शक्कर से पटा पड़ा है। अतः उत्तर प्रदेश के हजारों गन्ना मिलें (शक्कर फैक्ट्री) बंद हो जाते हैं और ऐसा तब होता है जब राज्य की सत्ता समाजवादियों के हाथ में थी। क्या मजबूरी हो सकती है….?’’
और यह सिलसिला कहीं खत्म होता नहीं दिखता….। जो लूट और व्यापार विश्व की कंपनियां हमारे यहां कर रही हैं वही काम हमारे यहां की कंपनियां दुनिया के गरीब देशों में कर रही है। पूरा तालाब ही प्रदूषित है।’’
’’क्या हम आज पीछे मुड़ कर देखना पसंद करेंगे….गांधीजी के उस विचार को फिर से समझ कर मशीन और तकनीक पर आलोचनात्मक दृष्टि डालना चाहेंगे….?’’
पितामह ने हमारी ओर प्रश्न भरी दृष्टि से देखा। हम सब तो उन्हें सुन रहे थे, हमारे पास उनके सवाल का कोई जवाब नहीं था। हम विकसित राष्ट्र का पीछा करते इतना आगे आ गए हैं कि हम अपना रास्ता ही भूल गए। हमारे पास एक भी ऐसा बुद्धिमान या ज्ञानी नहीं जो सच्ची बात कर सके। सच कहने के लिए साहस चाहिए, विश्वास चाहिए। हम विदेशी टेबलेट खा-खा कर अपनी क्षमता खो बैठे। कहां का सच और कैसा साहस ? अमेरिका और पश्चिम के हम कार्बन कॉपी, खराब सी फोटो कॉपी ? हम क्या इन पृष्ठों में खाक अपनी वास्तविकता ढूंढ पाएंगे। हम ना अतिवादी है, हम ना ठीक-ठाक नकलची है, हम ना मॉडर्न है, हम साले ठीक-ठाक पुरातन भी नहीं, हम सिर्फ एक अच्छे गुलाम हैं-मास्टर तो हो ही नहीं सकते। मास्टर होंगे भी तो कैसा-अपने से निपट गरीबों पर हुकुम करने वाले! हम खाक समानता को जीते या समझते हैं। हम एक ही चीज में पीएचडी है-पश्चिम का खराब से खराब फोटो कॉपी! एक और जगह हम सुपर-डुपर हैं-अपने बीच कोई सॉलिड और प्रमाणित काम करेगा उसके प्रति लंबर एक का दोगलापंती करना हमें आता है। हम अपनी अच्छी चीजों के प्रति मुर्दा हैं। हमारी आत्माओं का स्थाई तर्पण हमारे लौंडे, विद्वान बेटों ने गया में पिंडदान कर निपटा दिया है। इसलिए हमारी पुरातन चीजें हमारे पास लौट नहीं पाती। हमारे आयुर्वेद हमारे पास अमेरिका के रास्ते होकर आएंगे, हमारी प्राकृतिक जीवन-पद्धति हम नहीं समझ पाएंगे, योग पर बाबा जी मुठिया रहे हैं। विज्ञान-तकनीक और दवाओं पर रिसर्च कर क्या मिलेगा-अमेरिका वह काम हमारे लिए जो कर रहा है। अतः बंधुओं! हम अपनो ने ही अपनी राज व्यवस्था, समाज व्यवस्था और अर्थ नीति की ऐसी तैसी की तो दोष किसका ? लंदन या जर्मनी ने आकर यह नहीं कहा की वेद मत पढ़ो, गांधी को नहीं मार्क्स को समझो। किसी ने अगर कुछ विचार दिए तो उस पर मीमांसा कर अमल में लाने की बजाय हमने उस विचार को किनारे लगाया। गांधी जी की मूर्ति स्थापित की और नोट पर छापे। उनके असली मंत्र को भूलकर…।’’
पुजारी जी ने मंदिर का पट खोला तो सांझ ढल जाने का एहसास हमें हुआ। पितामह भी ठहरे। हमने पंछियों के झुंड की उपस्थिति भी अनुभव की-उनका कर्णप्रिय संगीत! हम समझ गए आज बस इतना ही। पितामह उठ गए। हम सब भी। हमने पाया कि बैठे बैठे हमारे पांव अकड़ गए थे। समय कैसे बीता पता ही नहीं चला। पर आज की बात सुन हम कुछ बेचैन से थे। हमें और जानने की जिज्ञासा हो रही थी। हमारे बीच गांधी तो थे मगर गांधी जी को हम इस तरह कभी नहीं समझे थे। उनकी आर्थिक विचार भी इतने मानवीय और मौलिक थे। शायद क्रांतिकारी भी!