अंक-25 -पाठकों से रूबरू-प्रकृति के साथ प्राकृतिक लड़ाई

प्रकृति के साथ प्राकृतिक लड़ाई

कोरोना के इस दूसरे दौर ने साबित कर दिया कि इंसान यदि प्रकृति के करीब आकर रहेगा तो उसका अस्तित्व सुखमय बना रहेगा वरना…..!
इशारों में बात नहीं हुई बल्कि चिल्ला-चिल्लाकर उसने बता दिया। ये दौर वाकई बहुत ही महत्वपूर्ण है। व्यक्ति स्वयं के अस्तित्व और इस धरती पर स्वयं की उपस्थिति का चिंतन करने लगा है। जिस विचारधारा को हमने पिछड़ी, गँवई और पुरातन (धर्म विशेष यानी हिन्दू धर्म से जोड़कर) नकार दिया था और खुद को पश्चिम का अनुगामी बना लिया था, आज लज्जा में डूबे हुये हैं।
इस पुरातन प्रकृति प्रिय और पर्यावरण अनुकूल विचारधारा ने आज प्रजा को जीवन दिया है। भरपूर अनाज दिया, रोग से लड़ने के लिये अपने भीतर से दवा भी प्रदान करी।
अचरज होता है कि आज लोग जाने किस उम्मीद अभिलाषा और लालच में दौड़े चले जा रहे हैं जबकि बहुत कुछ तो उनके पास ही है। उनका ही है।
शायद ठीक ऐसे ही मृग, रेगीस्तान में मरता है!
बाजारवाद की हम चर्चा करते हैं तब पाते हैं कि हम सिर्फ खरीदने के आदी बनाये जा रहे हैं। कई एकड़ खेत का मालिक भी राशन की दुकान में लाइन लगा कर लेने में जो सुकून पाता है, वह मोक्ष से कम नहीं है। और अब तो घर पहुंच सेवा शुरू हो चुकी है। यानी घर से बाहर निकलने की जरूरत ही नहीं, अपने घर पर ही बना बनाया खाना पहुंच जायेगा। टीवी, मोबाइल, घरेलु जरूरत का सामान और खाना बनाने की सामग्री के बाद, खाना भी आपके घर में।
मतलब हमने सुविधाओं के माध्यम से अपने सामाजिक परिवेश को बदलने की ठान ली है। केंसर अस्पताल में अपने बाप या मां के साथ बैठा व्यक्ति भी बाहर निकल कर, कोल्ड डिं्रक और पिज्जा खाना पसंद करता है। जबकि उसकी पत्नी ने पराठे और अचार, उसके साथ बैग में रखे थे।
दूसरों को देखकर हमने अपने सामाजिक ठसन की परिभाषाएं बदल कर खुद को एक दलदल में धकेल रखा है।
मेरा बेटा जॉब करता है।, मेरी बहन जॉब करती है।, मेरी पत्नी जॉब करती है। जॉब मतलब प्रायवेट स्कूल में पढ़ाना से लेकर किसी राइस मिल में नौकरी बजाना, किसी दवा दुकान, किसी मॉल, किराना दुकान, कपड़े की दुकान आदि में काम करना अब ’जॉब’ बन गया है। कम्प्यूटर ऑपरेटर का काम करना, आजकल का सबसे बड़ा जॉब है। यहां तक पढ़कर यूं लग रहा होगा कि मैं स्वरोजगार का मजाक उड़ा रहा हूं। नहीं, बिल्कुल नहीं। उपरोक्त सारे वास्तव में काम हैं पर जॉब नहीं!
अब काम और जॉब में क्या अंतर है ?
हमारे पास पांच एकड़ खेत है, दो एकड़ खेत है या फिर कम से कम हजार दो हजार स्केअर फीट की बाड़ी है पर हम उसमें पसीना बहाने में ’काम’ कर रहे होते हैं और ठीक उसी वक्त किसी राइस मिल की गर्म हवा में बोरी गिनने में पसीना नहीं बहता बल्कि ’जॉब’ कर रहे होते हैं। इसके अलावा तीन से दस हजार रूपये में किसी भी फर्म में कम्प्यूटर ऑपरेटर का ’काम’ नहीं कर रहे होते हैं बल्कि ’जॉब’ कर रहे होते हैं।
उपरोक्त आकार के खेत में मात्र दो चार घंटे रोज काम करने से ही तीन से बीस हजार रूपया कमा सकते हैं। यूं ही!
जंगल में आप देखेंगे कि आम, इमली, गोंद, जड़ी-बूटियां आदि फलकर, टूटकर, सड़कर यूं ही बरबाद हो जाती हैं पर उसे बीन कर इकट्ठा करने के लिये लोग नहीं हैं। अमरूद, सीताफल, मुनगा, शहतूत यूं ही बरबाद हो जाते हैं।
आम के सीजन में कच्चे आम तोड़कर या बीनकर इकट्ठे करके, उनको सूखाकर अमचूर बना दिया जाये तो अमचूर का भाव भी बाजार में कम हो जाये। अपने खाने के लिये घर की बाड़ी में मिर्च, टमाटर, बैगन आदि के पौधे या मुनगा का पेड़ नहीं लगा पाते हैं।
ध्यान रहे, ये सारी बातें शहर से लगे गाँवों के लिये हैं। आप दातून इसलिये नहीं करते हैं क्योंकि आजकल मिलती नहीं हैं। और मिलती इसलिये नहीं है कि गांव के लोग दो सौ रूपये प्रतिदिन की मजदूरी करना जॉब मानते हैं। दो सौ रूपया प्रतिदिन यानी पांच छै हजार रूपया महीना।
गोबर के कंडे के दर्शन दुर्लभ हो गये हैं। एक कंडा आज के समय में पंद्रह रूपये में बिक रहा है। लोग इसके चलते दाल बाटी खाना बंद कर दिये हैं। सिंके आलू और भुनी फल्लियां महंगे हो गये हैं।
एक किसान का बेटा एग्रीकल्चर में एम. टेक. करने के बाद, किसी बीज सप्लाई कंपनी में या डेयरी में नौकरी करता है तो ये जॉब होता है। ऐसे जॉब करने वाले के लिये सुंदर लड़कियों के साथ-साथ डिगरीधारी लड़कियों के पिताओं की फौज लगी होती है।
ऐसे लड़कों के पिताओं के सीने का माप छप्पन इंची से ज्यादा भी पाया जाता है।
किसी हाइवे के चौक के आसपास, मेन रोड़ के आसपास, मार्केट के आसपास न जाने कितनों का खुद का मकान होगा पर उनके लिये किसी ऑफीस में दरबान, या प्यून, या बाबू की नौकरी करना एक व्हाइट कॉलर जॉब है। पर अपनी उस जगह में चाय की दुकान या पकोड़े की दुकान खोलना निकृष्ट कार्य!
इससे कहीं और आगे -यदि ऐसी सरकारी नौकरी मिल जाये तो फिर ये जगह बेच कर वह नौकरी करना ही वास्तविक कार्य है।
वास्तव में इस जीवन को भली भांति जीने के लिये सबसे ज्यादा जरूरी है अच्छा भोजन, उत्तम स्वास्थ और रहने को एक घर। इसके अलावा हर चीज उपरोक्त की तरह, आवश्यक नहीं है। और हम इन्हीं तीनों के अलावा हर चीज चाहते हैं।
खैर! रोजी-रोटी को स्टेटस सिम्बल में जिसने भी बदलने की योजना बनायी थी; वास्तव में वही प्रकृति का वास्तविक दुश्मन है। और मानव का भी।
शहरों में जानवरों की तरह जीने की ललक नहीं होती है परन्तु जब अपनी जड़ों से मानव कटने लगता है तो फिर वह जानवर बनना पसंद कर लेता है।
गांव के शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और शुद्ध भोजन से बढ़कर क्या आवश्यक हो गया ? शिक्षा का ये कैसा मानकीकरण कर दिया गया है कि सिर्फ दूसरों की हुक्मअदूली करना ही जीने का साधन बन गया है? खेत का मालिक विद्युत मिस्त्री का काम सीखता है, खेत का मालिक नल मिस्त्री काम सीखता है, खेत का मालिक मजदूरी करना पसंद करता है। ये शिक्षा की कैसी परिणिति है ?
क्या आज की तारीख में सब्जी सस्ती है ? फूल सस्ते हैं ? फल सस्ते हैं ? या फिर वनोत्पाद मुफ्त में मिल रहे हैं ? शुद्ध गौ-उत्पाद क्या देखने को मिलते हैं ? क्या इन सबके बिना मानव जीवन कल्पनीय है ?
स्वरोजगार से मानव को विचलित, कौन सी शक्तियां कर रही हैं ? कौन खेती की वंशानुगत जानकारी को अगली पीढ़ी में जाने से रोक रहा है ?
क्या शहर में लगने वाले कारखानों के लिये मजदूरों की कमी पूरी करने के लिये तकनीकी शिक्षा का ढिंढोरा पीटा जा रहा है ? वो मजूरों की संख्या अधिक से अधिक होने पर, उनके शोषण के लिये तकनीकी शिक्षा के हब तैयार किये जा रहे हैं ? शिक्षित होने का मतलब पुश्तैनी कामों से नफरत क्यों बनता जा रहा है ? (बल्कि बन चुका है।) या फिर खुद के खेतों में काम करना, वनोपज एकत्रित करना, गाय-गोबर का काम, भजिया-चाय की दुकान आदि उपेक्षित काम क्यों माने जाने लगे हैं ? किसके द्वारा ऐसा प्रचार किया जाता है?
गन्ने का रस निकाल कर बेचना, तरबूज काटकर बेचना, जैसे स्वरोजगार छोटे माने जाने लगे हैं। क्यों ?
क्या षडयंत्रपूर्वक स्वरोजगार की वस्तुओं को बेकार और घटिया के साथ-साथ बिलो स्टेटस का सिंबल बना नहीं दिया गया है ?
आप आज बड़े रेस्टोरेंट में बैठकर पिज्जा जैसा बासी माल खाना स्टेटस सिंबल मानते हैं और स्ट्रीट फूड के नाम पर, ताजा चना पोहा आपको साफ सुथरा नहीं लगता है। या चाट पकोड़े में मक्खियां झूमती हैं। आपने बड़े, नामी रेस्टोरेंट और होटल के किचन, फ्रिज, स्टोर को अपनी आंखों से देखा है ? या फिर वहां बनाने वालों को चेक किया है कि वो नहाये हैं, या साफ सुथरे हैं, या फिर साफ-सफाई से बना रहे हैं ? किसी होटल के फ्रिज में देखा है कि ठंडे पानी की बोतल के साथ बासी खाना तो रखा ही है, साथ में अंडे और मटन -चिकन भी उसमें ही घुसा रखा है।
हम ये जरूर देख लेते हैं कि स्ट्रीट फूड वेंडर के कपड़े साफ नहीं हैं, या फिर वह चौक-चौराहे के नल से पानी भर कर लाता है, पर हम ये नहीं देखने जाने की कोशिश नहीं करते कि बड़े होटलों की पानी की टंकियां, कब आखिरी बार साफ हुई थीं, या फिर उनके कूड़ाघर में जितनी गंदगी है ठीक उतनी ही उनके फ्रिज में है। काकरोचों का अम्बार लगा हुआ है। बने हुये खाने के ऊपर काकरोच चहलकदमी करते रहते हैं।
इस पूरे आलेख में कई नकारात्मक बातें हैं। जैसे शिक्षा पर प्रश्न उठाया है। तथाकथित छोटे कार्यों की वकालत की है। गंदगी को अपनाने को कहा है। प्रायवेट जॉब को नीचा दिखाने की कोशिश की है। तकनीकी शिक्षा का मजाक बनाया है। तकनीकी शिक्षा का विरोध करते हुये यह नहीं विचार किया कि इनके बिना औद्योगिक विकास कैसे होगा।
पर ये सारी बातें नकारात्मक ही हैं ?
शिक्षा का मतलब बेहतर जीवन होता है या फिर किसी एक दिशा की आसक्ति? क्या समाज में सभी पढ़े-लिखों को सरकारी नौकरी मिल जाती है ? और उसमें भी आदेश देने वाली कुर्सी में बैठे-बैठे करने वाली नौकरी कितनों को मिलती है ? शिक्षित और नौकरी पाने वालों के बीच का प्रतिशत कितना होता है ? क्या सभी को नौकरी मिल जाती है ? जिनको नहीं मिलती है, उनके स्वाभिमान और आत्मविश्वास का क्या होता है ? उनको वापस इस दुनिया में रहने के लिये, कितनी मेहनत करनी होती होगी ? उनका कौन सहारा बनता है ?
जिनको छोटे कार्य घोषित किया गया है क्या उनके बिना दुनिया चलती है ? क्या ऐसे लोग इस दुनिया के लिये अपना योगदान नहीं देते हैं ? क्या ऐसे लोगों को मजबूरी में ही काम करते रहना चाहिये ? या मजबूरी में ही काम करते हैं ? या फिर उनको मजबूर किया जाता है, ये सब करने के लिये ?
यदि ऐसे छोटे कार्यों के बिना दुनिया नहीं चल सकती है, तो फिर इनको छोटा काम क्यों कहा जाता है ? लोगों के भीतर इसके सहारे अच्छे से जीवन जीते हुये भी, आत्मसम्मान क्यों नहीं उपज पाता है ?
जब हम बहुत सा पैसा देकर गंदगी ही खा रहे होते हैं तो फिर कम पैसे में क्यों नहीं खा सकते। या फिर स्ट्रीट फूड वालों को गंदगी से करने और रहने वाला क्यों कहा जाता है ?
यहां एक बात और सामने आती है कि गन्ने, आम, संतरे, मौसम्बी आदि का जूस, सत्तू का शरबत, नींबू का शरबत आदि में विटामिन, मिनरल्स और ताकत होती है, या फिर कोल्ड ड्रिंक में ? पेकेटबंद जूस के नाम पर फ्लेवर्स पीने वालों को हीरो कौन साबित करता है ? पिज्जा-बर्गर से कहीं ज्यादा पावरफुल समोसा, भजिया, पोहा, चाट, सत्तू, इडली, दोसा नहीं होते हैं क्या ? तो फिर इनको बढ़ावा देने की जगह, पिज्जा संस्कृति को कौन बढ़ावा देता है ?
कोल्ड ड्रिंक की बिक्री को बंद करने से ही लाखों किसानों की फसल को सही दाम मिलने लगेगा बल्कि लाखों लोगों को रोजगार भी मिल जायेगा। इसके साथ ही दवा खर्च कम होगा उम्र बढ़ेगी।
सरकार से उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि खाली पड़ी जमीन पर फलदार पौधे लगाये, या फिर साल भर सब्जी देने वाले सहजन के वृक्ष लगाये ताकि लोगों को सब्जी तो ढंग की कम भाव में, खाने को मिले।
पर, हमें सरकार के भरोसे न रहकर खुद ही कुछ करना है। हमारे खेत के छोटे से हिस्से को बाड़ी में बदलकर, उसमें दो चार प्रकार की सब्जी उगानी चाहिये। कुछ फूल उगाने चाहिये। फूल के कुछ प्रकार होते हैं जो पौधों की जगह पेड़ होते हैं जैसे चम्पा, चमेली, गुलमोहर आदि इनसे फूल मिलेंगे और आपकी आय बढे़गी।
इसी तरह सहजन का पेड़ साल भर सब्जी देता है। सेम, बरबट्टी की बेल भी सालों-साल उगी रहती है। केला फल भी है, और सब्जी भी। इस तरह के अनेक फल-फूल और सब्जियां हैं, जिनको एक बार उगा कर कुछ पैसे की आवक बराबर बनी रहती है। मीठे नीम का पत्ता साल भर बिकता है। अदरक, टमाटर साल भर बिकते हैं। आजकल शादी पार्टी में शलजम बारहों महीने खपत होने वाली चीज हो गयी है।
सबसे बड़ी बात है कि इन सब चीजों की खपत हर शहर, हर जिले, हर जनपद में है। इसके लिये बड़े बाजार की जरूरत नहीं है। इनका उत्पादन करके आपको स्वयं बेचना है। वर्तमान में बड़े फार्म हाउस ये काम कर रहे हैं, और उनके यहां गांव के खेतवाले मजदूरी कर रहे हैं। हम अपनी मजदूरी से कहीं कई गुना ज्यादा, आराम से कमा सकते हैं।
देश में चाट वाले, गुपचुप वाले, भजिया वाले कई लाख होंगे पर उनके बीच कुछ लाख और भी खप जायेंगे। किसी का धंधा मार नहीं खायेगा। पर, क्या ये समाज उनको छोटा काम कहना बंद करेगा ? उन ईमानदारी से कमाने वालों को ये समाज हेय दृष्टि से नहीं देखेगा, ये वायदा कौन करेगा ?
इस कोरोना न बता दिया कि सब्जी बाजार जाकर ही सब्जी खरीदना समझदारी नहीं है। आज शहरों में मजदूरों ने मजदूरी छोड़कर सब्जी बेचना शुरू कर दिया और अच्छा भला उनका घर चलने लगा। लोगों ने आम पापड़ बना कर, बड़ी कंपनियों का एकाधिकार तोड़ दिया। यहां तक कि गांव वालों ने जमकर काजू किशमिश भी घर-घर जाकर खूब बेचा।
आपको मालूम है कि टेलरिंग का व्यवसाय क्यों बंद होने की कगार पर है ? क्योंकि कामगार नहीं मिल रहे हैं। कामगारों की कमी के चलते टेलरों ने सिलाई का चार्ज बढ़ा दिया है। वहीं दूसरी ओर रेडीमेड कपड़ों की फैक्टरी में टेलर भीख की तरह पैसे लेकर काम कर रहे हैं। जो शर्ट मामूली टेलर तीन सौ में सिल कर देता है, वही शर्ट रेडीमेड वालों को तीस रूपये में सिल कर देता है। और पेंट की सिलाई जो छै सौ से हजार रूपये है, उसे रेडीमेड वाला पचास रूपये में।
ऐसा इसलिये होता है क्योंकि सभी शहर जाकर कमाना चाहते हैं। सभी शहर जाकर ’जॉब’ करना चाहते हैं। शहर का जॉब वाला जितना कमाता है, उससे कहीं ज्यादा गांव का टेलर पुराने कपड़े सुधार कर कमा लेता है। परन्तु गांव वाला कौन है ? वो क्या कहलाता है ? उसकी इज्जत क्या है ?
अजीब कश्मकश है। बाजार अपनी ओर खींच रहा है….! कोरोना फिर से प्रकृति की ओर जाने कह रहा है….! सरकार की अपनी नीतियां हैं….खुद के फायदे या जनता के (?)…..! इन सबके बीच मानव अस्तित्व भी बना रहे…..! अजब मुश्किल है…., अपने खेतों में कम कमा कर मालिक बना रहे या फिर ’जाब’ की गोद में बैठ कर चमक दमक से खुद को फुसलाता रहे….।

 

 

 

 

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