लघुकथा-अरविन्द अवस्थी

कन्यापूजन

नवरात्र के दिन चल रहे थे। शहर में कई स्थानों पर मां दुर्गा की प्रतिमाएं स्थापित की गईं थीं। दिन में तो हवन-पूजन होता ही था, शाम को बिजली की चकाचौंध में मॉं की आरती का नज़ारा देखने-सुनने लायक होता था। आरती और प्रसाद लेने सारा शहर उमड़ पड़ता था।
अष्टमी के दिन सुबह से ही घरों में चहल-पहल थी। पूजा-पाठ के साथ कन्याओं को भोजन करवा कर अधिक से अधिक पुण्य कमाने की होड़ लगी हुई थी। जिसके घर में कुमारी कन्याएं थीं, उनके यहां तो सुबह आठ बजे से बुलाने वालों का तांता लगा था। लड़कियों के लिए भी वह दिन बड़ी खुशहाली और सम्मान का था। भोजन भी करती थीं और कुछ न कुछ दक्षिणा भी पाती थीं। मुझे यह सब देखकर प्रसन्नता थी कि समाज में जहां उनके प्रति दोयम दर्जे की भावना है वहीं उनकी पूजा भी की जाती है। मेरी भी दोनों लड़कियां कई घरों में कन्यापूजन के लिए बुलाई गईं थीं।
अगली सुबह अख़बार उठाकर पढ़ने के लिए ऑंखों पर चश्मा चढ़ाया ही था कि एक हेडिंग पर निगाह अटक गई, लिखा था-‘कन्यापूजन के ंबहाने घर में बुलाकर नाबालिग के साथ दुष्कर्म।’

अरविन्द अवस्थी
श्रीधर पाण्डेय सदन
बेलखरियाकापुरा
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