अंक-2-बहस-पाठक क्यों दूर हुआ ?

पाठक क्यों दूर हुआ ?

पिछले 20-25 वर्षों में दृश्य में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ खासकर उदारीकरण की प्रक्रिया के बाद ! भाषा, व्यापार, साहित्य, कला, सिनेमा हर क्षेत्र प्रभावित हुए बिना रह न सके। भाषा और शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण और पब्लिक स्कूलों की अवधारणा ने अंग्रेजी की महत्ता और अधिक स्थापित की- पहले से ज्यादा। दूसरे- पहले जहां हिन्दी के अनुवादक, हिन्दी के प्राध्यापकों की मांग होती थी वे सिमट गये। इंटरनेट ने अंग्रेजी को और भी अनिवार्य सा कर दिया। मध्यम वर्ग के उदय ने पब्लिक स्कूलों की ओर दौड़ लगाई जहां हिन्दी साहित्य की जगह अंग्रेजी लिटरेचर ने स्थान लिया। हिन्दी काम-चलाउ, आ जाए चल जाएगा, मगर अंग्रेजी का व्याकरण और प्रवाह दुरूस्त हो। अंग्रेजी का प्रचलन बढ़ गया। पब्लिक और मिशनरी-स्कूल कालेजों में अंग्रेजी के प्रकाशकों द्वारा आज भी स्कूल-स्कूल, कालेज-कालेज जाकर अपने प्रकाशनों की सूची बांटी जाती है। हर विद्यार्थियों को पुस्तकें (अंग्रेजी में) खरीदने के लिए एक तरह से बाध्य सा किया जाता है। और, प्रकाशकों द्वारा ऐसी किताबें छापी जाती हैं जो ‘टीनएज’ अर्थात् किशोरवय के उपयुक्त हों। यही हाल स्कूली बच्चों के लिए भी किया गया जबकि हिन्दी के प्रकाशकों के यहां ऐसी किसी योजना की आवश्यकता नहीं समझी गई। वैसे भी हिन्दी पाठशाला गरीबी रेखा वालों के लिए है जहां दोपहर के भोजन की व्यवस्था शासन द्वारा की जाती है- क्या उनके पालक 200/- रू0 की किताबें खरीद पाएंगे ? (हालांकि प्रकाशक चाहें तो 20/- रू0 की ऐसी किताबें उपलब्ध करा सकते हैं- मगर ‘कल्याणकारी राज्य की स्थापना’ सिर्फ यहां संविधान की आदर्श भावना भर रह गयी है।)
अंग्रेजी प्रकाशकों ने युवावय के रोमांटिक, सेक्स-विषयक साहित्य प्रचुरता में छापे। युवा वर्ग को आकर्षित किया। युवाओं को प्रतिनिधि चरित्र बनाया। हिन्दी में ‘देवदास’ और धर्मवीर भारती कृत ’गुनाहों का देवता’ के अतिरिक्त और कोई नाम आगे नहीं आ सका। हिन्दी वाले ठीक इसी समय बाहर के लैटिन अमेरिकी देशों और पश्चिम से विचार आयात किये। जब देरिदा महाराज का वहां ‘विखण्डन’ हो गया तो यहां उनका ‘मण्डन’ करने चेरीवाले बाबाजी महाराज अपना सिर मुड़ा के बैठ गये।
इस तरह प्यारे पाठकों! (इस लेख को पढ़ने वाले) हिन्दी का मास युवा पाठक गया भाड़ में! ज्ञानियों, बाबाओं ने ऐसा ऐसा बम फेंका कि बेचारे पाठकों की तिर्री हो गयी ! पाठक गये, बच गये लेखक! ऐसा लेखक जो अपने सहकर्मी, वरिष्ठ लेखकों को देखकर पूछता है – आप कौन ? आप कहां ? आप क्या हैं !
हिन्दी का हक् किसी और ने नहीं, किसी बाहर के आक्रमणकारी ने नहीं छीना (छीनता प्रतीत होता है – हम अभी भी बचे हैं। ) हमने ही स्वयं को हाशिए पर डाला है। हमारे ही वे बच्चे हैं, हमारे पड़ोसी जो पाउलो केल्हो, चेतन भगत को तो जानते और पढ़ते हैं मगर प्रेमचंद का नाम ज्यादा से ज्यादा सुना है, पढ़ने का सवाल ही नहीं! इसमें पाउलो केल्हो अंग्रेजी के नहीं, स्पेनिश भाषा के साहित्यकार हैं और हम उनकी अनुदित रचनाएं पढ़ते हैं। वे ख्यात विश्व प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं। चेतन भगत इसी देश के हैं और युवाओं को रोचक कहानियां सुनाते हैं।
क्या अपनी भाषा की ऐसी कहानियां, उपन्यास नहीं जिन्हें अनुदित किया जाए और विश्व न सही, अपनी हिन्दी पट्टी ही पढ़े। यह जानें की हिन्दी में लेखन किस स्तर का रहा है। हमारी विरासत क्या रही है ! क्या हमने अपनी विरासत अपने बच्चों को ठीक-ठाक सौंपी है। पाउलो केल्हो या किसी भी महान लेखक से हमें आपत्ति नहीं, पर, हमने स्वयं को हाशिए पर नहीं डाला ? क्या ये सारा मामला अपनी चीजों को अब भी हेय नजर से देखे जाने की वृति और दूसरों की (अंग्रेजी दा लोगों की) चीज में ‘सर्वश्रेष्ठ’ ढूंढने की गुलाम मानसिकता नही है ? ये वही भारतवर्ष है जहां अंग्रेजी में लिखने वाले उपन्यासकार को करोड़ों की अग्रिम दी जाती है। उन अंग्रेजी उपन्यासकारों को पढ़ने वाले कौन ? वे इसी इंडिया में बसते हैं। यह सारा मामला राष्ट्रीय स्वाभिमान से जुड़ता प्रतीत होता है। हिन्दी, हिन्दी पट्टी, गंवारपन, गरीबी, पिछड़ापन, एक-दूसरे के प्रति घोर ईर्ष्या, मक्कारी, कपट! बस यही दृश्य दिखता है! क्या सचमुच यहां दो आवाम बसते हैं – एक भारत दूसरा इंडिया ?
अगर हमें अपनी चुनौतियां स्वीकार हैं तो हमें सवालों से टकाराना होगा। भूल जाइए कि हमारा गौरव, हमारा हक़, हमारी कमियां, हमारी मक्कारियां बताने कोई जर्मन विद्वान बाहर से आएगा। बाहर से आनेवाला आ रहा है – कई कैटरिनाएं आयातित हो रहीं हैं- वे हमारे ही दम पर हमारा खा रही हैं। आज भारत की आवाम चीन, जापान, अमेरिका और तमाम यूरोपीय कंपनियों के लिए एक अच्छा बाजार हैं। हमने अपने बल पर उन्हे टिका रखा है। मगर हम दरिद्र क्यां!
कौन न्याय दिलाएगा……।
सवाल कई हैं और जवाब हम सब को मिलकर देना है।
फिलहाल, यदि आवाम बोलती, पढ़ती समझती तो मातृभाषा है, पर वह एकेडमिक भाषा अर्थात् अंग्रेजी में साहित्य पढ़ती है, अर्थात् अंग्रेजी में अनुदित साहित्य पढ़ती है तो साफ है वह पाठक वर्ग साहित्य के वास्तविक आनंद से कोसों दूर है। आप कुछ और हो जाएं मगर साहित्य के रसिक नहीं हो सकते। अच्छी किताबें पढ़ने का मिथ्या अभिमान आपने पाल रखा है।
क्यों ? ऐसा हमने क्यों कहा ?
सवाल भाषा, परम्परा और संस्कृति का है। क्या भगत या मैल्कम या प्रचंडानंद या कोई मिस्टर जैक्शन इस संवाद का अंग्रेजी या अपनी भाषा में अनुवाद कर सकते हैं ? गौर फरमाइए :-
‘‘क्या समझा है रे ससुरे हमको…..! देंगे पछवाड़ि तेरह आ गिनेंगे तीन…..।’’- मिसिर पहलवान अपना मोछं ठनकाए।
‘‘वह वक्त हमारे दादाजी की तेरहवीं का था और हम सभी सगें-सम्बंधी अपना बत्तीसी झलका रहे थे, मानों मृत्यु का जश्न मना रहे हों!’’
उसी तरह जब कोई लिखता है कि घसिया को पता है अपनी टंगिया की धार कब तेज करनी है तो वह बहुत कुछ कह देता है। जिसका किसी भी भाषा में अनुवाद असंभव सा है!
साहित्य का अर्थ ही अपनी मिट्टी है, अपनी वाणी है, अपनी परंपरा, बोली और संस्कृति है।
वे लाखों में पढ़ी जाने वाली अनुदित रचनाएं क्या मिट्टी से जुड़ी हैं ? हमारे संस्कार, परम्पराओं के करीब हैं? अन्य भाषा में रिसर्च, विचार, कथ्य या कहानी जाना जा सकता है, साहित्य का रसिक नहीं हुआ जा सकता। आप चाहे तो इसे वेद मान लें। एक अटल सत्य!
अफसोस! हिन्दी की मुख्यधारा साहित्य ने दूसरों के विचार आयात किये और दूसरों के ‘स्किल’, ‘टेकनीक’ चुराकर यहां ऐसे पौधे रोपने का प्रयास किया जो हमारे सर्वथा प्रतिकूल रहा। हिन्दी में लिखते हुए हम हिन्दी की मिट्टी-संस्कृति के पोषक न बन सके।
बाहरी पौधे तो उपजा न सके, देशज चीजों को भी भारी क्षति पहुंचाई।
‘बस्तर पाति’ लोक जीवन, लोक संस्कृति, यहां की मिट्टी और गंध, यहीं की कहानी और यहीं की कविता यहां के लोगों को समर्पित करना चाहती है। हमने ‘बस्तर पाति’ के प्रवेशांक में ही ‘लोक’ शब्द की जिस महिमा से अपना उद्देश्य प्रस्तुत किया है- उसका विस्तार यही है। हम लोक और अपनी प्रकृति की ओर लौटने को विवश हैं- क्या आप एक कदम और हमारे साथ चलना चाहेंगे ?