मानव मुक्ति की कामना से छटपटाती कविताएँ :-निर्मल आनंद

मानव मुक्ति की कामना से छटपटाती कविताएँ :-

नवें दशक के बाद हिन्दी कविता में जिन कवियों ने अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज की उनमें युवा कवि भास्कर चौधुरी एक सुपरिचित नाम है जो विगत 22 वर्षों से ईमानदारी पूर्वक काव्य यात्रा में शामिल हैं।
जीवन के उबड़-खाबड़ पथरीले रास्तों से गुजरते भास्कर की कविताओं में समय की तल्ख सच्चाईयाँ अभिव्यंजित होती है। उनकी छोटी सी कविता दिल्ली हमारे दोहरे चरित्र को तार-तार कर देती है। यथा-हम कोस रहे हैं/ दिल्ली को/ और मुखातिब हैं/ दिल्ली की ओर/
कुम्हार के आवे में पकी हुई हांडियां की टनक कच्ची हांडियों की आवाज से अलग होती है अनुभव की आँच में पके भास्कर के शब्दों का गठन सामान्य शब्दों से भिन्न है। ऐसे ही पके हुए ठोस शब्दों से जब काव्य का सृजन होता है वह कृति टिकाऊ बन जाती है जो पाठकों से दूर तक रिश्ता कायम कर लेती है। देखिये उनकी कविता की बानगी, पिता मुझे भेजते रहे/ और स्वयं खाली होते रहे/ पिता आज भी खाली हैं/आज जब मैं भरा हुआ हूं/सोचने की बात है आज/जब हम भरे हुए हैं/ तब भी पिता क्यों खाली हैं। जो माँ बाप बेटे की पढ़ाई में अपना सर्वस्व अर्पित कर देते हैं और नौकरी लगने के बाद वही बेटा बुढ़ापे की लाठी नहीं बन पाता इस त्रासदी से पीड़ित समाज में हजारों माँ बाप मिल जाएँगे। इस कविता से वर्तमान युवा पीढ़ी का बुजुर्गों के प्रति असम्मान और गैर जवाबदारी की बात ध्वनित होती है। भास्कर की कविताओं में अनावश्यक विस्तार नहीं मिलता वे मितव्ययी हैं, वे शब्दों की शक्ति से भलीभाँति परिचित हैं। अतः एक कुशल कारीगर की तरह शब्दों की मजबूत ईट चुन-चुन कर कविता के सुन्दर महल तैयार करते हैं- बानगी के तौर पर देखिये उनकी ये कविता :- बच्चा जो आपके बच्चे का ध्यान रख रहा है/बच्ची जो लीप रही है/ आपका आँगन/ गणतंत्र दिवस तो उनका भी है/ मिठाई जो बाँट रही है/ यह कुछ हिस्सा तो उनका भी है। सहजता ही भाषा का सौदर्य है। भास्कर की काव्य भाषा आम जनों की बोलचाल की सरल भाषा है, उनकी कविताओं को समझने के लिए पाठकों को किसी डिक्शनरी की आवश्यकता नहीं पड़ती फलतः प्रथम पाठ से ही उनकी कविताएँ मन में घर कर लेती है। दृष्टव्य है- बेटी ने कहा/ माँ तुम्हारे चार हाथ क्यों नहीं है/ दो हाथ काम करने के लिए/ और दो मुझे गोद में लेने के लिए। एक सजग संवेदनशील कवि के माध्यम से समय अपने को अभिव्यक्त करता है उनकी पैनी दृष्टि उन कोनां अंतरों तक पहुंचती है, जहाँ सच्चाई छिपी हुई है। भास्कर एक सफल डॉक्टर की तरह वर्तमान विसंगतियों की चीर-फाड़कर निष्कर्श को समाज के सामने लाने के लिए कटिबद्ध है इसलिए वे लिखते हैं, मैं देखना चाहता हूँ कोलकाता/ कोलकाता का कोना-कोना/ मैं जाना चाहता हूँ वहाँ/जहाँ बजबजाता है जीवन। निश्चय ही यह वह भारत नहीं है जिसका स्वप्न हमारे पुरखों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देखा था। भ्रष्टाचार और विलासिता में आकंठ डूबे जन प्रतिनिधियों की नजरों में मनुष्य का मूल्य सिर्फ एक वोट तक सीमित रह गया है, जन आकांक्षाओं का ख्याल न कर विकास के नाम पर अपनी जेबें भरना राष्ट्रीय शगल बन गया है। ऐसे नेताओं पर भास्कर व्यंग्य के तीक्ष्ण बाण चलाने से नहीं चूकते। देखिए उनकी बाढ़ कविता में यह दृश्य- आप जनाब/ कीजिए हवाई सर्वेक्षण/ शीशे की पीछे से/ लीजिये जायजा/ दूरबीन आँखों से सटाए/ डूब रहे हाथ पैरों को देखिए/ तैरते केलों के पेड़/ उस पर सवार हमें देखिये/ अंदाज लगाइये बाढ़ की विभिषिका का/ और लौट जाइये दिल्ली।
भास्कर की काव्य दुनिया बहुरंगी है, वे छोटे-बड़े कई विषयों पर अपनी कलम चलाते है, आतंकवादी बच्चों को नहीं मारते, सैनिक, मैं मुसलमान हूँ, पाकिस्तानी माँ की भारतीय बेटी, इजराइल अफगानिस्तानी बच्चों के लिए इत्यादी कविताओं की आवाज राष्ट्रीयता की हदों से निकलकर अन्तराष्ट्रीय हदों को छूती है, जिससे उनकी वैश्विक दिष्ट का पता चलता है।
सार्वजनिक मानव मुक्ति की कामना से छटपटाती भास्कर की कविताओं की जड़ें परम्परा की भूमि में गहरी धंसी हुई है। जो समकालीन हिन्दी कविता को एक नए आयाम देती है।
आलोच्च कृति कुछ हिस्सा तो उनका भी है
कवि-भास्कर चौधुरी

प्रकाशक-संकल्प प्रकाशन

बागबाहरा

जिला-महासमुन्द (छ.ग.) पिन-493449


निर्मल आनंद
ग्राम-कोमा (राजिम)
जिला गरियाबंद (छ.ग.) 493885
मो.-09754215362