काव्य-डॉ. जगदीशचंद्र वर्मा

हिमालय

विश्व पटल पर इसका नजारा, बहुत ही प्यारा है।
हिमालय हमारा गौरव है,
और हम सब का प्यारा है।।
यह हमारा मस्तक है,
और हिम से ढका हुआ।
रक्षा करता सदा हमारी,
ऊपर वाले की दुआ है।।
सभी वन्य-जीवों का
बहुत सुन्दर यह आवास है।
अनेकता में एकता का,
कराता यह आभास है।।
यहां अनेक जड़ी-बूटियां मिलती
और मिलते फल-फूल के उपहार।
जीवन में कभी चुका नहीं सकते, हम इसका उपकार।।
इसे स्वच्छ रखें, प्रदूषण मुक्त रखें, और शिक्षा यह ले पायें।
ऊंच-नीच का भेद मिटाकर,
सबको गले लगायें।।

चक्रव्यूह

कभी न किया बुरा किसी का, न किसी का अहित कर रहा हूं मैं।
खतरा नहीं है दुश्मनों से , डर-डर कर अपनों से जी रहा हूं मैं।
कुरूक्षेत्र में पड़ गया हूं अकेला मैं आज।
गिरधारी के भरोसे जी रहा हूं मैं।।

गुरू द्रोण की चक्रव्यूह रचना का दुर्भाग्यपूर्ण अंत हुआ।
छल-कपट से अभिमन्यू का देखो वध हुआ।
वीर बालक फंस गया कौरवों के मायाजाल में, अर्जुन के हाथों जयद्रथ का देखो अंत हुआ।

आज अर्जुन जैसा नहीं है धनुर्धर, न ही भीम जैसा बलवान है।
कृष्ण जैसा नहीं है सारथी, न ही उनके जैसा भगवान है।
गणतंत्र में षड़यंत्र का यंत्र, प्रयोग कर रहे हैं वो लोग।
जिनके लिए न्यौछावर की हमने जान है।।

डॉ. जगदीशचंद्र वर्मा
सैनिक स्कूल घोड़ाखाल
जिला-नैनीताल, उ.ख.
मो.-09761709361