ढंगनाच
गोरसी चो इंगरा के
कोदाउन-कोदाउन
बिहाव-पार्टी चो ढंगनाच के
सुरता करेंसे।
काल चो करलानी गोठ के
सुरता करेंसे।
जुठा-अंयठा काजे टटालो
नांगड़ा पिला मन के दखेंसे।
सुट-बुट संगे मोटरकार ने
उतरतो सवकार के दखेंसे।
भात काजे टटालो
डुंडा कोन्दा सियान के दखेंसे।
लहु खादलो असन टोण्ड रचालो
बायले मन के दखेंसे।
जुठा थारी उठातोर टोण्ड सुखलो
डोकरी मन के दखेंसे।
दुनो हाते मास तितड़तोर
पेटलामन के दखेंसे।
भुक काजे सुखलो पेट चो
करलानी के सुनेंसे।
मंद खादलो हिरो मन चो
ढंगनाच के बले दखेंसे
लेकी मन के कोहनी ने
ठटातोर के बले दखेंसे।
रंग-रंग चो लुगा पिन्दलो
बायले मन के दखेंसे।
फाटलो लुगा ने देहें के
लुकातो बायले मन के दखेंसे।
ए पिरथी ने मनुख, मनुख चो
फरक के दखेंसे।
अदांय गोरसी नो इंगरा के
लाखड़ी होतो के दखेंसे।
हल्बी से हिंदी में अनुवाद
अंगीठी के अंगार को
कुरेद-कुरेद कर
शादी ब्याह की पार्टी के
नखरों को याद कर रहा हूं।
कल की दुखद बातों को
याद कर रहा हूं।
जूठन और बचे खाने के इतजार में
नंग-धडंग बच्चों को देख रहा हूं।
सूट-बूट पहने कार से
उतरते साहूकारों को देख रहा हूं।
खाने के इंतजार में
बैठे कोन्दा बुढ्ढे को देख रहा हूं।
खून चूसे जैसे होंठ रचाई
महिलाओं को देख रहा हूं।
जूठी थालियां समेटती सूखे मुंह वाली
बुढ्ढियों को देख रहा हूं।
दोनों हाथों से पकड़कर मांस खाते
बड़े पेट वालों को देख रहा हूं।
भूख से बिलखते लोगों की
व्याकुलता देख रहा हूं।
शराब में डूबे हीरो लड़कों को
देख रहा हूं।
लड़कियांं को कुहनियों से टकराते
लड़कों को देख रहा हूं।
रंग-बिरंगी साड़ियां पहनी
महिलाओं को देख रहा हूं।
फटी साड़ियों में देह को
छुपाती महिलाओं को देख रहा हूं।
इसी धरती में मनुष्य-मनुष्य के
अंतर को देख रहा हूं।
अब, अंगीठी के अंगार को
राख बनते देख रहा हूं।
नरेन्द्र पाढ़ी
रहमान गली, पथरागुड़ा
जगदलपुर, छ.ग.-494001
मो-09425536514
बस्तर क्षेत्र के समृद्ध साहित्य में यहां की बोलियों में रचे गये गीतों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहां के लोकगीतों में स्थानीय तीज-त्योहार और विवाह का वर्णन बहुतायत में होता है। उसके अलावा अपने आसपास का यूं चिंतन भी होता है।
प्रस्तुत हल्बी गीत और उसका हिन्दी अनुवाद कवि द्वारा किया गया है। इस कविता में चित्रित चिंतन हृदय में एक कसक सी पैदा करता है। एक ही समय और एक ही स्थान पर कैसी विरोधाभासी स्थितियां विद्यमान हैं।