काव्य-पुरषोत्तम चंद्राकर

हाइकू

जल तरंग
इंद्रधनुष रंग
मन पतंग।

मखमल में
टाट पर पैबंद
बेजान रिश्ते।

गुरू की बानी
सदियों से पुरानी
जग नग मानी।

रंग महल
बंद नौ दरवाजे
भ्रमित सारे।

स्वप्न भी छल
अंतर्मन में बल
जग सरल।
विश्व सृजन
पावन तन मन
हर जीवन।

भयभीत हूं
अमानुषता संग
शांति है भंग।

आग ही आग
नफरत का राग
अब तो जाग

जग की माया
हाथ न कुछ आया
मृग तृष्णा से।

सुंदर तन
मन का मधुवन
निहारे जन।

सिंदूरी शाम
सागर के किनारे
नया आयाम।

तपस्वी मन
ध्यान की गहराई
ज्ञान सघन।

मजबूरी

मैं कुल्हाड़ी लटकाकर
कंधे पर
प्रथम सूर्य रश्मि के संग
पहुंचा अरण्य में।
हरे भरे जंगल के मध्य
मुझ सा तलाशा,
जिसके पास था केवल
गमों का बसेरा।

एक अभागे के अंग-प्रत्यंग पर किया प्रहार
मुझे जुगाड़ना था आहार,
दो गठरी बांध
कंधों पर उठाया।
दुपहरी के समय में
धरती की तपन,
कांटों की चुभन से
गम के साये को रौंदते,
शहर-शहर, गली-गली,
चिल्लाता फिरा
लकड़ी ले लो……!
लकड़ी ले लो……!
बड़ी मशक्कत से उन्हें
कुछ कौड़ियों में ही बेचा,
तब जाकर मेरे पेट की
आग बुझी।

ग़र मैंने उसका
न उजाड़ा होता आवास
तो बरकरार रहता सदा
मेरा उपवास।

भूख मिटाना जरूरी है
जंगल उजाड़ना
मेरी मजबूरी है।

पुरषोत्तम चंद्राकर
शिक्षक आवास कालोनी
शा.कन्या उ.मा.वि. बीजापुर छ.ग.
मो.-09479158525