काव्य-कृष्णचन्द्र महादेविया

धर्म

सोपुर के पुल पर
कुछ कहा था
पीछे से उसने
शायद कश्मीरी में
मुड़ा था मैं यन्त्रवत।

भौरों के छते से
ताजा टपके शहद सी
मीठी बोली और
उसकी मुस्कान
उगते चन्द्र सी
फैल गई थी मुझमें।

तब जैसे
फैल गई थी चहुंओर
गुनगुनी उष्णता
और जैसे
पिघल गई थी
पूरी की पूरी
कश्मीर में बर्फ।

उस सुनहरे मौसम में
मेरी आंखों का
समंदर भी
बिल्कुल वैसा ही था
जैसा था उसकी
आंखों का समंदर।

ठीक उतनी ही थी
उसकी सांसों की गति
जितनी थी
मेरी सांसों की गति।

पर अचानक
गोली से बिंधी सी
फड़फड़ाती-तड़पती
लौट गई थी शबीना
जेहलम ले गई बहाकर
सब कुछ जैसे।
चूंकि जान बूझकर
कम्बख्त दोस्त ने
पुकारा जो था
मेरा हिन्दू नाम।

तुम्हें नहीं पता

तुम्हें नहीं पता
उस पीड़ा का
बच्चा जनती बार
होती है जो
औरत को

तुम्हें नहीं पता
उस भीतरी चोट का
जिसे देता है अध्यापक
खड़ा कर कक्षा में
कई बार ट्राइब पुकारते।

तुम्हें नहीं पता
बाबजूद भी
भारी फसल के
गेहूं और गन्ने का
होता है आयात।

तुम्हें नहीं पता
छिनती है जब
कृषि भूमि-जंगल
पहाड़ और नदियां
कम्पनियों के पक्ष में
किसान करता है आत्महत्या
और होते हैं पैदा
नक्सलवादी।

कृष्ण चन्द्र महादेविया
अधीक्षक
विकास खण्ड पधर
जिला मण्डी
हि0 प्र0 175012