तलाश
आज सुबह से ही उदासी मेरे साथ थी। मैं जहाँ भी जाता वह भी साथ ही जाती, जहाँ ठहरता वह भी साथ ही ठहर जाती। जब चलता वह भी साथ ही चल देती। मैं नहीं चाहता था कि वह मेरे साथ रहे पर उदासी थी कि मुझे छोड़ने को तैयार ही नहीं हो रही थी।
बेचैन मन इधर-उधर कुछ खोजने में व्यस्त हो गया। खोज चलती रही पर कहीं कुछ मिल ही नहीं रहा था। क्या था जिसको खोज रहा था मन ? मुझे तो यह भी नहीं पता। थक हार कर चाय बनायी…. चाय पीकर कदाचित कुछ अच्छा लगे पर बात नहीं बनीं। पलंग पर लेटकर सोने का प्रयास किया पर नींद को नहीं आना था सो वह नहीं आई। इस बार उसने अपनी छोटी बहन तन्द्रा को भेज दिया था।
तन्द्रा भी अनमने मन से आयी थी सो कुछ ही देर रूककर चली गयी। मुझे उठना ही पड़ा, उदासी भी साथ ही उठ बैठी। इस बार मन के आवारापन ने भी अपनी आँखे मली जैसे नींद से जागा हो अभी-अभी। मैंने कहा, तुझे भी अभी ही जागना था रे।
वह बोला, चलो कहीं चलते हैं।
मैंने पूछा, कहाँ ?
वह बोला, कहीं भी…… जहाँ भी कहीं कुछ मिल जाय।
मैं, मेरा आवारा मन और मेरी उदासी तीनों घर से निकल कर सड़क पर आ गये। उदासी मुझसे बुरी तरह चिपकी हुयी थी, सि़र्फ चिपकी हुयी ही। उसे मुझसे कोई मतलब नहीं था। आवारा मन अपनी आदत के वशीभूत हो भटकने लगा और मैं फिर कुछ खोजने में लग गया।
सड़क के किनारे-किनारे सुन्दर सप्तपर्णी की पंक्ति को निहारा, उसके सात-सात पत्तों वाले मुकुट भी आज सुन्दर नहीं लग रहे थे। मेरे पैर मुझे खेतों की ओर ले गये। मैंने देखा, हरा कम्बल सिर से ओढ़कर खेतों में जहाँ-तहाँ बैठे काजू के पेड़ तो ऐसे लग रहे थे जैसे किसी छापामार युद्ध की तैयारी में बैठे नक्सली हों। नक्सलियों का विचार आते ही मन के चित्रपटल पर सिर कटी लाशें और खून के छोटे-छोटे पोखरों पर बैठी मक्खियों के झुण्ड के झुण्ड दिखाई देने लगे। तब मैं तालाब की ओर गया। वहां कुमुदनी तो खिली थी पर लग रही थी श्री श्रीहीन। पार्क गया, झूला झूलते नन्हें-मुन्ने बच्चों की ओर देखा, पर वे भी आकर्षित नहीं कर सके आज। तरूणी के पुष्प देखे, पर मुझे पुष्प कम और उनके काँटे अधिक दिखायी दिये। मैं फिर सड़क पर आ गया।
हम तीनों सड़क पर चलते रहे, अपनी-अपनी दुनिया में खोये हुये। खोये-खोये ही मेरी खोज चलती रही….. और मैं निराश होता रहा। तब मैंने अपने आप से पूछा, क्या खोज रहा हूँ मैं ?
कहां मिलेगा वह जिसकी तलाश में मैं हूं ?
मैं स्वयं से पूछे जा रहा था…. उस ‘स्वयं’ से जो उत्तर न देने की कसम खाये बैठा था। इस ‘स्वयं’ को आखि़र हो क्या गया है, यह कुछ बोलता क्यों नहीं ?
ओह, अब समझा, उनके पास उत्तर ही नहीं होगा तो बतायेगा कहाँ से। पर उसके पास, उत्तर क्यों नहीं हैं ? यदि उसके पास उत्तर नहीं है तो क्या रिक्तता है वहाँ ?
रिक्तता….. रिक्तता….. रिक्तता……
अचानक एक प्रकाश सा कौंधा……….. यही तो उत्तर है- ‘‘रिक्तता’’।
‘स्वयं’ ने उत्तर दे दिया, व्यर्थ है यह भटकाव। अन्दर की रिक्तता बाहर की पूर्णता को देख पाने में सक्षम नहीं है। अन्दर का सौन्दर्य ही बाहर के सौन्दर्य को पहचान पाता है। अन्दर यदि रिक्तता है तो वह बाहर भी रिक्तता को ही पहचान सकेगी। अन्दर यदि पूर्णता है तो बाहर की पूर्णता व्यापक हो जाती है। अन्दर यदि कटुता है तो वह बाहर भी कटुता को ही देखेगी, सर्वत्र। अन्दर यदि निर्मलता है तो वह बाहर भी निर्मलता के अतिरिक्त और कुछ देख ही नहीं सकेगी। जो बाहर है आवश्यक नहीं कि वह अन्दर भी हो, किंतु जो भी अन्दर है वह बाहर अवश्य है।
तो यह तलाश बाहर नहीं, अन्दर करनी होगी, खोज की दिशा बाहर नहीं अन्दर की ओर है। खोज की इस यात्रा में कोई साथ नहीं रह पाता…… अकेले ही करनी पड़ती है यह यात्रा।
अब तक ‘‘मैं’’ कहीं दुबक गया था, ‘‘उदासी’’ पलायन कर चुकी थी और ‘‘स्वयं’’ अकेला रह गया था। बादल को भी कभी छटना ही था न। ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णाद् पूर्णमुदच्यते……… का अर्थ अब स्पष्ट होने लगा था।
डॉ.कौशलेन्द्र
शास. कोमलदेव जिला चिकित्सालय, कांकेर
मो.-0
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