काव्य-अशोक आनन

हमने घर-घर बस्तर देखे

कैसे-कैसे मंजर देखे
दुश्मन घर के अंदर देखे।
बस्ती का क्या हाल बतायें-
हमने घर-घर बस्तर देखे।
बच्चों के भी हाथों में अब-
हमने चाकू-खंजर देखे।
कब तक बच्चे काबू रखते-
रीते रोज़ कनस्तर देखे।
आंसू भी न पिघला पाये-
हमनें वे दिल पत्थर देखे।
घर के अब दीयों से हमने-
जलते घर के छप्पर देखे।
जाकर सीधे चुभे हृदय में-
ज़हर बुझे नश्तर देखे।
जिनके ‘आनन’ लगे घिनौने-
मानव ऐसे अक्सर देखे।

भविष्य जंगल का

पांव सभ्यता के
जब से पड़े हैं जंगल में
धुंधला गया है भविष्य
जंगल का
हो गये हैं हल्दई
चेहरे पेड़ों के।
घुल गया है जहर
हवा में
उड़ाने लगी है अट्ठहास
अट्टालिकायें
जंगल तब्दील हो गये हैं
शहरों में
उग आये हैं
पेड़ आदमियों के।
नहीं बची है जगह
पैर रखने को।
चिंगारी जो छिपा रखी है इसने
अपने हृदय में
बहुत है जलाने के लिए
समूचा जंगल।
जंगल-
जो धड़कन है आदमी की।


अशोक आनन
संपादक आयास
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