साहित्य का जमाना नहीं
क्या ऐसा कोई समय आएगा जब मनुष्य को साहित्य पढ़ने की आवश्यकता नहीं होगी। सद्-साहित्य, कला रचना से मनुष्य का नाता सम्पूर्णतः टूट जाएगा।
संभवतः दो ही ऐसी स्थितियां हो सकती हैं- एक, जब मनुष्य इतना प्रबुद्ध और आत्मज्ञानी हो जाए कि वह सदा लीन रहे। स्वयं में, संसार के सच में। दूसरे, जब वह इतना अल्पज्ञानी हो कि उसे गधे से भी निम्न माना जाए। यानी जब वह या तो बोझ ढोने में लीन रहे या घास खाने में। तीसरी स्थिति उसके लिए नहीं है।
क्या यह संभव है कि मनुष्य नामक प्रजाति के ये दो ही भेद हों। ये दोनों ही अतिवादी-भेद हैं और दूसरे यह कि इस प्रकृति-रचना की तरह मनुष्य भी एक गतिशील प्राणी है। कोई स्थिर संरचना नहीं। पुनः मनुष्य की जिज्ञासु प्रवृति होने के कारण वह प्रश्न पूछता है। जीवन द्वारा उठाए सवालों से वह जूझता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि विद्यालय और महाविद्यालय सिर्फ किताबी ज्ञान देते हैं। जीवन के वास्तविक प्रश्नों से मुठभेड़ मनुष्य को अकेला ही करना होता है। चाहे ये मुठभेड़ मानसिक हों, आत्मिक हों, शारीरिक हों। व्यक्तिगत हों या सामुदायिक। इन सवालों के हल नितांत अकेले ही खोजा जाता है और अब तक मानव विकास में ऐसे गूढ़ तत्व अकेले ही खोजे गये हैं। अर्थात् जाने-अनजाने, सत्य हमें आकर्षित करता है। संसार के झूठ और सच प्रेरित और अभिप्रेरित करते हैं। द्वन्द इसका मूल चरित्र है। सत्य एक गूढ़ पहेली की तरह है और यह समय, स्थान तथा व्यक्ति सापेक्ष होता है। एक का सत्य सबका सत्य नहीं हो सकता। समाज में अनुशासन के लिए एक आचारसंहिता सब-पर समान रूप से लागू की जा सकती हैं, पर जहां तक व्यक्तिगत सत्य की बात है, व्यक्तिगत ज्ञान की बात है, व्यक्तिगत मोक्ष या मुक्ति की बात है, व्यक्तिगत सुख का दुःख का सवाल है, यह एक जैसा लगते हुए भी सबका नितांत निजी और भिन्न होता है। और यदि आप वास्तव में सच के प्रति, यथार्थ के प्रति, चाहे जिस नाम से पुकारें, जरा भी आग्रह रखते हैं तो आपके लिए सिर्फ साहित्य ही समाधान है। बल्कि ज्यादा लोकतांत्रिक शब्दावली में ये कहा जाए कि यहां साहित्य आपका अच्छा मित्र हो सकता है। चाहे जिस भाषा में, जिस दुनिया की वो रचना हो।
एक सफल एम0बी0ए0 ग्रेजुएट, सफल डॉक्टर या इंजीनियर या ऐसे ही सफल सिविल सेवकों के लिए कहा जाता है कि अब इन्हे पढ़ने की आवश्यकता नहीं, इन्होने खूब रगड़कर पढ़ाई की है। अब कितना पढ़े, अब हो गया।
अर्थात् यह युवा फैशन है कि पढ़ाई सिर्फ नौकरी पाने तक ही सीमित है। यह तथ्य हमारे आस-पास बिखरा पड़ा है। जिन्हें सचमुच कुछ पढ़ना चाहिए उन्होंने पढ़ना बंद कर दिया है।
एक सवाल उठता है- क्या जीवन या संसार इतना सीमित होता है ? क्या मानव जीवन की सार्थकता सिर्फ इतनी भर है- पढ़ाई, नौकरी शादी और बच्चे! मनुष्य होने की परिभाषा बस इतनी ही…..? अवश्य इस परिभाषा में एक आलीशान बंगला और एक लक्जरी गाड़ी, एक शानदार बैंक-बैलेंस आप जोड़ सकते हैं। (रसिक लोगों के लिए दूसरी बीवी भी जोड़ लें।)
क्या ये चीजें अंतिम यथार्थ हैं जो हमें पूर्णतः तृप्त करती हैं ? लो, मानव विकास-चक्र सम्पूर्ण हुआ!
यह संसार जो अनंत है, यह जीवन जो गहरा और न जाने कहां तक विस्तृत है- हमें चुनौतियां नहीं देता ? सृष्टा से क्या चूक हो गई कि उसका जादू लोगों को आकृष्ट नहीं करता। लोग एक ठहरे तालाब की तरह स्थिर हो जाते हैं। सत्य हमें रोमानी नहीं प्रतीत होता! एक उदास, नीरस और खुश्क जीवन से हम अभिप्रेरित रहते हैं- अपनी नियति मान! मजा कि हम खुश हैं!
लोगों का जीवन के प्रति नजरिया और उनका व्यवहार परेशान करने योग्य है। समय आप पर टूट पड़ा है- मोबाईल कभी भी आपकी निजता में प्रवेश कर जाता है। टेक्नोलॉजी के आप-हम सभी गुलाम हो गये हैं। बच्चे-बूढ़े सभी को सोशल मीडिया और टीवी खाए जा रहा है। हम-सब अदृश्य ज़ंजीरो से बंध चुके हैं। हमारी भीतरी पुकार, अन्तर की आवाज कहीं दब सी गयी है। बाहर-शोर है। मजा ये कि हमें इस बात का अहसास भी नहीं कि हम बंध गये हैं। बंधुआ मजदूर की तरह। हमने स्वतंत्रता का अर्थ ही खो दिया है। क्योंकि अपनी स्वतंत्रता हम इन्हीं चीजों में ढूंढने लगे हैं। पहले से बेहतर भौतिक सुख! पहले से बेहतर कार……,बेहतर नौकरी………! बेहतर पति या पत्नी या ब्वाय फ्रेंड या गर्लफ्रेंड!
भागना…..सिर्फ भागना….! ठहरने की जरूरत ही नहीं। बेशक, संसार में स्थिर कुछ नहीं मगर इस तरह की भागम-भाग ? ऐसी संस्कृति, ऐसी प्रबुद्ध कोटि का मानव जो सिर्फ सुविधाओं के पीछे भाग रहा है, दूसरों को इसके पीछे भागता देख रहा है, अपने पीछे लोगों को भागता देख रहा है- वह किस तरह ठहरे और हम कहें कि भाईजान! दो पल सांस तो लो—! यह साहित्य है। यह तुम्हारा अच्छा मित्र हो सकता हैं। दो पल रूको तो !
मगर ऐसे ही भागते लोग कहते हैं- अब साहित्य का जमाना नहीं ! तुम किस जमाने की बात करते हो—!