अंक-2-बहस-पाठकों से दूरीः प्रकाशक व लेखक के बीच नये रिश्ते

पाठकों से दूरीः प्रकाशक व लेखक के बीच नये रिश्ते

बदलता समय, विद्वानों द्वारा अपने समय को पढ़ने और पकड़ने में हुई चूक ने लेखकों और प्रकाशकां के बीच एक सर्वथा नवीन सम्बंध लेकर आया ।
वह एक दौर था जब प्रतिभाशाली लेखकों की पहचान देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते ही हो जाती थी। प्रकाशक और संपादक अच्छे लेखक की शिनाख्त ही नहीं करते थे, उन्हें हर संभव बढ़ावा भी देते थे। प्रकाशक स्वयं स्थापित (चर्चित नहीं) लेखकों के दरवाजे खटखटाता था। संभव है आज भी वे किसी का दरवाजा पीट रहे हों, पर बात वो नहीं जो पहले थी।
सत्तर-अस्सी के आस-पास अ-कहानी नामक दौर ने साहित्य में ‘अ’ ही ‘अ’ बिछा दिया। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि समुद्र पार के आकर्षण ने कुछ लेखकों को, आलोचकों को, संपादकों को ‘महान’ बनाया हो मगर पाठक ? इस डार्विनियन और फ्रायड के मनोविश्लेषण ने अ-कहानी को अ-पाठक अच्छे से बनाया। कहानियों में जहां भी डंठल दिखा कि वह शिश्न का प्रतीक माना गया और जहां कहीं विवर या छिद्र कि वह स्त्री योनी! अतः कहानियां जहां देखो वहां ‘कील’ पर ‘छाते’ की तरह लटक गयी! चमगादड़ की तरह! सबकुछ उल्टा हो गया बहरहाल, पाठकों को गोबर मान लिया गया और हिन्दी लेखकों ने समझा उन्हें जर्मनी और जापान समझ लेंगे। इस टेकनीक ने एक और फैशन चलाया देवानंद वाली ज्वेल थीफ की टोपी जैसी कहानी। आदि मध्य या अंत का मेल नहीं ‘स्लाइस ऑफ लाइफ’ भी (उनके अनुसार ‘ही’) हो सकता है। माननीय पाठकों ने इनके ‘स्लाइस’ पर ना नमक छिड़का ना चीनी! (कम से कम हमारी जमीन के लिए बस्तर पाति ऐसी कथा टेकनीक को बकवास मानता है और कथा टेकनीक के लिए अपने मिथकों, लोक कथाओं की ओर दौड़ता है- जिस पर हम बार-बार यहां आपसे विमर्श करेंगे।)
इस तरह जब प्रकाशन जगत को यकीन हो गया कि यहां किताबें बिकने से रहीं, तो धीरे से स्वयं के भार वाली सोच ने प्रकाशक और लेखक के रिश्ते को ही बदल डाला! अब क्या मंजे हुए लेखक और क्या नये खिलाड़ी। या फिर साहित्य में अपना नाम ‘दर्ज’ करवाने वाले महावीर! इन महावीरों ने धीरे से छपाई वगैरह का खर्च प्रकाशकों को देकर अपने ग्रंथ प्रकाशित करवाए। इनमें ज्यादातर वे लोग थे जो पहुंच वाले थे, हिन्दी विभाग से जुड़े लोग थे- स्वघोषित् विद्वान, आलोचक! इनका वर्चस्व भी खूब था, ये किसी न किसी महत्वपूर्ण पद पर अवश्य पदासीन लोग थे। इनके चेले साहित्य जगत में अपना नाम कमा सकते थे तो वे क्यों नहीं!
प्रकाशक ने कहा वाह! ना खर्च ना झंझट! महावीर की पुस्तक छपवाओं, सौ-दो सौ महावीर के प्रताप से पुस्तक लायब्रेरी की ठंडी हवा भी खाएंगी, प्रकाशन का खर्च हासिल, पाठक पुस्तक खरीदे ना खरीदे उनका लाभ तो हो गया! बदले में बीस-पच्चीस किताबें प्राप्त कर (लेखक महोदय की ‘रायल्टी’) लेखक जी पुस्तक का ‘वितरण’ करने लगे। लेखक के प्रताप से उनके चेलों ने दस गुना अधिक मूल्य वाली हार्ड बाउंड पुस्तक खरीदी की तो इसका सीधा लाभ प्रकाशक को-बोनस! क्योंकि लेखक जी प्रकाशक महोदय से अपनी रायल्टी का जिक्र भी नहीं करना चाहते! किस मुंह से मांगे, उनकी किताब जो निकली है!
इस बदलते समीकरण ने उन ‘महत्वकांक्षी’ लेखकों की कतार बिछा दी। पाठक तो पहले से कराह रहा था, लो, अब नमक, मिर्च-प्याज का मजा अलग लो। (अर्थात् खूब आंसू बहाओ)
बहुत जल्द प्रकाशकों का यह दर्शन स्थापित हो गया अधिक से अधिक लेखकों की किताबें और काम चलाऊ (सच में बिल्कुल चलाऊ नहीं) वितरण। पहले यह कुछ और था- कम लेखकों की किताबें मगर खूब सारा वितरण।
अर्थात् पहले जहां पांच लेखकों की किताबें पांच हजार प्रकाशित और वितरित होती थी वहां अब पचास लेखक हो गये और प्रकाशक/वितरण वही पांच हजार ही मान लीजिए।
हिसाब-किताब साफ है, प्रकाशक का पॉकिट सुरक्षित है। सारे रिस्क से बे-खबर! पहले तो उसे तमाम तरह के झंझट उठाने पड़ते थे, वितरण, कलेक्शन, संपादन, प्रूफ रीडिंग, बेचना, प्रचार इत्यादि। अब वह संसार के सारे जंजाल से मुक्त है-पता नहीं किस बोधिसत्व ने उन्हें ये मंत्र दिया! ऐसा एक छलांग में बजरंगबली वाला ‘मोक्ष’ हिन्दी प्रकाशक नामक ‘जीव’ को ही नसीब हुआ। ‘बस्तर पाति’ के प्रिय पाठकों! ऐसा हमने ही किया। किसी और ने नहीं।
हिन्दी के कुछ अग्रज बड़े प्रकाशक अपने सलाना रॉयल्टी का हिसाब जरूर बताते हैं और अपना व्यापार लाखों में। मगर वे ये नहीं बताते कि अमुक लेखक की कितनी किताबें वे सालाना छापते हैं और कितना लाइब्रेरियों और गोदामों में झोंकते हैं। वास्तव में क्या इन बड़े हिन्दी प्रकाशकों के आम पाठक हैं ? अथवा इनकी पहुंच हिन्दी पट्टी के साधारण लोगों तक है ? पुस्तक प्रकाशक का अर्थ पुस्तक वितरण से होना चाहिए था, प्रकाशन जगत को नये-नये क्षेत्रों में घुसकर आर्थिक रिस्क लेकर युवा और ग्रामीणों के लिए एक पुस्तक संस्कृति जो बनानी थी। युवा वर्ग, प्रौढ़ और वृद्धों-बच्चों, महिला केन्द्रित पुस्तकें आनी थी वह हमने नहीं किया! आज प्रकाशन का बहुत ही सीमित अर्थ रह गया है- रंगीन कवर पेज के साथ स्टेपल की हुई जेरोक्स प्रति! हम अपनों को यही बांट रहे हैं- अपने मित्रों को, रिश्तेदारों को। हां, वहां किसी दिल्ली या मेरठ के प्रकाशक का नाम छपा जरूर मिलेगा।
दोस्तों! कहां पाठक, कहां लेखक!
लोकल बनाम ग्लोबल
इस ग्लोबलाइजेशन के जमाने में हम अपने ‘लोक’ के साथ चिपके हैं। दुनिया सिमट गयी है। संस्कृतियां एक-दूसरे में मिलघुल रही हैं। भाषा, संस्कृति का प्रवाह पहले से कहीं द्रुत अब हो रहा है। क्या ऐसे में इस ‘ग्लोबल विलेज’ में ‘लोकल गांवा’े की बात जायज है ?
बात साहित्य से पाठकों की दूरी पर ही केंद्रित है। हमारी चिंता उन दूर हुए पाठकों को समीप लाने की है। अतः पाठक बिन कारण, किन परिस्थितियों की चलते साहित्य से (हिन्दी) दूर हुआ-इसका विश्ष्लेषण तो जरूरी है ही, किन कारणों से अथवा अब कैसी परिस्थितियां निर्मित हां कि पाठक हिन्दी साहित्य से जुड़े, ये समस्या, या ऐसी समस्याएं अल्पकालीन नहीं होती, इनसे लगातार लेखक, विद्वानों,़ प्रकाशकों को मुठभेड़ करनी पड़ती हैं क्योंकि संस्कृति का प्रवाह एकरैखिक नहीं, भाषा या संस्कृति कोई स्थायी तत्व नहीं हैं। वे स्थिर दिखते हैं, मगर इनमें भीतरी उथल-पुथल एक सतत् प्रक्रिया है। हमने अपनी आंख बंद की कबूतर की तरह कि अंधेरा हो गया और बिल्ली हम पर नहीं झपटेगी- ऐसा ख्याल आत्मघाती है।
ऊपर का सवाल जायज दिखता है। इतिहास में संस्कृतियों का, भाषा का समागम हुआ है और बदलाव भी। आज जर्मनी या लैटिन अमेरिकन साहित्यिक आंदोलन से हम अपने को किस तरह सुरक्षित रख सकते हैं? खासकर माने हुए विद्वान !
यहां विरोध बाहर की अच्छी बातों के प्रवेश को लेकर नहीं है – कि हमने अपने फाटक और खिड़की बंद कर लिये। मगर हॉ, बिना विचारे अपनी सारी दिवारें गिरा दी- अपना अस्तित्व ही ‘लुटा दिया’- विरोध इस बात का है। विरोध विचारों का नहीं विरोध अंधाधुंध विचारों के स्वीकार्य से है। हॉ, हमने नयी कहानी, उपन्यास, लम्बी कहानी, उसी तरह कला के क्षेत्र में बहुत सी चीजें बाहर से ली हैं। आर0डी0बर्मन ने अफ्रीकी देशों से खूब सारे वाद्य और धुनें अपने यहां प्रयोग में लाई थी।
सवाल ये नहीं कि हम किसी मे प्रेरित हो या नहीं सवाल ये है कि प्रेरणा का प्रयोग कितना और क्यों हो, किसके लिये हो, क्या पाठक से दूरी बनाने के लिए ? अंतर्राष्ट्रीय मापकों पर खरे उतरने के चक्कर में अपनी जमीन भूल जाना। वह भी तब, जब हमारे यहां की एक लम्बी परम्परा और सम्पन्न विरासत पहले से मौजूद है। क्या हमने उनका सम्मान किया ? हमने उनकी ओर दृष्टि डाली है ? क्या ग्लोबल कला विरासत, साहित्य या संगीत या नृत्य हमारे लिए किशोर कुमार या लता मंगेशकर का विकल्प दे सकते है ? कोई आस्कर क्या हमारे लिए मदन मोहन या शंकर जयकिशन पैदा कर सकता है? हमारी साहित्यिक धरोहर ‘रामायण’ या ‘महाभारत’ और अंतहीन किस्से कहानियों से भरी लोककथाएं, मिथक कथाएं किसी भी पूरब या पश्चिम से आयातित विचार से हमारा विकल्प बन सकती हैं ? चाहे हम हिप-हॉप, लॉकिंग-पॉपिंग, फूटिंग जैसे सर्कसनुमा डांस फार्म पर तालियां पीटें-इससे हमारे यहां के शास्त्रीय नृत्य महत्वहीन नहीं हो जाएंगे।
तकलीफ चीजों के अपनाए जाने से नहीं, तकलीफ चीजों के अपनाए जाने के तरीके से है। और यह सिलसिला रूकता प्रतीत नहीं होता। फिलहाल, इस ग्लोबल और सिकुड़ती दुनिया में ‘हम’ तभी तक हैं जब हम ‘लोकल’ हैं। स्थानीयता से सराबोर! यही हमारा अस्तित्व है। यह अस्तित्व हमारे ‘स्व’ से, हमारे स्वाभिमान से जुड़ा है। हमारी लम्बी सांस्कृतिक विरासत है-कला, साहित्य, संगीत- हर क्षेत्र में! अनचाहे भी हम इनसे दूर नहीं जा सकते मगर जितनी तेजी से हम आगे बढ़ रहे हैं- हमारी परंपराएं हमसे छूटती जा रही हैं। बहुत सारी अच्छी चीजों से दूर—!
क्या आप अब भी सोच रहे हैं कि आपको ठहरना चाहिए या नहीं ?
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