संयुक्त परिवार : एकल परिवार
आज का समय ज्ञान उलिचने का है. पर उपदेश कुशल बहुतेरे. इस ज्ञानार्पण में थूक उड़ाना ही होता है. इस थूक उड़ाऊ धंधे में प्रत्येक ज्ञान बांटने वाला, उस ज्ञान के व्यवहारिक उपयोग से खुद ही अछूता रहता है. चूंकि आज की सोच ही बन गई है कि किसी भी बीमारी के ऊपरी लक्षण का इलाज करो और दौड़ते रहो. तह में जाकर मूल समस्या की विवेचना करना मूर्खता का पर्याय बन गया है. जो डॉक्टर बीमारियों का इतिहास पूछता है तो हम ही सोचते हैं, डॉक्टर पागल है क्या ?
भारतीय समाज के वर्तमान दुखों का कारण हमारा; हमारी जीवन शैली को त्याग कर पाश्चात्य शैली को अपनाना है. यह भी ठीक है यदि पूर्ण रूप से पाश्चात्य जीवन शैली को अपना लिया जाये और भारतीय जीवन शैली को त्याग दिया जाये. आज हम इस समय को संक्रमणकाल का नाम दे रहे हैं जबकि रमणकाल बना हुआ है. इस काल में दोनों जीवन शैलियों को अपने आनंद के लिए ही उपयोग में लाया जा रहा है बगैर गुण दोषों की जांॅंच किये.
किसी भी जीवन शैली का विकसित होना स्थान विशेष की जलवायु, पर्यावरण और वहांॅं उपलब्ध संसाधनों से प्रभावित होता है. ये कारक वहां के व्यक्तियों की दिनचर्या से लेकर भोजन-पानी तक को सुनिश्चित करते हैं. इस जीवन शैली में परिवार के प्रति कर्तव्य बोध बना रहता है. समय के साथ-साथ यह जीवनचर्या विकसित होती हुई संस्कृति में बदल जाती है. यानि संस्कृति उस स्थान के इतिहास का वर्तमान होती है. आज जिसे हम पाश्चात्य संस्कृति कहते हैं वह पश्चिम की औपनिवेशिक विस्तारवाद के कारण विकृत स्वरूप पाई हुई संस्कृति है. विदेशों में जाकर गुलाम बनाने के लिए अपनाये हथकंडों ने स्वच्छंदता, अतिरंजित सेक्स और परिवार के प्रति गैर जिम्मेदार व्यवहार ही विकसित किया. धीरे-धीरे यह उपाय बनकर अपनी घटिया सोच को फैलाने का जरिया बना, जिसके फलस्वरूप किसी भी देश की संस्कृति को समूल नष्ट कर गैर जिम्मेदार और स्वार्थी समाज अपने फायदे के लिए बनाया गया.
संस्कृति के इस विनाश के चलते परिवार को तोड़ने की कोशिश शुरू की गई थी. यानि मनुष्य की सामाजिकता को तोड़ा गया. उसे अकेला बनकर खुश होने, रहने की ट्रेनिंग दी जा रही है. जबकि यह मानव के प्राकृतिक स्वाभाव के विरूद्व है; इसलिए हमारे देश के लोग रह-रहकर पुराने संस्कारों की ओर देखते हैं. वे जब परेशान होते हैं तो उन्हें अपनी सभी समस्याओं का हल अपनी संस्कृति में ही नजर आता है.
गुलाम मानसिकता बढ़ाने में नौकरी की महती भूमिका रही है. नौकरी के चलते लोग अपनी जीवन शैली का त्याग करने लगते हैं, कुछ मजबूरियों के चलते तो कुछ वहॉं का अंधानुकरण करके. कल्पना करें, यदि देश के समस्त खेतों पर पूंजीपतियों का कब्जा हो जाये और खुदरा बाजार पूरा का पूरा पूंजीपतियों के अधीन हो जाये तो क्या होगा ? देश का हर आदमी नौकर हो जायेगा. किसान की परिभाषा बदल जायेगी. वह फलानी कंपनी का एग्रीकल्चर टेक्नीशियन बन जायेगा और दुकानदार बन जायेगा सेल्स एक्जीक्यूटीव. आदि-आदि. इस स्थिति में लोग अपने पुरातन संस्कार/संस्कृति जीवित रख पायेंगे ?
चलिए दूसरे शब्दों में समझने की कोशिश करें. खेत का मालिक किसान अपनी खेती से जुड़े तीज-त्यौहार साल भर मनाता है, जब वह नौकरी करने लगेगा तो स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती मनायेगा. इन त्योहारों की भावना अच्छी है पर ये त्यौहार निबटाये जाते हैं, मनाये नहीं जाते. किसान को खेत की भूमि पर कदम रखने पर वह आनंद महसूस होगा जो आज उसे होता है ? क्या वह नौकरी करते हुये गाय का दूध निकालते वक्त, गाय को मां के समान मानेगा ? (गाय को मां मानना धर्म के अलावा व्यवहार भी है. उसका दूध हम सब पीते हैं इस दृष्टि से मां ही होती है) जो दुकानदार आज व्यापार के चलते दीपावली, नवाखाई जैसे त्यौहार मनाता है, नौकरी करता हुआ इन भावनाओं को महसूस कर पायेगा ?
हमारे देश की संस्कृति को तोड़ने का प्रयास न जाने कितने दुष्परिणाम ला रहा है. कुछ तो सीधे-सीधे दिखाई पड़ते हैं और कुछ दिखाई ही नहीं पड़ते हैं पर गहरे घाव पैदा कर रहे हैं. आधुनिकीकरण ने उंगलियों में गिन सकने वाले लाभ देने के बाद मात्र नुकसान ही किया है. छुआछूत मुक्ति, स्त्री शिक्षा आदि सुखद परिणाम देने के बाद उसने हमे जड़ से ही उखाड़ फेंका है. पहले गांवों को तोड़ा, समुदाय को तोड़ा, संयुक्त परिवार को तोड़ा और अब पति-पत्नी और बच्चों को भी अलगाया जा रहा है. इसके दुष्परिणाम दिख रहे हैं. हम ही झेल रहे हैं फिर भी अनदेखा कर रहे हैं. कुछ ही लोग मजबूर हैं. लगभग पूरे के पूरे जान समझकर ऐसा कर रहे हैं. एक साथ रहना हमने सीखा ही नहीं तो सहिष्णु बनें कैसे ? परिवार की पाठशाला का ढांचा ही टूट चुका है जिसके माध्यम से मनुष्य बनाये जाते थे और संवेदनायें भरी जाती थीं. परिवार के बीच बीता हर पल एक संस्कार बन जेहन में टंकित हो जाता था. जिसमें चिड़ियों की पहचान, रंगों की पहचान, फूलों के नाम, पेड़ पौधों की पहचान, कीट पतंगों की पहचान, संबंधों की जानकारी और आपसी व्यवहार की रूपरेखा यूं ही समझ आ जाती थी जिसे आजकल स्कूलों में पढ़ाया जाता है, बच्चों को ज्ञानी बनाने के नाम पर.
पति-पत्नि और एक ही बच्चा फिर भी तीनों आपस में एक घंटे, दो घंटे ही मिलते हैं. बच्चा- आया, नौकर, दोस्तों ट्यूशन
के भरोसे जीवन के संस्कारों की रूपरेखा बनाता चलता है. यूं लिखी संस्कारों की किताब के सहारे वह अपना जीवन जीता है. उसके ऐसे बचपन से अपने बूढ़े मां-बाप के प्रति संवेदनायें पनप पायेंगी ? क्या वह भी अपने बूढ़े मां-बाप के लिए पैसे खर्च करके वृद्वाश्रम में यही व्यवस्था नहीं करेगा!
गांवों में अब भी कुछ-कुछ संयुक्त परिवार हैं और खुशहाल हैं. रोग-बीमारी, मुसीबत की दशा में बच निकलते हैं. सभी का मिला जुला प्रयास उन्हें जीवंत बनाता है. वे जीवन के मजे लेते हुये जीते हैं न कि मशीन बने हुये. उनके बीच गीत-संगीत, नृत्य, मेल-मिलाप सभी कुछ तो है. आधुनिक जीवन शैली का पर्याय इस वक्त खूब पैसा कमाना, खूब सारी बेमतलब की चीजें जरूरी समझकर खरीदना और यौन मुक्ति की चाह रखना. लोगों के बीच घूमते रहने पर तो यही महसूस होता है कि वे पैसा इसलिए ही कमा रहे हैं कि अच्छी लड़की फांस लें या किसी दूसरी महिला को आकर्षित कर अपना बनाने का प्रयास करें. दुनिया पैसे और विपरितलिंगी को पाने के प्रयास के बीच ही सिमट गयी है.
भीड़ के बीच भी अकेलापन सदा ही हावी रहता है क्यों ? क्योंकि हमने संस्कार ही वैसे पाये हैं. साथ रहना जानते नहीं, साथ रह पाते नहीं और अकेलेपन में कुढ़ते डरते हैं. एक समय था जब लोग अपने शहर से बाहर कहीं घूमने जाते थे तो वहां अपने शहर का आदमी मिलते ही एक विशेष संबंध बना लेते थे और आज! आज तो पहचानते ही नहीं, पहचान ढूंढ़ने की कवायद ही बेकार की बात है. खुदा न खास्ता पहचान मिल भी गयी तो छिपते हैं. कहीं वह मिल गया तो खायेगा. यूं आत्मसंतुष्ट होने की प्रवृत्ति धीरे-धीरे अवसाद में बदल जाती है. चिड़चिड़ापन, अनजाना भय निरंतर हावी रहता है. सामाजिक, सामुदायिक और पारिवारिक टूटन ने अपनों का भय खत्म करके निरंकुश बना दिया है. जब किसी को किसी से मतलब ही नहीं है तो वह क्यों लिहाज करे. एक समय था जब टाकिज में फिल्म देखने जाते थे तो घुप्प अंधेरे में भी अड़ोसी-पड़ोसी मोहल्ले वालों, रिश्तेदारों और शिक्षकों के मिल जाने का भय होता था. और आज! आज तो घर में ही टीवी पर चूमाचाटी मां-बाप, बेटा-बेटी साथ में देख लेते हैं. लोग करें तो क्या करें, जायें तो कहां जायें, गिनकर तीन से पांच प्राणी घर में.
आधुनिकता का मदमस्त हाथी भारतीय सामाजिक ढ़ांचा बेरहमी से रौंदता हुआ चल रहा है. उस हाथी को पालने वाले जरा भी कंट्रोल नहीं करना चाहते हैं बल्कि उसके रौंदने से होने वाले सामाजिक नुकसान से फायदा उठा रहे हैं. उकसा रहे हैं कि हाथी और उत्तेजित हो. शिक्षा के नाम पर परिवार से समाज से लोग कट गये हैं. सुबह से रात तक शिक्षा, शिक्षा और शिक्षा. शिक्षा अन्य मानवीय संस्कारों की तरह जीवन यापन में सहायक है न कि वह ही सबकुछ है. सुबह छै बजे से सोकर उठने नाश्ता बनाने से लेकर स्कूल भेजने तक, फिर दोपहर को स्कूल से आने के बाद ट्यूशन पढ़ाने तक, होमवर्क कराने तक शिक्षा का ही चिन्तन चलता रहता है. इस शिक्षा में दादा-दादी, नाना-नानी में से किसी एक के लिए भी जगह नहीं है. कैसा पारिस्थितिक तंत्र विकसित किया जा रहा है ? क्या घर के बुजुर्ग अपने बच्चों को नैतिक शिक्षा नहीं देते हैं ?क्या वे बच्चों को कहानियों, कविताओं के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान, व्यवहार नहीं सिखाते हैं ? बच्चों को यदि कोई संवेदनशील बनाता है तो वह है घर का बुजुर्ग. जिसके साथ रहकर बच्चा सुख-दुख, बीमारी आदि समझता है. जीवन की सच्चाई का सामना घर के बुजुर्गोंं से ही होता है. घर के बुजुर्ग ही होते हैं जो मां-बाप की व्यस्तता में बच्चों पर नियंत्रण कर समाज को नियंत्रित करते हैं. उनकी रोक-टोक, बच्चों पर नजर, बच्चों को संस्कारित करने के साथ ही साथ उनकी उपयोगिता भी बनाये रखती है.प्रकृति में उगे पेड़ की, फल दे चुकने के बाद भी अपनी छांव, पत्तों, लकड़ियों और औषधीय गुणों से उसकी उपस्थिति पारिस्थितिक तंत्र में बनी रहती है तो फिर क्या घर के बुजुर्गों की उपस्थिति वृद्वाश्रम, अस्पताल की नर्सों-डाक्टरों, घर के कोनों, गंधाते कमरों, अकेलेपन की उपयोगिता सिद्व करने के लिए ही होती है ?
संयुक्त परिवार के अन्य सदस्य चाचा-चाची, बुआ, कज़िन की उपयोगिता न के बराबर है ? ये सभी परिवार बनकर साथ रहते थे भले ही झगड़े होते थे पर काम तो वही आते थे. क्या इस संयुक्त परिवार की ताकत टूट जाने के बाद मनुष्य एकदम अकेला नहीं हो गया है ? समाज में व्याप्त भ्रस्टाचार से लेकर अन्य बुराईयों में इस अकेलेपन ने सहयोग नहीं किया है? ‘मै अकेला क्या कर सकता हूं’ या ‘अकेले को तो सभी डराते हैं’ या फिर ‘मिलकर कुछ करने से बात बनती’ या ‘फलाना व्यक्ति देखता रहा पर बचाने नहीं आया’ आदि जुमले लोगों की जुबान में क्यों आते हैं ?
बस्तर पाति के प्रवेशांक ने अपेक्षा के विपरीत जबरदस्त प्रतिसाद दिया. जिनके पास पत्रिका पंहुची उन्होंने इसका बारीकी से अध्ययन किया और अपनत्व के साथ अपने कुछ सुझाव भी प्रेषित किये. सभी आदरणीय जनों के सुझाव सर आंखों पर. सभी सुझावों पर शीघ्र ही ध्यानपूर्वक यथासंभव व्यवहार में लाने का प्रयत्न रहेगा.
समस्त सुझावों को रेखांकित न करते हुए मैं एक बात कहना चाहूंगा कि हम सब पत्रिकाओं के वर्तमान प्रचलित स्वरूप को देखते हुए उसे ही पत्रिका प्रकाशन की गाइडलाइन मान बैठते हैं जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. प्रयोगधर्मिता का बने रहना ही प्रगतिशीलता का सूचक है. ध्यान से देखने पर पाते हैं कि कुछ पत्रिकायें जरा-जरा सा परिवर्तन करती रहती हैं अपनी पत्रिका की विशेष पहचान बनाये रखने के लिए. हमारा भी यही प्रयास है. बस्तर क्षेत्र से पत्रिका निकालना भी स्वयं में एक प्रयोग है. चूंकि बस्तर पिछड़ा क्षेत्र है, त्रुटिहीन टाइपिंग कार्य करने वाले की घोर कमी है और फिर सीमित साधन में पत्रिका प्रकाशित करना है. क्षेत्रीय रचनाकारों को ढूंढ़ना ही अपने आप में एक काम है. साहित्यिक पत्रिका मार्केट भी बहुत छोटा सा है. कुछ साहित्यकार होते हैं जो पत्रिका खरीदकर ही पढ़ते हैं वरना एक छुटभैय्या साहित्यकार जो साहित्य की गली में कदम रखा है वह भी अपने को विद्वान मानता है और खरीदकर पढ़ना अपनी तौहीन. ऐसी दशा में आर्थिक समझौते करने होते हैं. कुछ का इस पर भी कहना था कि ऐसी दशा है तो पत्रिका निकालने की जरूरत भी क्या है, वैसे भी देश भर में अनेक पत्रिकायें प्रकाशित हो रहीं हैं. आप क्यों बेमतलब परेशान हो रहे हो. पर क्या अनेक राज्यों से बड़े बस्तर संभाग के साहित्यकारों, साहित्यप्रेमियों की आवाज लगातार देश के अन्य हिस्सों में नहीं पंहुचनी चाहिए ? क्या सुविधाओं के अभाव में प्रयास नहीं करने चाहिए ? क्या आलोचनाओं से घबराकर चुप बैठ जाना चाहिए ? क्या पहले ही अंक से श्रेष्ठ रचनायें प्राप्त हो जाती हैं ? क्या एक ही दिन में लोग पत्रिका का उद्देश्य समझ जायेगें ? क्या नामी-गिरामी साहित्यकारों को छापना ही पत्रिका प्रकाशन है ?क्या नये लोगों को छापना स्तरहीनता है ? क्या नास्टेलिया, अति उत्तर आधुनिकता आदि जैसे मायावी शब्दों से खेलना ही साहित्यकर्म है ? क्या होता है साहित्य का उद्देश्य-वैचारिक संप्रेषण या व्याकरण दोष से रहित, साज-सज्जा से युक्त सामग्री ? पत्रिका का उद्देश्य ही है कि नये लोगों को मौका मिले. अंत में आप से अनुरोध है कि पंचवर्षीय सदस्य बनकर आप भी एक सार्थक कार्य में सहयोगी बनें.
नसीहतें हजार मिलीं, दिल से लगाया उन्हें/देने वाले जो दिल के करीब थे.
गुरबतें हजार मिलीं, धुंआ सा फैलाया जिसने/देने वाले जो दिल से गरीब थे.