परिक्रमा
अप्रैल का महीना मगर हाल बेहाल था. गर्मी का हाल अभी से ऐसा है तो न जाने आगे क्या हो! उसपर बिजली संकट! देश में कोयले की कमी पड़ गयी है, बिजली इकाइयों के पास बामुश्किल हफ्ते भर के लिए ही स्टॉक रखे हैं. बिजली कटौती अभी से चालू. सीमा आंटी तो जब देखो बाप-बाप किये रहती है. सब कुछ बर्दास्त हो जायेगा मगर गर्मी नहीं. दिनभर पंखा झलते रहती है. मगर जिन्हे पंखा, कूलर और ऐ. सी. की आदत हो, वह तो ज़िंदा पकेगा. बल्कि तल जायेगा, जैसे मछली फ्राई करते हैं.
हम बच्चे उन्हें खूब तंग करते. हँसते. ठहाका लगाते, वे जितना बेचैन होतीं और बिजलीवालों को गारियाती, हमारा मनोरंजन उतना ही होता. सच तो ये था कि हम सब भी कहीं न कहीं से परेशान ही थे. छत पे जा नहीं सकते थे, तेज़ धूप . भीतर उमस और ताप! बस, सामने बरामदे और उससे लगे छोटे से लॉन में हम कुछ तसल्ली पाते. सीमा ऑन्टी ने कुछ पेड़ पौधे लगा रखे थे, कुछ गमले में फूल -पत्तियां खिलें थे . वे नियमित उनकी देख-रेख करती. इनमे से एक जो फर्श को छोड़कर पौधा लगाया गया था, कुछ बड़ा व घना सा था. पता नहीं इस पेड़ का नाम क्या था, मगर हरी पत्तियां झुण्ड के झुण्ड लगीं थी. सफ़ेद फूल भी. रोज़ खिलते और रोज़ ही मुरझा कर झड़ जाते. फर्श के किनारे – किनारे पान के पत्ते, तुलसी का एक गमला, कुछ फूलवाले पौधे लगे थे. कह सकते हैं कि चारो तरफ सीमेंट और कंक्रीट की दुनियां के बीच ये छोटे से स्पेस, हरे-भरे, जीवन और सुकून देनेवाले!
सीमा ऑन्टी यहीं फर्श पे एक मिटटी के पात्र में पक्षियों के लिए पानी रखा करती थी. और हाँ, उनके भोजन का भी इंतजाम था – चावल के दाने! झुण्ड के झुण्ड गौरैये आते, दाना चुगते, कोई पानी पीता और फिर फुर्र! वो हरा- भरा बृक्ष उनका ठौर हुवा करता. जब कभी चावल के दाने उन्हें नहीं मिलते, वे चें-चें कर शोर करते. अपनी भाषा में ज़रूर ये कहते- चाची जान! आज क्यों भूल गयी! हम भी तो तुम्हारे बच्चे हैं.
हाँ, सीमा ऑन्टी के लिए उनके पौधे, वे पक्षियों का झुण्ड, सभी उनकी संतान जैसे थे.
बिजली कटौती की वे चार घंटे! वह भी तब, जब कूलर पंखे की शख्त ज़रूरत होती- दोपहरिया से लेकर शाम पांच बजे तक! तब घर में होने का मतलब था बिना तेल- चूल्हे क़े पापड़ जैसा फ्राई होना! हम सभी बच्चे सीमा ऑन्टी क़े साथ यहीं बाहर क़े फर्श पर, छोटे-बड़े पौधों क़े बीच अपना वक़्त गुजारते. हम चटाई फैला देतें, ऊपर एक चादर, तकिया, कुशन, गद्दे, जिसे जो अच्छा लगता, अपने साथ हो लेता.
मन्नू तो मुग़ल बादशाहों की तरह मसनद पे टिक जाता, पैर शाही अंदाज़ में फैलाये हुए और एक हाथ नाक क़े अंदर! न जाने उसके नाक क़े छिद्रों में कौन सा खज़ाना दबा था, वहां निराइ , गुड़ाई, खुदाई की क्रिया जारी रहती. श्रुति हम सब में सबसे छोटी थी, बस वो तो एक जगह बैठने वाली थी नहीं, हम सब की किसी उपग्रह की तरह परिक्रमा करती. उसके मूड का कोई ठिकाना न था, कभी नाचती, कभी उछलती, कभी कूदती. बस, वह बैठना और स्थिर रहना नहीं जानती थी! चूँकि वह हम सब में सबसे छोटी थी, सब उसी को आर्डर देते. श्रुति बहन एक गिलास ठंडा पानी, बहन मेरे को निम्बू पानी, थोड़ा शक्कर घुला कर! मन्नू तो शाही आदेश फरमाता-
“और मेरे कूं, बोले तो, वही, पार्ले जी बिस्किट्स क़े साथ, पीली शरबत, शरबत-ए –आज़म! समझा क्या..!”
श्रुति सबका आर्डर लेती, उछलते हुए, अरे हाँ बाबा! सुन ली. अभी ले आई. मगर उसका ‘अभी’ कभी नहीं आता. हाँ, वह आर्डर पे आर्डर लिए जाती. रिमाइंडर! आर्डर पर अमल करना उसे नहीं आता था. अंत में सीमा ऑन्टी उठती और सबके लिए कुछ न कुछ बड़ा ही शानदार चीज ले आती. ठंडा पानी, शरबत, देशी मिठाइयां, बिस्किटें, मीठा-नमकीन, और भी जायकेदार चीजें. हम सब वाउ करते. और अपनी पसंद की चीजों को छोड़ दूसरे-तीसरे चीजों पर टूट पड़ते.
गर्मी की छुट्टी लग गयी थी. हम सभी रिश्तेदार और कुछ पड़ोस के बच्चे जिनमे एक का नाम भूत था, वह भी हमारी मंडली में शरीक रहता. हमने पता लगाया, उसे भूत क्यों पुकारते थे, तो पता नहीं, किसने ये नाम उसे दिया, मगर सटीक नाम था. वह हम सब के बीच रहकर भी नहीं रहता. चुपचाप! चुपचाप बैठा रहता. चुपचाप खाता- पीता. चुपचाप सुनता. वो सब कुछ करता जो हमारी मंडली करती. वह सिर्फ हमें अनुसरन करता. भूत के अलावे उसकी बहन जो उससे छोटी थी, टुइयां थी. टुइंयाँ अपने भाई भूत से एकदम जुदा थी. वह हर बात में सवाल पूछती. हर चीज में अपनी राय देती. अपनी टांग घुसेड़ती. ये नहीं वो था. ऐसा नहीं वैसा था. ये गलत है, सच कुछ और है. यानी, हर बात को अपनी ओर घूमाने का प्रयास करती. नतीजा, जहाँ उसके भाई को हम भूत पुकारते, उसे हमने पिशाचीन नाम से नवाजा. जो भी हो, गर्मियों की छुट्टी में हम खूब मज़ा करते. खाने-पीने के अलावे उसी छोटे से फर्श की चटाई पे अनेकों खेल खेलते. सीमा ऑन्टी भी हमारे साथ होती.
गुल बिजली ने तो अब बाध्य ही कर दिया था कि यहीं खुली हवा में कुछ ठौर मिले.
एक बार हमने कुछ नया करने की सोची. पिशाचीन यानी टुइयां कहाँ पीछे रहनेवाली थी, तपाक से बोली- हाँ, इस बार हम कहानी सुनेंगे.
कहानी!? हम सब की आँखें चमक गयी. पर, हमें कहानी कौन सुनाएगा. हमारे पास तो एकाध टूटी-फूटी कहानी थी.
सीमा ऑन्टी! – आश्चर्य इस बार भूत ने कहा. अरे वाह! सीमा ऑन्टी तो हम सबके बीच जायका परोसने, मीठे शरबत के लिए जानी जाती थी. वो हमें कहानी सुनाएंगी?
हम सबने सीमा ऑन्टी की ओर प्रश्न भरी दृष्टि से देखा. सीमा ऑन्टी ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में फ़रमाया- भक्क! चल जा…!
सबने ठहाका लगाया. वो आज पकड़ी गयी. हम जिद करने लगे- नहीं ऑन्टी, शरबत और नाश्ता आज मेरी तरफ से, कहानी तो आपको ही सुनानी है.
हाँ हाँ.., बिलकुल सीमा ऑन्टी..!
चारो ओर से एक ही मांग. कहानी तो हम सुनकर रहेंगे. अचानक सीमा ऑन्टी उठीं ओर अंदर चली गयीं. हम सोच रहे थे- बंदी चालु है, अपने कंधे पर हाथ भी नहीं रखने दिया. भाग गयी.
पर, वो जल्द ही वापस आयीं. उनके साथ वो सब था, जो हमारे जायके में फिट बैठता था. चना, मुर्रा, मुर्रे की लाइ. नमकीन-समकिन और सादे व रंग-बिरंगे ठन्डे-ठन्डे पानी और शरबत. हम सब उछल पड़े! मगर ज़िद पकड़ ली. सीमा ऑन्टी हम आपके छलावे में नहीं आनेवाले. पहले कहानी फिर शरबत.
“चुप रे… पियो… मारूंगी नहीं तो…!”
“मारना, मगर, पहले कहानी…. ”
“चल, ये मेरी बनाई हुई है, इसे खा…”- वे निमकी प्लेट हमारी ओर बढ़ाते हुवे कहा ओर स्वयं भी मुंह चलाने लगी.
“किसकी कहानी सुनाऊँ..?” सीमा ऑन्टी की इस बात ने हमें हैरान कर दिया.
हुर्रे…! – हम जोर से चिल्लाये. श्रुति जो पहले से ही कूद रही थी, अब कूदने-फांदने, चिल्लाने- गाने में मगन हो गयी.
“हमारे पास तो कोई कहानी नहीं…”- सीमा ऑन्टी की इस बात ने हमारे उबलते उत्साह पे पानी डाल दिया. पर हम कहाँ हार मानाने वाले थे. कहने लगे- ” सबके पास कहानी होती है, बस जो है, वही सुनना है..”
“कानी…कानी…कानी…”- श्रुति चिल्लाई. सब हंसने लगे.
“कानी नहीं, कहानी..”- श्रीमान भूत ने अपना मुंह खोला. इसी तरह वे हफ्ता- दस दिनों में अपना मुंह खोल दिया करते थे.
सीमा ऑन्टी कुछ सोच में पड़ गयीं. शायद कहानी सोच रही हो. कौन सी कहानी सुनाएँ. साथ में अपना मुंह भी चलाये जा रही थी. वो समझ गयी थीं कि वो फंसी. हम उन्हें छोड़नेवाले थे नहीं. सीमा ऑन्टी की गंभीरता ने हमें भी गंभीर बना दिया. हम शांत हो गए. हम सबकी नज़र उन्हीं की ओर थी. हमारे मुंह लगभग बंद हो चले थे. भूत और पिशाचीन दोनों भाई-बहन आराम से शिप कर- कर के शरबत पी रहे थे. हमने तो अपनी एक ही सांस में ख़त्म कर दी थी, मुझे जल्दी जो थी. कहीं मौका लेकर सीमा ऑन्टी फुर्र न हो जाये.
ऑन्टी ने अपना पोस्चर सीधा किया. मसनद के सहारे आधा लेट गयी. हम पालथी मारे बैठे थे. घने पत्तों के पीछे गौरये चहचहा रहे थे. शायद उन्हें भी हमारी कहानी में दिलचस्पी आ रही थी. एक-आध चिड़ियाँ आते, दाना चुगते और शाखों पर जा बैठते.
भरी दुपहरिया थी. सड़कें मानो पिघलती थीं. आकाश में एक बादल का टुकड़ा तक नहीं. उमस अलग जान ले रही थी. मर्द तो अंडरवियर में ही बाहर निकल पड़ते, मगर हम लड़कियां और औरतें पूरे बदन कपड़े पहने होते. काश! हम भी चड्डी-छाप बन जाते!
बार- बार हाथों से पंखा झलने पर भी माथे से पसीना टपक ही पड़ता. आखिर सीमा ऑन्टी अपने दुप्पट्टे से गर्दन पोंछते हुए अपना मुंह खोला- ” मै तुम सब को आज रज्जो की कथा सुनाऊँगी.”
“रज्जो की?! ये रज्जो कौन है!” – जाहीर सी बात थी, इतनी जल्दबाजी सिर्फ पिशाचिन उर्फ़ टुइंयाँ ही कर सकती थी. मैंने उसे डांटते हुए चेताया, खबरदार! अपनी ज़बान बंद रखो, या फिर तुम ही कोई कहानी सुनाओ.
मेरी बात का उसपर कुछ असर हुआ. अपनी हथेली उसने मुंह पे रख ली.
“चलो, हम रज्जो के घर चलते हैं…”– सीमा ऑन्टी की इस बात ने हम सबको चौंका दिया. हमें तो कहानी चाहिए थी, मज़ेदार कहानी. ये रज्जो के घर जाना- आना, इसका क्या मतलब! सीमा ऑन्टी ने हमारे चेहरे को पढ़ लिया और शंका का समाधान करते हुए कहा- अरे बाबा! उसके घर पैदल या घोड़ा गाड़ी से नहीं जाना, मेरे शब्दों के सहारे चलो और अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाओ. समझे…!
ओह! सीमा ऑन्टी! आप तो कहानी शुरू होने के पहले ही हमें लाल बुझक्कड़ के जाले में फेंक रही हैं. तौबा…!
और फिर, सीमा ऑन्टी अपने शब्दों की दुनियां बनाने लगीं और हम अपनी-अपनी कल्पना लोक में उस कहानी, उन घटनाओं को देखने लगे.
दो कमरा, छोटा सा बरामदा और किचन, बाथरूम, अटल आवास, अटल नगर में रज्जो अपने पति लटमल के साथ रहती थी. लटमल पत्थर तराशने वाले छोटे से फैक्ट्री में कारीगर था. कहते हैं, उसके जैसा कारीगर शहर भर में नहीं था. कोई भी उसके हाथों के काम को देखता तो यही कहता – ये काम लटमल कारीगर के हैं. फैक्ट्री का मालिक उसे मास्टर कह कर पुकारता. वह कारीगर कम, कलाकार अधिक था.
रज्जो अपने घर से ठीक -ठाक थी. हालांकि उसका एकमात्र भाई कानून की पढाई कर रहा था. ज़हीन था, जल्दी परीक्षा पास की और अदालत में मोहर्रिर के पद पर आसीन हो गया. रज्जो के पिता पुराने ख़याल के थे, पैसा न सही, गुण और आचरण को तवज्जो देतें. सब तरह से ठोंक बजाकर लटमल उन्हें जंच गया. बेटी की रजामंदी ली और विवाह कर दिया. पता नहीं ऐसी क्या बात हुई कि शादी के कुछ दिन बाद ही लटमल पीने लगा. पहले हफ्ता-हफ्ता , फिर हफ्ते में दो-चार और फिर तो रोज़. और, एक दिन ऐसा भी आया जब लटमल चौबीसों घंटे टुन्न और सुन्न रहने लगा. उसके दोस्तों ने और फैक्ट्री के मालिक तक ने इस बात में दिलचस्पी ली कि वह पहले जैसा हो जाए. बुरी लत छूट जाए. पता नहीं ऐसी कौन सी बात थी, उसने स्वयं को बर्बाद ही कर डाला. कभी देर रात घर लौटता, कभी रात भर गायब! रज्जो ने तो सोचा भी नहीं था कि उसे ऐसे दिन भी देखने को मिलेंगे. रूप-लावण्य से भरपूर, रज्जो का पति जितना बिगड़ता जाता, वह उतना ही सज-धज कर रहती. शायद उस शराबी पति को लुभाने वास्ते! तरह-तरह के कपड़े पहनती, कलाइयों की चूड़ियाँ रंग-बिरंगी होतीं. माथे को फूलों से सजाती. हर तरह के वेणी तैयार करती. लाल ओठ और काले नयन, माथे पे बिंदी लिए उस चातक की तरह प्रतीक्षारत रहती कि एक दिन वह उसकी गोद में लौट आएगा. वह शायद स्वयं को ही दोषी मानती, क्या कमी रह गयी उसमे! उसके पसंद का खाना तैयार करती, मगर भाग्य में उसके प्रतीक्षा ही लिखी थी. वह इंतज़ार करती. सारी रात उसकी राह देखती . और, यह सिलसिला उसकी एक आदत सी बन गयी.
घर का खर्चा चलना अब मुश्किल होने लगा. बगैर काम क़े कौन तनख्वाह देता! शुरू क़े दिनों में लटमल कुछ काम कर लिया करता था, मगर अब तो वो भी नहीं. रज्जो का भाई मोहर्रिर बन चुका था, माँ-बाप उसे समझाते- तलाक दे दो. पेपर पर साइन कर दो. देर ना लगेगी. कोर्ट जल्दी निर्णय दे देगी. कुछ नहीं बिगड़ा है. ऐसे घुट-घुट क़े जीने से क्या.. खुद को देख, पूरी ज़िन्दगी आगे पड़ी है.
मगर रज्जो ने एक न सुनी. मानो कान में तेल डाल लिया हो.
एक दफे मोहर्रिर भाई और लटमल के बीच हाथ-पाई भी हुई. खूब गाली गलौच हुआ. थाना पुलिस तक के नौबत आ गयी. लेकिन एक कुशल कारीगर जो अब मवाली-शराबी बन गया था, उसपे क्या असर!
पर, न जाने क्यों रज्जो पर कोई असर नहीं हुआ. उलटे अपने भाई पर नाराज़ हुई- हमारे मामले में क्यों दखल देते हो. वह मेरा पति है, मेरा नसीब….!
घरवालों को हैरानी होती, इस रज्जो को क्या हो गया है. कोई पुराण ज़माना तो है नहीं, ऐसे मर्दों को तो दुल्हनें शादी के मंडप से ही भगा देतीं हैं- शराबी…, मवाली…!
और तो और रज्जो ने अपने घर, अपने भाई से कैसी भी आर्थिक मदद लेनी बंद कर दी. पास के सिलाई – कढ़ाई ग्रुप की सदस्य बनी और दो पैसे कमाने लगी. ज्यादा पढ़ी- लिखी थी नहीं, मगर समझदार थी. मज़ेदार ये कि शराबी पति के पीने की ख्वाहिशें भी पूरी करती. बड़ी मुश्किल से घर का किराया और खाना खर्चा निकल पाता. भाई-पिता मदद को आगे आते, तो एक पाई नहीं लेती. पहले यदा-कड़ा मायके चली जाया करती थी, अब शराबी पति को छोड़ मज़ाल जो कहीं जाये.
पास-पड़ोस की महिलाएं चर्चा करती. तिरछी नज़रों से उसपे गप्पें उड़ातीं. कुछ तो ये कहतीं कि हो न हो उसके यार होंगे, आखिर किसके लिए इतना बनती – सवरती है. शराबी पति जिसका न दिन न कोई रात! भला उसके लिए कोई क्यों इतना सजे! ज़रूर दाल में काला है.
माँ -बाप और भाई एक दिन उसे मानाने आये. भाई ने खूब कोशिश की कि तलाक पेपर पे वो साइन कर दे. पड़ोसियों ने खूब चिल्लम-पों सुना. रोना-धोना भी हुआ. पर, रज्जो न उनके साथ गयी और न ही तलाक पेपर पे साइन किया. एक तो उसका पति शराब कि नशे में किस गटर में गिरा था, पर रज्जो का क्या! उसे क्या हुआ था! उसे किस बात का नशा सवार था! कोई कुछ समझ नहीं पाया.
शाम होने को आया. हम सबने बिजली कि पंखे और घर के भीतर से कूलर चलने की आवाज़ सुनी. शाम के 5 बज रहे होंगे. हमें समय का एहसास ही नहीं हुआ. कोई और दिन होता तो हम सब भीतर कमरे की ओर भागते और ए. सी. ऑन कर ठंडी हवा का मज़ा लेते. मगर, उस दिन कहानियों की दुनियां में खोये हमें न गर्मी का पाता चला न ही ढलते समय का. पक्षी चहचहाते और दाना- पानी लेकर अपने बसेरे लौट जाते.
पौधों में पानी डालने का वक़्त हो रहा था. सीमा आंटी ने अपनी कमर सीधी की. हम सब को घड़े के मीठे पानी की तलब हो रही थी. बिना कहे मैंने खुद सबके लिए पानी लाया. अनावश्यक जल रही बत्तियां बुझा दी. हमें सीमा ऑन्टी के साथ बाहर ही मज़ा आ रहा था.
“आज इतना ही, कल फिर आगे की कहानी कहेंगे. “- सीमा ऑन्टी हमारे भीतर की जिज्ञाषा समझ चुकीं थी. हम सब ने अपने आप में कहा- हमें कल का इंतज़ार रहेगा. थैंक्स ऑन्टी!
हम तीतर-बीतर हो गए. श्रुति न जाने कब हमारे बीच से उठकर भीतर जा लेटी. उसी ने सभी कूलर-पंखे ऑन किये होंगे. अब वो सो रही थी. दिनभर जो उछलते-कूदते रहती है.
ऐसा नहीं था की टुइँया उर्फ़ पिशाचिन बीच में टोका-टोकि, रोका-रोकी, पूछा-पुछौवल नहीं की थी. की थी, मगर उसी क़े बाज़ू बैठी मैं.., जैसे ही कुछ वो कहना चाहती, मैं उंगली उसकी ओर कर देती- खबरदार! चुप रहो या खुद बक्को..! अब तो चुप ही रहो. मैं चुप रहूंगी…, क्योंकि कहानी बैलगाड़ी से शुरू होकर राजमार्ग पर आ चुकी थी.
मैं अपनी मंडली में सबसे बड़ी थी. औरों का तो पाता नहीं, पर देर रात तक हम रज्जो क़े बारे में ही सोचते रहे. कई सवाल थें जो हमारे जेहन को खाये जा रहे थे. क्या सीमा ऑन्टी की कहानी में हमारे सभी सवालों का जवाब मिल पायेगा? या फिर, एक नया सवाल खड़ा होता जायेगा..!
हमें कल का इंतज़ार था. सोचते-सोचते न जाने कब आँख लग गयी. रात में कुछ बेतरतीब से सपने भी आये. एक मादा गौरैया बीच अँधेरी रात अपना आशियाना भूली हुइ, उस घने पत्तों वाले पेड़ की शाख पे बैठी, बेचैन! सीमा ऑन्टी कह रहीं थीं, शायद यह अपना बसेरा भूल गई. या फिर, इसका साथी कहीं गुम है. पक्षी अपना आशियाना नहीं भूलते. फिर..? क्या वजह होगी..?
उस दिन मेरी आँख खुली तो रज्जो मानों यहीं कहीं थी. हमारे आस-पास.
बीस-पचीस साल हो गए, रज्जो की कहानी सुने. आज मैं विवाहित, बच्चों व पति क़े साथ खुश हूँ. मेरा अपना एक आबाद घर है. उस घर की मालकिन मैं. छोटा सा बरामदा, जहाँ वे सभी चीजें हैं जो बचपन में हमने सीमा ऑन्टी क़े घर देखे थे. वो दिन, वो कहानी आज-तक मेरे जेहन में चिपके पड़े हैं. बस, उस रज्जो को हम पूरी तरह समझ नहीं पाएं. आज भी उसे समझने-गुनने की कोशिश करती हूँ. सचमुच वह एक ज़िंदा पहेली थी. सब उसे अपने-अपने तरह से समझते. किसी दो की राय उसके बारे में एक ना थी. सभी भिन्न.
जैसे-जैसे हम उसकी कहानी सुनते जाते, रज्जो नामक स्त्री धागे की तरह उलझते जाती. मानो एक बच्चे ने कोरे कागज़ पर बहुत से रंग-रेखाएं एक साथ बिखेर दी थीं. ढूंढो उसे! वो कहाँ -कहाँ थी!
समय चक्र को एक बार फिर पीछे ले चलते हैं, जहाँ सीमा ऑन्टी और बच्चों की हंसती खेलती दुनियां थी. तपती दोपहरिया. निम्बू का पानी. घड़े की ठंडक. घर क़े बनी नमकीन और मजीठे. फल्ली-फ्राई और चना फूटे. देशी गुड़ की बनी मिठाइयां, खुरमे और चिक्की चॉकलेट्स!
कहानी आगे बढ़ चुकी थी. कहानी शुरू होने क़े पहले हमने पिशाचीन अर्थात टुइयां को चेताया- बस अपने भाई जैसा भूत बनी रह. नहीं तो समझ ले. उसने अपनी उंगलियां होठों पर रखे. चेहरा भींच लिया. भूत की आँखें चलती थी, शरीर चुप बैठा रहता. श्रुति इसके विपरीत, बोलती तो कुछ नहीं, पर उसका शरीर बोलता. बक-बक करता रहता.
इस बीच ठेले पर कुल्फ़ीवाले ने घंटी बजाई. हम सब क़े पास खाने-पीने को बहुत कुछ था, पर, गर्मियों में मलाई-कुल्फी की बात ही कुछ और होती है. सीमा ऑन्टी ने हमारे आँखों की चमक को पढ़ लिया और कुल्फी वाले को आवाज़ दी. हम सब उछल पड़े.
पहले मावा कुल्फी का मज़ा. वाउ…! क्या बात थी, न जाने आज कैसी भी कुल्फी, मिठाई खाओ, वो बात नहीं आती जो हमारे बचपन में महसूस हुआ करती थी. बस, वो फील गुड याद आता है.
रज्जो क़े मोहर्रिर भाई का दोस्त था समीर. समीर शुरू से ही रज्जो को पसंद करता था. मगर दोस्त की बहन सोचकर या संकोचवश उसने अपने मन की बात मन में ही रखी. वो ज़माना ही कुछ ऐसा था. जब रज्जो की कहानी से समीर वाकिफ हुआ तो उसे भी उतना ही झटका लगा, जितना एक सच्चे साथी को लगनी चाहिए थी. खुलकर उसने अपने मन की बात दोस्त को बताई- यार बुरा मत मानना…, रज्जो का जीवन नर्क हो चला है. तू अगर उसे मना ले तो तलाक क़े बाद मैं उसे अपनाने को तैयार हूँ.
समीर की बात सुनकर मोहर्रिर भाई को सुकून तो मिला, मगर वही खौफ..! रज्जो न जाने कौन सी घुट्टी पीकर बैठी है.
आखिर दोनों दोस्तों ने तय किया – क्यों न उसके समक्ष यह प्रस्ताव भी रख कर देखें. मन ही तो है, जाने कब बदल जाए. हालाँकि समीर उसके खातिर प्रतीक्षा करने क़े लिए भी तैयार था. वह रुक जायेगा, उसके दरवाज़े रज्जो क़े लिए हमेशा क़े लिए खुले रहेंगे. इंतज़ार…!
रज्जो ने उनके प्रस्ताव को सुना और इस तरह सुना मानो कुछ सुना ही नहीं. ना हाँ, ना ही ना. बस, मुस्कुराई.
क्या चल रहा था उसके जेहन में? वह किससे बदला ले रही थी..? खुद से..? अपने परिवार से..? अपनी किस्मत से..?
भाई और समीर उसके घर आते-जाते. उसका मन टटोलने की कोशिश करते. पर हाथ लगता शून्य..!
इधर रज्जो के पति लटमल की हालत बिगड़ रही थी. कई बार अस्पताल में भर्ती करने की नौबत आ पड़ी. जिसने खुद ही नर्क स्वीकार कर लिया था, उसके लिए क्या आशा-उम्मीद! कुछ दिन दवा-दारु चलता, डॉक्टर दवाइयां और हिदायतें लिखता, मगर फिर वही. सुनने में आता कि वो शराब के साथ -साथ ड्रग्स भी लेने लगा था.
जैसे-जैसे उसकी हालत बिगड़ती गई, रज्जो की प्रतिज्ञा और तपस्या और सघन होने लगी. वो नंगे पांव चलती. जूते -चप्पल को उसने अलविदा कहा. हफ्ते में दो बार माता मंदिर जाती, नंगे पाँव. फिर, उसने मज़ार जाना भी शुरू कर दिया. हर काम करती, पैदल ही चलती. नंगे पाँव. तपती ज़मीन या बरसात की गिली मिट्टी या ओस के ठंडी सतह! सब ख़ुशी-ख़ुशी झेल रही थी.
डॉक्टर और अस्पताल के खर्चे मेंटेन करने के लिए उसने और जगह काम पकड़ लिया. मगर खुद्दार ऐसी कि ना भाई के सामने हाथ फैलाया ना ही माँ-बाप से कभी कुछ माँगा. मायके या ससुराल जाना तो उसने छोड़ ही दिया. हाँ, कोई उसके घर आता तो सभी रिश्ते निभाती. भाई जब- जब उसके घर जाता तो कुछ न कुछ चीजें पैक करा लेता. पैकेट में कुछ पैसे भी रख देता. वह नाराज़ होती. भाई उसे आड़े हाथों लेता – बस कर, तू बहुत स्वाभिमानी है. सारी दुनियां जानती है। किससे बदला ले रही है? लोग क्या सोचते होंगे, खाता -पीता घर है, भाई है, अच्छा कमाता है, मगर बहिन? एक तो पति शराबी और रोगी, दूसरे पैसे के लिए घर-घर मारी -मारी फिरती है. हम किस तरह अपना मुंह लेकर चलें. मन में सवाल ही सवाल. बिना कुछ किये मन ग्लानि से भरा. तू इतनी स्वार्थी है किसी ने नहीं सोचा होगा. न जाने क्या और कहाँ से अपना कान फुंकवा ली है. किसी की सुनती नहीं.
रज्जो चुप बैठी रहती. उसे सचमुच ऐसी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता. हाँ, भाई के सामान ले लेती. इतना हक़ था उसके ऊपर उसके भाई का. एहसान था मानो!
क्या कमी थी उसके पति में कि इस क़दर खुद को बर्बाद कर रहा था. क्या कोई दूसरी थी या कोई दूसरा…! ऐसी कोई भी बात प्रमाणित तौर से हाथ लग नहीं पायी थी. सबके अपने-अपने कयास थे. अपनी-अपनी कल्पना! रज्जो तो ठहरी बताने से! क्या पता उसे सच मालूम हो. क्या पता नहीं मालूम. आखिर वह एक पत्नी की हैसियत से तो जानने की कोशिश की ही होगी. मगर उसके घर- परिवार, मित्र, पास-पड़ोस किसी को कुछ हाथ नहीं लगा. मोहर्रिर भाई और समीर ने उसके बैकग्राउंड में जाने की कोशिश की, मगर पीछे की कहानी सब ठीक-ठाक ही लगता था- एक सज्जन सा लड़का, कुशल कारीगर, मेहनती. कोई नशा-पान नहीं.
फिर..? फिर क्या ऐसी कुछ बात थी जो सबके समझ के परे थी.
लटमल को अस्पताल भर्ती कराना एक आम बात हो गयी. हफ़्तों एडमिट रहता, कड़ी निगरानी में रखा जाने लगा. डॉक्टर के अनुसार उसका किडनी और लीवर दोनों जवाब दे रहे थे. शराब की एक बून्द भी हराम था.
रज्जो को ढेर सारी दवाइयों के साथ ऐसी हिदायतें मिलतीं. वह क्या करती…, अब तो वह उसे डराना धमकाना सब छोड़ दिया था. शायद नियति कुबूल थी. कोई चारा भी तो नहीं था उसके पास!
इन सारी बातों के बीच एक बात जो रज्जो की ज़िद बनी हुई थी – उसकी तपस्या! वह भरी दोपहरिया सीमेंट के फर्श पर 50-60 क़दम नंगे पांव चलकर अस्पताल जाती, रोज़ दिन में दो दफा. पति का खाना पहुंचाने दवा-दारु वास्ते. रेत और मुरुम के कच्ची सड़कों पे चलती. डामर रोड जो जेठ की दोपहरिया को पिघलते से जान पड़ते, वो बेधड़क उसपे चलती.
लटमल ने एक दिन रज्जो के पाँव के छाले देखे. वो निम्बू और तेल की मालिश उन फफोलों पे कर रही थी. ये रोज़ का ही सिलसिला था, पाँव के फोड़ों को वह नोंक चुभाकर फोड़ती, मालिश करती फिर अगले दिन नंगे पैर चलने की तैयारी. असहनीय दर्द झेल रही थी, मगर चुपचाप! लटमल यह सब देख पसीज गया और उसने भी शराब न छूने की कसम खाई. हलाकि डॉक्टर ने दवा के साथ शराब थोड़ी-थोड़ी कर छोड़ने की सलाह दी थी, पर, प्रतिज्ञा टूट न जाये, उसने शराब की एक बून्द तक हाथ नहीं लगाया.
और एक दिन, हरे-भरे बृक्ष अचानक से पीले पड़ गए. टहनियां मुरझा गयीं. रज्जो ने जो आँगन में तुलसी लगाया था, वो सूख गयी. संध्या-वेला को प्रदीप्त होनेवाला पूजा-दीप बुझ गया.
ये तो होना ही था. बस, समय का इंतज़ार था.
मौसम बदला, दिन और रात ने कई- कई करवट पलटें. चाँद ने अपना फेर-बदल किया. पश्चम से पूरब, प्रतिपदा फिर वही परिक्रमा! धरती की…! कभी गोल सफ़ेद, कभी स्याह और नदारत. पृथ्वी अपनी धुरी पर टिकी, सूर्य की परिक्रमा एक निश्चित अनुशासन में जारी रखे हुए थी.
सबकी अपनी-अपनी गति है. सबकी. कोई किसी का चक्कर काट रहा है, तो कोई किसी और का!
रज्जो की धुरी कहाँ थी..? वह किसकी परिक्रमा अब भी कर रही थी..?
पति की प्रतिज्ञा उसके साथ ही चली गयी. मगर रज्जो की प्रतिज्ञा? वह अब भी क्यों नंगे पाँव चलती और किसके लिए हफ्ते में दो दफा देवी मंदिर कई किलोमीटर चल कर जाती. क्यों वह अब भी, बल्कि अब कुछ ज्यादा ही सज-धज कर रहती, रंगीन चूड़ियां पहनती, रंगीन साड़ी, माथे में सिंदूर…! नंगे पाँव मगर पॉव में पायल.
ये सब किसके लिए…!
आखिर वह किसकी परिक्रमा कर रही थी..!
कहने की आवश्यकता नहीं की दुनियां क्या कहती या सोचती होगी. रज्जो को इससे कोई फर्क पड़नेवाला नहीं था. आज तक उसे किसी मर्द या फ्रेंड के साथ ना देखा गया ना ही सुना.
एक दिन उसका भाई, पिता और बूढी माँ, सब मिलकर उसे घर वापस ले जाने आये. खूब समझाया-
अकेली मत रह. तुम्हारा भरा-पूरा परिवार है. मत विवाह कर, मगर माँ-बाप के घर रह. वह हमेशा से तुम्हारा है. भाई तुम्हारा, माँ तुम्हारी. यहां तू अकेली…, रोज़ी-रोटी के लिए हाड़-तोड़ मेहनत और ये तुम्हारा नंगे पाँव रहना…! ये सब क्या है…. कौन इस तरह जीता है.., क्या दुनिया में और स्त्रियां नहीं.., कौन सा व्रत ले रखा है जिसमे तुम्हारे भाई, माँ-बाप सब नदारत हैं..! बता जरा..!
भाई नसीहत देता-
तू इतनी स्वार्थी…क्यों! क्यों सिर्फ अपनी सुनती है, हम कुछ नहीं…, क्या है तेरा, तेरा खून…, तेरी साँसे, तेरी हड्डियां, तेरा रूप…सब यहीं छूट जाना है, फिर इतना अपने में लिप्त तेरा ये जीवन…! आखिर क्या और किसे सबक सिखा रही है तू…! क्या है तुम्हारा… और जब सब तेरा नहीं तो अन्य की बात तो सुन…! ये छोटे-छोटे पौधे जो तुमने लगा रखे हैं, वे भी तुझ पर निर्भर हैं. मगर तू,,,? तू सिर्फ और सिर्फ खुद पर निर्भर रहना चाहती है. मिथ्या घमंड है तेरा..! सोच ले…फिर हम तुम्हारे दरबार, तुम्हे मनाने नहीं आएंगे.
हमेशा की तरह रज्जो का जवाब एक ही होता – खामोशी!
पल, घंटे, दिन, सप्ताह और वर्ष बीत रहे थे. ऋतुएँ करवटें बदल रही थीं . सुख़ और दुःख अपना -अपना पहिया खींच रहे थे. हँसना और रोना- इंसानों की ज़िन्दगी के हिस्से थे. मवेशी मरते तो कुत्ते जश्न मनाते. कुछ नई बात नहीं थी. वर्षों बीतें. चीजें बदली और कुछ नहीं भी बदली. समीर वहीँ था – प्रतीक्षारत. शायद रज्जो का मन बदल जाये. उसका कारोबार बढियाँ चल रहा था. रियल एस्टेट में उसकी चल पड़ी थी. मोहर्रिर भाई की शादी हो चुकी थी. बच्चे भी हुए. माँ-बाप एकदम से बूढ़े हो चले. आँखें सुनी. आकाश में कुछ ढूंढती. माँ की एक ही ख्वाहिश थी – उसके जीते जी रज्जो घर वापस आ जाये. ना करे शादी, पर सबके सामने तो रहे! बूढ़े बाप कुछ नहीं कहते, मगर समीर घर आता-जाता तो उसे बड़ी हसरत से देखते…, शायद उन्हें लगता कि रज्जो एक दिन समीर को स्वीकार कर लेगी.
दुनियां में बहुत सारी चीजें बदल रहीं थी. धरती पहले से कहीं ज्यादा तपने लगीं थी. बे- मौसम बरसात आम बात थी. बे- मौसम बर्फबारी, ग्लेसिअर का पिघलना, कई पक्षियों का लुप्त होना, फसलों का नष्ट होना …, मिटटी से धीरे-धीरे कीट-केंचुए लुप्त होते जाना- इस तरह चीजें बदल रही थी. घास के मैदान दिखते नहीं. पानी के सोते नाराज़ से हो गए. आकाश में सूरज मानो तानाशाहों जैसा बर्ताव करता. उसके आस-पास बादल के एक टुकड़े तक नहीं. धरती जलती, आकाश पिघलता. हरे पेड़ों के पत्ते कुम्भला गए. टहनियां सूखी…, नदियों का स्रोत सूख सा गया. कुएं -तालाब हेकड़ी दिखाते – चल भाग! कुछ नहीं मिलेगा. जा! बोतलबंद पानी के पास…!
रज्जो भी उसी तरह तप रही थी, नंगे पाँव.., अकेले. क्या धरती से उसकी प्रतिस्पर्धा हो रही थी…?
पता नहीं!
सीमा ऑन्टी की कहानी हफ़्तों-महीनों चलीं. हम छुट्टियों में फिर-फिर ऑन्टी के घर आते. फिर-फिर पास-पड़ोस के बच्चे, भूत-भूतनी, टुइयां, इकठा होते. कहानी चलती रही. गर्मियों में हम ठंडा पानी और शरबत पीते. आइसक्रीम या कुल्फियों का मज़ा लुटते. बरसात में पकोड़े और चिप्स.., ठण्ड में गरम सेवइयां..! घी का हलुवा, तिलकुट और रावडी उड़ाते.
कहानी और श्रुति का कूदना-फाँदना, टुइयां की टोका-टोकी, मेरा उसे खबरदार करना, बिजली का आना-जाना, मच्छड़ों का बरसात में प्रकोप, ठण्ड में धुप का भाग जाना, बरसात में जल-देवता द्वारा चंद बूंदे दिखाकर लुप्त हो जाना- ये सभी हमारे कहानियों के किरदार थे. कहानी के साथ-साथ इनकी बातें भी खूब होती. पहले ऐसा था, अब ऐसा है, ना जाने कल कैसा हो…! हमारा तो बीत गया, न जाने तुम सब का क्या होगा…! सभी एक-दूसरे से रूठे बैठें हैं. कोई किसी को मनाता नहीं दिखता. मानो पूरी दुनिया को नज़र लग गयी हो.
ऐसा नहीं था, कोई किसी को मनाने की कोशिश कर रहा था. बिना थके. बिना रुके.
समीर. प्रतीक्षारत समीर…!
पर, रज्जो..? वो किसे मना रही थी..?
आज मैं बूढी हो चली हूँ. मैं वो कहानी सुननेवाली बच्ची नहीं, बाल-बच्चेदार…, एक गृहणी!
सच तो ये है कि मैं खुद एक कहानी बन गयी हूँ. कहानी सुननेवाली न जाने कब स्वयं एक किरदार हो गयी. बहुत से किरदार हुए, बहुत से किरदार मैंने निभाए, मगर फिर भी एक किरदार आज तक पहेली बानी रही, हाँ, वही, रज्जो!
बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठी मेरी आँखें लग जाती है. मेरी तन्द्रा तब टूटती है जब रजनी चीनी मिटटी की प्याली में गरम मसालेदार चाय लेकर आग्रह करती है. हाँ, मेरे चाय का समय!
शक्कर कम डाला है ना! मैं स्वभाव से हमेशा ही पूछ लिया करती हूँ. रजनी हमारे घर की कूक है. अब हमसे चला-फिरा नहीं जाता. आराम करती हूँ. बुढ़िया हो गयी हूँ.
रजनी चली जाती है. जाने के पहले ज़रूर पूछती है, शाम का खाना क्या बनाऊं.., और मैं हमेशा की तरह जवाब देती हूँ, बहु आएगी तो पूछ लेना. अब मेरी क्या पसंद और ना-पसंद…! रुखा-सूखा कुछ भी परोस देना.
चाय के साथ मेरी आँखें बंद होती हैं, मगर वापस रज्जो के पास. वही, मेरे दिव्य चक्षु खुलते हैं. तरह-तरह के सवाल जो हैं, वहां. बिना जवाब वाले…!
कितना दिलचस्प है, जो अबूझ सा है, वह जो अनजान है, रहस्य है- हमें खींचता है. अपने पास बुलाता है. और हम जाते भी हैं. उसे छूना, टटोलना चाहते हैं. देखना, सूंघना, पहचानना चाहते हैं. हम चाहते हैं, अदृश्य, दृश्य हो जाए. भगवान् प्रत्यक्ष प्रगट हों. पर, वह रहस्य ही क्या कि सबकुछ खुल जाए! हाँ, रज्जो ने लम्बा सा घूँघट पहन लिया था. कौन उस घूँघट के आर-पार हो!
टुइयां, पिशाचिन, श्रुति, भूत या सीमा आंटी, सबके मन में क्या था, नहीं मालूम. मगर मैं जानती थी अपने मन को. वो बेचैन मन…! हज़ारों कयास, हज़ारों सवालों से भी वो रज्जो परिभाषित नहीं हो पा रही थी. ठीक से पकड़ ही नहीं आती.
चाय ख़त्म कर ली मैंने, आँखे बंद हैं.
समीर…!
इस समीर को क्या हो गया था. किस बात के लिए वह रज्जो का इंतज़ार कर रहा था! एक दिन रज्जो उसके पास ज़रूर आएगी. या कुछ और…! रज्जो ने जो सुख नहीं हासिल की, तो वह क्यों..! पता नहीं उसके मन में क्या चल रहा था. खाता- पीता जवान, अच्छी कमाई मगर कुंवारा. और इंतज़ार भी किसका…! जिसके लौटने की उम्मीद थी ही नहीं…!
पहेली सुलझ नहीं रही थी, बल्कि और उलझते जा रही थी. जीवन में पैसा, सफलता, पद, सामजिक सम्मान से बढ़कर भी कुछ होता है, वह ‘कुछ’ क्या था जो हमारी पकड़ से बाहर था.
एक दिन टुइंयाँ खूब टोका-टोकी कर रही थी. मैंने उसे खबरदार नहीं किया- जा पूछ ले. मन की शंकाएं पूरी कर ले. वो कई-कई सवाल करती- इसकी जानकारी आपको कैसे हुई, इस अमुक बात को किसने और कब कहा? समीर को रज्जो के बारे में कौन बताता था…, आदि आदि!
सीमा ऑन्टी ने कहा कि बस आगे की कहानी उन्हें नहीं मालूम. हमने कुछ कहा तो नहीं मगर उनकी बात सुनकर सन्न रह गए- ये क्या! कहानी तो अभी अधूरी है. सब कुछ जानना बाकी है. हमारी प्यास बढ़ चली थी. बीच में ही भला कौन ऐसे चौराहे पर लाकर खड़ा करता है. पर हम अधिक देर तक खामोश नहीं रह सके और हम सबने जोरदार शब्दों में इस बात का विरोध किया और ये कहने लगे कि हमें मुक्कमल कहानी चाहिए, वरना हम अपनी जगह से उठेंगे नहीं.
सीमा ऑन्टी ने मुस्कराते हए कहा कि वो सब समझती है. उनका कहने का मतलब ये था कि आगे की कहानी उन्हें नहीं मालूम. आगे की कहानी उस तोते की ज़बानी सुननी थी.
तोते से..? हमें आश्चर्य हुआ.
उन्होंने कहा हाँ, क्योंकि बाद में क्या हुआ ये तोता बेहतर जनता था. उन्होंने कहा, कल फिर आना, बची कहानी तोते से सुनने वास्ते.
+ +
उस दिन सीमा आंटी ने अपनी कहानी में कुछ किरदारों को जोड़ा. पर, हम हैरान नहीं हुए. कथा की विश्वश्नीयता पर हममे से किसी ने भी सवाल नहीं उठाया. आखिर वो क्या बात थी…?
सीमा आंटी ने कहानी ज़ारी रखा –
एक दिन एक कौआ अपनी चोंच में गोस्त का टुकड़ा लेकर समीर के घर के मुंडेर पर जा बैठा. समीर उस कौवे को देखकर चिल्लाया– चोर! चोर! चोर! पकड़ो, पकड़ो! चोरी का गोस्त है, पकड़ो..!
कौवा अपना गोस्त लेकर उड़ गया. समीर ने उसका पीछा किया. शहर से दूर आम का एक बागीचा था, वहीं पेड़ के पत्तों के पीछे कौवा जा छिपा. पेड़ों की छाँह तले समीर उसका प्रतीक्षा करता रहा. कौवे का पीछा करता, भागता-भागता वह थक चुका था. प्यास भी लग रही थी, हालाँकि पेड़ों की छांव में उसे बड़ा सुकून महसूस हो रहा था.
तभी ऊपर से हड्डी का टुकड़ा गिरा. हो न हो, ये हड्डी उसी गोस्त का है, जिसका मांस कौवा खा चुका. कौवा यहीं होगा, छिपा हुआ.
जब कौवे को यक़ीन हो गया कि वह भला मानुष उसका पीछा छोड़नेवाला नहीं, तो एक शाख पर बैठकर कहने लगा- भाई मानव.., मेरे भोजन और भूख पर ये कैसा पहरा है.., हमें भी तो ज़ीने दो…!
कौवे की बात सुनकर समीर बोला- “तुम चोर हो…! तुमने किसी इंसान के घर से वो गोस्त उड़ाई है, तुम दंड के भागीदार हो.”
“अब तुम्ही बताओ कि मेरा दंड क्या हो..?”- कौवे ने पूछा.
“तुम्हे उसकी कीमत चुकानी होगी. वह भी जुर्माने के साथ..!”
“मंजूर है, पर तुम सारे मानुष हमारे बसेरे और भोज्य सामग्री को नष्ट कर चुके हो, क्या तुम सब इसकी कीमत चुका सकोगे…?”-
समीर कौवे के इस प्रतिप्रश्न से हैरान हो गया. कहने लगा- “वो कैसे…?”
“वो इस तरह “- कौवे ने बात बढ़ाई- “कि हमारी हरियाली, किट-पतंगे, घास-फूस, पेड़ों कि छाँह,
तुम सब मानुषों ने नष्ट कर दिया. लुटेरे हो तुम लोग…, और हमारी चोरी के लिए हमें ही दंड देने निकले…, यह कैसा न्याय है…!”
कौवे कि बात सुनकर समीर गंभीर हो गया. वह सोच में पड़ गया. कौवा सही बोल रहा था. उसने क्षमा मांगी. कहा- “भाई तुम्हे रोज़- रोज़ गोस्त खिलाऊंगा, वादा करता हूँ..”
“जानते हो गोस्त घास-तिनके, झाड़ियों से हासिल होते हैं. “- कौवे की बात से समीर हैरान हो गया- “वह कैसे..?”
“वह इस तरह कि…”- कौवे ने आगे अपनी बात जारी रखी- “कि शाकाहारी जानवर घास-फूस पर पालते हैं. अब गोस्त में वो मज़ा नहीं, बस हड्डियां बची हैं.”
“समझा…!”- समीर बुदबुदाया और वापस हो लिया.
पिछे से कौवा कह रहा था- “हमारा ख्याल रखने के लिए शुक्रिया. हमें गोस्त नहीं, हमारा घर हमें लौटा दो.., हमारा बसेरा..!”
एक दिन एक तोता समीर के खिड़की पर बैठा रटने लगा- “कौवे ने माफ़ी मांगी, अब वो गोस्त चोरी नहीं करेगा. रज्जो,,,रज्जो…!”
“क्या हुआ रज्जो को…!”- समीर ने तोते से पूछा, “उसका नाम क्यों ले रहे हो..?”
“रज्जो कौवे के लिए दाना-पानी निकल देती है, जब भी घर में गोस्त बनता है, उसका एक टुकड़ा भी…!”
तोता बोल रहा था. समीर सुन रहा था. वह गदगद था. रज्जो ऐसी ही है. रज्जो सभी से प्यार करनेवाली स्त्री है.
समीर का चेहरा खिल गया!
+
समीर ने उन सभी जगहों पर पेड़ लगवाएं जहां- जहाँ से होकर रज्जो गुजरती थी. माता मंदिर को जानेवाले रास्ते के दोनों ओर, जल्दी बढ़्नेवाले ओर घने पेड़. ५-६ सालों में ही सड़क हरा- भरा हो गया. फिर तो हरियाली ने हरियाली को आकर्षित किया. पेड़ों से पत्ते झरते. टहनियां टूटकर ज़मीन पर गिरतीं. पशु-पक्षी बसेरा बनाते. पेड़ों के नीचे घास ओर कीटों की दुनिया आबाद हुई. आते-जाते लोग घनी धूप में छाँह तले साँसे लेते. ये सब कुछ समीर की बदौलत!
रज्जो जिस कॉलोनी रहती थी, वहां हर संभव जगह पर घने व सुन्दर वृक्ष लगे.
समीर जो कुछ करता उसे कौआ देखता और फिर वो तोते को बताता. तोता रज्जो को, जिसे तपती ज़मीन पर चलने की आदत थी, उसे छांव में चलकर जाने कैसा महसूस होता होगा. क्या कभी उसके ह्रदय से समीर के लिए आभार प्रगट हुआ होगा…, शायद हाँ, कम से कम उसके पाँव तो ज़रूर उसके लिए दुआएं भेजी होंगी!
कहते हैं, फिर तो समीर को पेड़ लगाने, घने छांव के नीचे बेंच लगाने की धुन सवार हो गयी. उसे जहां भी मौका मिला, बृक्षारोपण किये. उनकी देख-रेख किये.
एक दिन तोते ने रज्जो से सवाल किया- ” क्या बात है, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, किस्मत वाली हो जो तुम्हे समीर जैसा लड़का मिल रहा है. मगर, ये सब क्यों….!”
तब रज्जो ने जवाब दिया- ” मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं. न मेरे पति से, न मेरे भाई या माँ – बाप से…! मैं तो बस खुद में मगन हूँ.”
“खुद में..”- तोते ने स्वाभाविक जिज्ञासा से पूछा. “ये कैसा है खुद में मगन होना. तुम्हारे माथे में सिंदूर और लाल-हरी चूड़ियाँ, तुम्हारा सजना-धजना, रंगीन साड़ी, व्रत-त्योहारों में हिस्सा लेना, ये सब समझ में आता है, मगर अब भी तुम्हारा नंगे पाँव चलना…! ये क्या है…!”
“ये सब करना मुझे अच्छा लगता है. मुझे दुल्हन बनना, एक पत्नी की तरह रहना, सजना-सवरना यही तो मेरी ख्वाहिशें थीं. उसी को तो मैं जी रही हूँ. ”
“और तुम्हारे ये नंगे पाँव..?”
रज्जो इस सवाल पर चुप रही, कुछ बोली नहीं- जाने दो. बस, यों ही…!
“क्या तुम्हे लगता है कि ऐसा करके तुम अपने पति के तकलीफों को कम कर पाओगी..”- तोते के इस सवाल पर वो शरमा गयी. बोली कुछ नहीं.
क्या वो अब भी लटमल को अपना पति मानती थी…?
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बहार दरवाज़े पर दस्तख हुई. कोई आया है.
मेरी तन्द्रा टूट गयी.
समय चक्र अचानक अतीत से वर्तमान में चला आया. मेरे पास! खाली हाथ! मेरे सवाल वापस मेरे पास…!
आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे मेरी आँख लग जाती है. सोती नहीं हूँ पर जागी भी नहीं. स्वयं में सम्मोहित! होशो-हवास में..!
हमारा जीवन भी सोने और जागने के बीच के जैसा है. स्वप्न मगर आधा! हकीकत मगर आधा! ये अफसाना ही तो है जहाँ हम अपना मुक्कमल चेहरा देख पाते हैं.
चेहरा….! हाँ, चेहरा…!
फिर मेरी तन्द्रा में वो दिखती है- एक लम्बी परिक्रमा करती, खुद की…, दूर ओझल होती हुयी….!
लेकिन उसके पिछे मुझे दीखता है पेड़ों की घनी छाँह, पशु-पक्षियों की चह-चह, बंजर उष्ण जमीन का नरम होना, घास-फूस और किट-पतंगों का आबाद होना….!
रज्जो…, एक अधूरी स्त्री, बिना पति व बच्चों वाली…, बंजर स्त्री…!
या फिर, नंगे पाँव परिक्रमा करनेवाली, अपनी…, खुद की…ताकि दुनिया समझ सके- एक तिनके का मूल्य…!
महेश्वर नारायण सिन्हा
बिलासपुर
मो-9826124921