कविता का रूप कैसे बदलता है देखें ज़रा. नये रचनाकार ने लिखा था नवीन प्रयास था इसलिए कसौटी पर खरा नहीं उतरा. उसी कविता को कैसे कसौटी पर खरा उतारें-
1 नदी तुम निकलती जहांॅ से
2 वह तीर्थ बन जाता है
3 पूजा जाता है वह स्थान
4 मेला मंडई करते गुणगान
5 तुम बहती-बहती रूप बदल जाती हो
6 परिस्थितियों पर ढल जाती हो
7 पहाड़ों में विकराल
8 तो मैदानों में हिल मिल जाती हो
9 झरनों से बनती वनबाला
10 तो शहरों में जीवन बन जाती हो
11 बहती-बहती थक जाती हो
12 तो समंदर में समा जाती हो
अब हम इस कविता को जो नदी पर लिखी गयी है उसे बस्तर क्षेत्र की इन्द्रावती से जोड़ते हैं-
अक्षुण्ण रखा तुमने आदिम जीवन को
अपने किनारों पर बसाकर
चित्रकूट बन ललचाती हो
तो बारसूर में सप्तधारा बन डराती हो
आज के संदर्भ में जोड़े तो-
लहलहा रही है फसल
नरमुण्डों और पसलियों की
पानी में तेरे जाने कैसा विष है घोला
बीच फॅंसा है आदिम सीधा और भोला.
जहॉं तू गिरती थी, वहॉं से
क्यों उठकर आती हो
भय, भूख, बीमारी, पलायन फैलाती हो.
अन्य संदर्भ से जोड़ें तो-
सूख रही तू, पसली-पसली नजर आती है
मलेरिया से तो मरते ही थे
बिन पानी जीवन की कल्पना से क्यों डराती हो.
तेरे साथी बिछड़े, कट-कटकर चले गये
तेरा अकेलापन हमें डराता है
करनी हमारी, दोष तुझी को
जाने क्यों हमें समझ नहीं आता है.
नदी पर लिखी जाने वाली कवितायें सामान्यतः उसके उद्गम प्रवाह और समाप्ति को चिन्हित करते हुये लिखी जाती है और फिर पानी की कमी का रोना रोया जाता है, आजू-बाजू पड़ने वाले शहरों का नाम डाला जाता है. यदि इसमें हम कुछ विशेष सामग्री दें तो कविता के रूप और गुण दोनों बदल जाते हैं. जैसे इतिहास, ज्ञान और वक्त का विशिष्ट संदर्भ. देखें ज़रा-
तटों के भीतर तुझे बांध दिया
तेरी नेकी का हमने इनाम दिया
सिसक-सिसककर ठहर-ठहरकर तू बहती है
तेरी ये दुर्दशा कि
बरसा में भी तू तल से चिपककर रहती है
बड़े-बड़े बांधों से तुझे जकड़ा है
तो एनीकट से बहुत जगह पकड़ा है
सड़ता पानी करे पुकार
कब होगा मेरा उद्धार