महेश्वर नारायण सिन्हा (पार्ट-2)

 

सनत जैन-आरक्षण से समाज एक वर्ग का उत्थान है या फिर शोषण ?
महेश्वर जी-वास्तविक प्रगति या उत्थान तो स्वयं के पैरों पर खड़े होने में हैं। हमारे समाज, देश में ऐसी परिस्थितियां निर्मित करें, जिससे सभी वर्ग, जाति, धर्म के लोगों का वास्तविक विकास संभव हो सके। यह हमारे संविधान का मूल लक्ष्य भी है। आरक्षण से होने वाला उत्थान या शोषण को, ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिये। देश का और (पाकिस्तान के अतिरिक्त) बंटवारा न हो, इसलिये आरक्षण की नीति अमल करनी पड़ी। और उस समाज पर क्या टिप्पणी, जहां गांवों में आज भी ’ठाकुर का कुंआ’ है, ’सद्गति’ आज भी है, बल्कि आज तो ’ऑनर कीलिंग’ आये दिन सुनने देखने को मिलती है। ऐसे में इस ऐतिहासिक आरक्षण नीति पर सीधे-सीधे क्या टिप्पणी की जाये। बस एक बात निश्चित है जो ऊपर इशारे में बता दी है। ऐसा वातावरण निर्मित हो, जहां सभी को हर वर्ग-जाति का उत्थान हो सके। जाहिर है यह एक स्वप्न-आदर्श स्थिति है -जहां एक दिन में नहीं पहुंचा जा सकता। यह प्रक्रिया है, धीरे-धीरे आयेगी। शहरीकरण ने इस प्रक्रिया को, बहुत कुछ धराशायी किया है। पर अभी दिल्ली दूर है। बेहतर तो यही होगा कि आरक्षित वर्ग के लोग स्वयं इसका लाभ लेना बंद कर दें -वे आगे आकर स्वयं कहें, कि अब इस नीति की आवश्यकता नहीं। यह आश्चर्य नहीं, यह स्वेच्छिक बिना दबाव के हो, तभी हमारी वास्तविक समानता-बंधुत्व का आदर्श हम प्राप्त कर पायेंगे। वैसे हमारे समाज में जातिगत भेदभाव एक खाज की तरह है, इस आरक्षण नीति को, इस पहलू से जोड़कर देखना समीचीन होगा। रही बात इस विरोधाभास की कि उत्थान व शोषण, यहां एक ही चीज के दो पहलू हैं -आप क्या देखते हैं, व किस नजरिये से देखते हैं, इस बात पर निर्भर है। व्यक्तिगत रूप से, न मैं एक आदर्श उत्थान (आज की स्थिति में ) अथवा शोषण, दोनों अतिरेक को अस्वीकार करता हूं।

सनत जैन-आदर्श समाज के लिये समान अवसर और समान जीवन होना, इसमें संतुलन होना नितांत आवश्यक है।
सर, वर्तमान दौर में कहा जाता है कि फिल्में समाज को अपसंस्कृत कर रही हैं, आपको क्या लगता है ऐसा है या नहीं ?
महेश्वर जी-फिल्म एक ऐसी विधा है जो एक साथ अनेक कला-रूपों को मिलाती है। इसलिए एक फिल्म अच्छी होने पर महाकाव्य-सा आनंद या प्रभाव दे संकती है। एक फिल्म, अगर कहें तो इसमें क्या है, और क्या नहीं -गीत, संगीत, विभिन्न वाद्य, कहानी, संवाद, कैमरा, कोरियोग्राफी, नृत्य, दृश्य……। अभिनय। निर्देशन। और, आजकल तो इनका विज्ञापन करना, प्रचार करना भी एक कला हो चुका है।
आपके प्रश्न पर सीधे आते हैं कि इतने व्यापक अर्थात सभी कलाओं को मिलाने वाली महाकला, अपसंस्कृति के लिये जवाबदार हो सकती है। जी हां, यह बहुत कुछ सही है। मगर, ऊपर एक सवाल के उत्तर में मैंने इंगित किया है कि -जैसे शिक्षा, केवल शिक्षा, हमारे आचरण के लिये जवाबदार नहीं हो सकती, बल्कि इसमें बहुत सारे घटक शामिल होते हैं। उसी तरह सिनेमा व साहित्य भी हमारा दर्पण हैं। वो हमें ही व्यक्त कर रहा है। अब देखिये कि हम क्या हैं, क्या चाहते हैं, एवं अपसंस्कृति का प्रचार करने वाली फिल्म, क्यों हिट हो ? उसे तो औंधे मुंह गिर जाना चाहिये। तो छेद तो कहीं और है। सिनेमा विधा एक महंगी विधा है, पैसा लगाने वाले फायनेंसर आश्वस्त होना चाहते हैं कि उनके पैसे का रिटर्न प्राप्त होगा। तो पैसे वाले मोटे गेंडे को कला की कितनी समझ ? कहानी की कितनी समझ ? उसे तो इस तरह आश्वस्त करना पड़ता होगा कि इसमें, इस फिल्म में ’तड़का’ खूब है। ’माल’ अच्छे से परोसा गया है। इसमें आयटम है, स्त्री की पिंडलियां हैं,
गहरी नाभि है, खुली टांगें हैं, खुले बदन हैं, और भी इसमें बहुत कुछ है। तब फायनेंसर आश्वस्त होता है, कि फिल्म चलेगी! युवा पीढ़ी सांस थामे फिल्म पर टूट पड़ेगी। सीटिंया बजेंगी।
अर्थात ज्यादातर मूवी ’श्रृंगार’ नहीं सेक्स, -सेक्स नहीं पोर्न का, व्यवसाय करती नजर आ रही हैं। जब कला माध्यम से कुत्सा, कुप्रवृत्ति, अभद्रता दिखाने लगते हैं, तो यह निश्चित रूप से हमारी युवा पीढ़ी को कुसंस्कृत करती है।
यहां यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि चाहे मूवी हो या साहित्य या कला का और कोई रूप हो, श्रृंगार रस का वर्णन या प्रदर्शन हमेशा अप सांस्कृतिक नहीं होता। सेक्स या श्रृंगार का वर्णन, कला-साहित्य या सिनेमा के लिये सर्वोच्च चुनौतियां हैं। एक मंझा हुआ कलाकार या साहित्यकार या निर्देशक ही इनकी अभिव्यक्ति कर सकता है। गटर-छाप, भांड टाइप के तथाकथित स्वघोषित, स्वयं-भू महा-निर्देशक, इस पहलू को छू भी नहीं पाते। अक्सर उत्तेजना व उत्साह में फर्क नहीं कर पाते। वे चिलम या ड्रग्स का झोंका, आवेश, झटका तो उत्पन्न कर देते हैं, मगर स्त्री या पुरूष की नग्नता….न्यूडिटी को सर्वोच्च कलात्मक आयाम से चित्रित या प्रदर्शित करने में इनकी रचना में प्रकाशवर्ष की दूरी हो जाती है।
मेरी व्यक्तिगत राय है कि युवा पीढ़ी, किशोरवय के लिये ऐसे प्रचुर साहित्य, कला, मूवी बने, जिससे यौन विषय प्रधान हो। स्पष्ट है मैं पोर्न परोसने नहीं वकालत कर रहा हूं। इसके लिये हमारी समझ भी खुली होनी चाहिये। ऐसा क्यों ? मुझे लगता है हमारे देश में विशेषकर पुरूष जाति, सेक्स-श्रृंगार-रूमानियत से कोसों दूर है। और स्त्री मूक है। मुझे लगता है कि इस धरती के पुरूष, एक स्त्री को समझने में कतई असमर्थ हैं।
आपके प्रश्न से कुछ दूर हो गया हूं। मगर बात संस्कृति-अपसंस्कृति की ही हो रही है। हम कहां चूके हैं ? हम वापस कैसे अपनी राह सुनिश्चित करें ? हमें और खुलना होगा – ’लिव-इन-रिलेशन’ जैसा नहीं, हमारे मस्तिष्क! ज्ञान का स्तर! यह अथाह विषय है।
इसी संदर्भ में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि सेक्स, नंगापन (नग्नता/न्यूडिटी नहीं) ही अपसंस्कृति से जुड़े नहीं हैं, फूहड़ कहानी, हिंसा, अनावश्यक िंहंसा, फूहड़ कामेडी के नाम पर जो चरित्रहरण का काम करती हैं, विदेशों के नकली, फूहड़ नृत्य शैलियां, जो जबरन यहां दिखायी जाती हैं -कहानी, जो हमारी मिट्टी से दूर है, विदेशों से चुराकर यहां ’फिट’ की जाती है -ये सभी अपसंस्कृति के लिये जवाबदार हैं। जब बात अपसंस्कृति की हो रही है, तो हमें ये भी समझना होगा कि फिर संस्कृति क्या है ? हम सिर्फ अपने प्राचीन गौरव -गान को ही, संस्कृति का नाम नहीं दे सकते। हां, अपनी प्राचीन धरोहर की, नवीन सामाजिक व्याख्या जरूरी है। उसका सिनेमा, कला-साहित्य में वर्णन-प्रदर्शन हो -इसकी कतई जरूरत है। हर युग को समुद्र्र-मंथन करना पड़ता है। मुझे खुशी है कि आपके प्रदत्त मंच में, इस तरह के विषय पर चर्चा कर, यह मंथन का ही काम हो रहा है।
विषय इतना व्यापक है कि इस पर पृथक से पुस्तक लिखी जानी चाहिये -मगर संक्षेप में ये कहकर अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा, कि सिनेमा ने सिर्फ अपसंस्कृति ही नहीं किया, बल्कि इसने संस्कृति का नया रूप भी, हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है, जो ज्यादा सुंदर, ज्यादा प्रगतिशील, ज्यादा आकर्षक है। हिन्दी सिनेमा ने बहु-आयामी तरीके से जहां हेमंत कुमार सरीखे, मंदिर में जलते दीये की तरह आवाज दी, तो दूसरी ओर आर. डी. बर्मन जैसा संगीतकार और संगीत का खिलाड़ी हमें दिया। एक ओर नौशाद, सलिल चौधरी, एस. डी. बर्मन जैसा संगीतकार दिया, जिसकी धुनों में ’लोक-ध्वनि’ शिरोमणि रहा है, वहीं बहु-विध प्रयोगों से सामना, कई संगीतकारों ने हमारे संगीत को, संगम-क्लास, फॉक, देशी व विदेशी खूबियों से इन्हें जड़ा। खूबसूरत बनाया। उसी तरह फिल्मों की कहानी ने आवाम को ज्यादा संवेदनशील बनाया। वी. शांताराम जैसे गांधीवादी फिल्म निर्माता रहे हैं, तो आवाम के दुखदर्द को व्यक्त करने वाले निर्देशकों / फिल्म प्रोड्यूसरों की कमी नहीं है। तो इसके दोनों पक्ष हैं -यह जरूरी है कि इस महाकला का सार्थक और बेहतर उपयोग हो।

सनत जैन– वाह क्या बात कही आपने सर! अमृत, जहर भी हो सकता है। यही सिनेमा जो सांस्कृतिक विनाश का प्रतीक माना जाने लगा है इससे ही सामाजिक क्रांति भी संभव है। परन्तु प्रयोग करने वाले पर निर्भर करता है।
सर, अपने शहर के लिए आपके क्या विचार हैं ? जहां आप रहते हैं, जहां आप रह चुके हैं।
महेश्वर जी-शहर चाहे जो भी हो, स्वच्छता, प्रदूषण-मुक्त, फैलाव और चौड़ाई लिये नियोजित हो। सीवेज बेहतर हो, हरियाली भरपूर। ये सभी तो हर शहर, हर कस्बे पर लागू होता है मगर बस्तर के लिये (जगदलपुर) विशेषकर -कहना चाहूंगा, कि बस्तर आर्ट एक पारंपरिक कला है। एक म्यूजियम या आर्ट-गैलरी हो, शहर में लायब्रेरी हो, बस्तर केन्द्रित आर्ट लिटरेचर की प्रधानता हो। यह कहने-सुनने में अच्छा लगता है। पर प्रश्न का दूसरा पहलू भी है, कि क्या हमारी बौद्धिक क्षमता (आर्थिक नहीं) इतनी है, कि पांच रूपये टिकट दर, प्रवेश शुल्क अदा कर, हम गैलरियों, लायब्रेरियों का लाभ उठा सकें। सोचिये, दिन में पांच सौ रूपये का गुटका शराब उड़ाने वाली हमारी रचनात्मक आबादी, पांच रूपये पर आर्ट गैलरी नहीं देखना चाहेगी। स्पष्ट है हमारी बौद्धिक धरोहर किस अंधकार युग की है। म्यूजियम आर्ट, गैलरियों के लिये हम क्या सक्षम हैं ?
प्रसंग आया है तो बताना चाहूंगा, कि तीन-चार साल पहले, मुझे व्यक्तिगत तौर पर यू.एन. (यूनाइटेड नेशन) के सांस्कृतिक विभाग की तरफ से, अपने देश में एक आर्ट गैलरी खोलने-संचालित करने हेतु ऑफर दिया गया था। मैं चाहे देश में कहीं भी सुविधानुसार, किसी आर्ट गैलरी या स्वतंत्ररूप से इस संस्था की तरफ से, प्रदर्शनी इत्यादि कलात्मक गतिविधियों को देश, दक्षिण एशिया या पूरे विश्व से चित्रकारों, मूर्तिकारों इत्यादि को आमंत्रित कर, सांस्कृतिक एक्सचेंज व प्रदर्शन को एक आयाम देने का प्रयास (जैसा कि इनका उद्देश्य था) करता। मेरे लिये या किसी के लिये भी यह एक गौरव की बात थी -मगर इस आमंत्रण को अस्वीकार करने में, मैंने पल भर भी देरी न की। बिना ज्यादा सोच विचार किये, मैं तुरंत धन्यवाद ज्ञापन करते हुये ’न’ में उत्तर दिया -क्यों ?
इसका उत्तर हम सबको ढूंढना चाहिये।
हम बीस रूपये की पत्रिका खरीद कर नहीं पढ़ सकते।
साल में एक भी पुस्तक न खरीदते हैं, न ही पढ़ते हैं। बहुत पढ़ाकू हुये भी, तो फोकट मिला तभी पढ़ेंगे।
खरीद भी ली, तो किसी ब्रांडेड, विदेशी लेखक को पढें़गे -भले ही उनका लिटरेचर कूड़ा हो। हमारे काम का नहीं।
एक करोड़ का घर बनायेंगे मगर पांच-दस हजार की पेंटिंग नहीं खरीद सकते। प्रदर्शन के लिये पेंटिग लगी भी होगी, तो मशीनी छपाईयुक्त, फोटोफ्रेमयुक्त जो हजार रूपये से ज्यादा नहीं आती, वह लगायेंगे या शाईनिंग पेपर में डिजिटल नेचुरल दृश्य ही, चिपका देंगे। करोड़ का घर तो बना लिया, मगर एक मिनी लायब्रेरी नहीं, एक मूल पेंटिग नहीं। हां, पैसा है तो ब्रांडेड इम्पोर्टेट कपड़े आप पहनेंगे, कार भी ब्रांडेड, महंगी….!
यह मध्यम वर्ग है और शायद बुद्धिजीवी! इस देश में क्या आर्ट गैलरी, लायब्रेरी या बस्तर आर्ट!
यह ऊपर के प्रसंग की चर्चा मैंने घर के किसी सदस्य से भी नहीं की। मुझे अपने संदर्भ में, और जो मेरा निजी अनुभव, कला व साहित्य के प्रति लोगों को देखते हुये, यही प्रतीत होता है, कि ऐसे प्रसंग इस प्रकाश से भरे ज्ञानी शहरवासियों के समक्ष क्या मायने….? आज इसका जिक्र इस मंच के मार्फत इसलिये किया, ताकि शहर-कस्बा-गांव से हमारी अपेक्षायें क्या हों -इसका उत्तर आपको, आपके पाठकों को मिल जाये। शायद हम इस बात को स्वीकार करें, कि हम वाकई कला प्रेमी हैं, साहित्य अनुरागी है….., यदि हैं तो हमारा रोल क्या है ….?
बात शहर से अपेक्षा से शुरू हुयी थी। जनाब! शहर हमें क्या देगा….वह तो हम मात्र हैं, जो शहर को दे सकते हैं। शहर को बिना मांगे हमने गंदगी, पाल्यूशन स्लॅम इत्यादि (सिर्फ बस्तर की बात नहीं) दे दिया, क्या कुछ अच्छा भी दे सकेंगे ? शहर क्या है….शहर जवाबदार है या शहरवासी….शहरवासी कौन…?
क्या यहां भी हम जर्मन, फ्रांस, अमेरिका से इर्म्पोट कराकर, शहर आबाद कराने की फिराक में तो नहीं…. क्योंकि हमारी कला वे पढ़ेंगे, हमारी किताबें वे खरीदेंगे….हमारी लायब्रेरियों में पुस्तकें छानेंगे!
विचार बुरा नहीं है….! मानव संसाधन को पत्र लिखना चाहिये कि हम तो गुटका और गटर-छाप संसाधन हैं -गैलरी व लायब्रेरी के ब्रांडेड मानव आयात किये जाने चाहिये….!

सनत जैन-आपने एकदम मस्त बात कही, कि जो समाज चंद रूपये अपने साहित्य व सांस्कृतिक विरासत के लिये खर्च नहीं कर सकता है उसके लिये सोचना बेहद कठीन है। परन्तु हर शहर में एक लाइब्रेरी व कला दीर्घा होना जरूरी है जिससे भविष्य की पीढ़ी को रास्ता दिखाते रहने की संतुष्टी मन में बनी रहे। अच्छा सर, एक बात बताइये, जगदलपुर की कौन सी विशेषता आपको भाती है ?
महेश्वर जी-नियोजित शहर संभवतः भारतीय मध्यकालीन इंजिनियरों द्वारा नियोजित, हर चौराहे से, गली से, दूसरी गली या चौराहा दिखना। फैला हुआ शहर। उत्तम ड्रेनेज-व्यवस्था यद्यपि मेरे वहां रहते, मेंटेनेंस की अनदेखी स्पष्ट लक्षित थी। विशेष- मैं इसका ’विशेषज्ञ’ नहीं हूं, मैं तो सौंदर्य और रूमानियत का प्रेमी हूं -माप-जोख से परे!

सनत जैन– कुछ कर गुजरने की की सोच ?
महेश्वर जी-ऐसा कुछ भी नहीं।

सनत जैन-आपने अपने लक्ष्य की तलाश किस तरह की ?
महेश्वर जी-बेरोजगारी के वकत रोजगार या नौकरी लक्ष्य था। बाद में कला और साहित्य लक्ष्य बना। अब मुझे लगता है, कला और साहित्य कोई लक्ष्य नहीं, स्वयं में साधना हैं। आनंद, सौंदर्य अभिरूचि, ज्ञान ये स्वयं में परिपूर्ण हैं ये वहीं ठहरते नहीं।

सनत जैन– किसने या किस चीज ने प्रभावित किया ?
महेश्वर जी-भारतीय शास्त्र, वेद-उपनिषद, महाकाव्य, जय-विजय (महाभारत), अपने देश की प्रकृति और इसका सौंदर्य, विशेषकर पठारी इलाका, जैसे छोटा नागपुर का पठार, बस्तर और आस-पास के पहाड़ी इलाके, भारतीय स्त्रियां -इनका सौंदर्य विविध है, उत्तर हो या पूरब या धुर दक्षिण, सबकी विशिष्टता है। मैं इन्हें दुनिया के सबसे सुंदर प्राणियों में गिनता हूं। भावात्मक रूप से भी ये जितने सशक्त हैं, उतनी ही कोमल भी। इनका भावपक्ष इन्हें सुंदरतम बनाता है। प्रभावित करने में और भी कई चीजें हैं, सभी का जिक्र संभव नहीं।

सनत जैन-आपके जीवन में संकल्प-साधना-सफलता का रोल किस तरह था ?
महेश्वर जी-संकल्प-साधना-सफलता; ये कड़ियां हैं, एक दूसरे पर निर्भर या एक दूसरे से जुड़ी! कहना चाहूंगा, कि संकल्प कोई दिन-प्रतिदिन की घटना नहीं होती, जैसा भीष्म पितामह ने प्रतिज्ञा की -वैसी प्रतिज्ञा के लिये जाहिर है संकल्प चाहिये। कुछ संकल्प खामोश से होते हैं, जो खुद से किये जाते हैं। साधना तो मार्ग है, यात्रा! सफलता को मैं एक पड़ाव मानता हूं। एक फेज है। अंतिम सफलता जैसी कोई चीज नहीं होती। ठहराव होता है मगर मैं समझता हूं, वह सफलता रूपी प्लेटफार्म है -वह आगे भी यात्रा तय करती है। दूसरा ये कि ये नितांत निजी पहलू है, सबके लिये, इसके मायने अलग-अलग होंगे, किसी शोडषी के लिये मुम्बई में ’ब्रेक मिलना’ तो किसी मंडली में बैठकर चिलमबाज के लिये चिलम सोंटना….., तो कोई महाकवि मंच पर ’वाह-वाह!’ सुनकर नशे में धुत्त है…..ये सब अपनी -अपनी सफलताओं की जलेबी और रसगुल्ले हैं -सबका अपना स्वाद है। सबके अपने निजी मापदण्ड हैं।

सनत जैन-दुनिया को चैलेंज या चमत्कार मानते हैं ? आपको किस किस चैलेन्ज का सामना करना पड़ा ?
महेश्वर जी-चैलेंज और चमत्कार-मानो तो सबकुछ चैलेंज है और या फिर कुछ भी नहीं…..दिन प्रतिदिन की एक सामान्य घटना! क्या प्रकृति या एनीमल, हमारी दुनिया में किसी चमत्कार या चैलेंज जैसी अवधारणा से ग्रसित हैं ? शायद नहीं। शाम होते ही आंगन व बाग के पौधे, फूल-पत्तियां निष्क्रिय हो जाते हैं, दूसरे दिन दो नये फूल! कल हवा बिलकुल मंद थी, आज तेज है। कल आकाश साफ था, आज बादल मंडरा रहे हैं, शायद बारिश होगी। हम जहां हैं वहीं यह सब घट रहा है। और हमारा चैलेंज क्या है….कुछ नहीं….., वह सब आपने ’क्रिएट’ किया है। अगर आपका हाजमा सही नहीं है, तो उस भोजन का पाचन भी एक चैलेंज ही होगा। कहने का मतलब है ये है कि ये संसार एक वो लेबोरेटरी है जहां हम ’मानुष’ नामक प्राणी -जिसके अपने चैलेंज हैं -अपने-अपने चमत्कार हैं या नहीं हैं -यह सब निजी प्रश्न है, फिलहाल मैं इन चीजों को सहज व आश्चर्य भाव से देखता हूं। आभार प्रकट करता हूं। मुझे जो भी आनंदित करे उसका अनुग्रह स्वीकार करता हूं। चुनौतियां भी हैं, मगर मैंने कभी उन पर ध्यान नहीं दिया। ’देख लूंगा जो होगा’ ऐसा वाला भाव है।

सनत जैन-कर्म में विश्वास है या चमत्कार में ?
महेश्वर जी-कर्म ही आधार है, चमत्कार की आस में कौन बैठा रहेगा। चमत्कार जैसा कहीं कुछ है भी, तो जरूर वहां भी कर्म चमत्कारिक / करिश्मोटिक होगा।

सनत जैन-असफलता डराती है या सफलता प्रेरित करती है ?
महेश्वर जी-सफलता अवश्य प्रेरित करती है। असफलता डराती, तो आप मुझसे ये प्रश्न नहीं पूछ रहे होते। मैं कहीं गली में या मां के आंचल में ही, गुम पड़ा रहता। वैसे सफलता-असफलता भी एक भ्रामक पहलू है। सच्ची सफलता ईमानदार, वो कर्म जो स्व-प्रेरित हो, भीतर से आये और आपको ’क्रिएट’ करे न कि आप कुछ ’क्रिएट’ कर रहे हों -ऐसा भाव नहीं! रचनाकार के लिये आत्म संतुष्टि सर्वाधिक बड़ी बात या सफलता -आप जिस नाम से पुकारें -मायने रखता है। बाकी तो व्यापार या प्रचार है। मंच से उठी तालियां और ’वाह-वाह’ क्या सफलता की निशानी हैं ? रात-दिन बच्चों की नींद हराम कर ’तितली-रानी’ के अंदाज में पाठ्य पुस्तक घोंटवा कर नाइन्टी नाइन परसेंट मार्क-शीट पर प्राप्त कर लेना, क्या सफलता की निशानी है ? दरअसल यह शब्द प्रदूषित हो गया है। आज के संदर्भ में तो जरूर! सिर्फ बुद्ध को पता था, कि उनकी साधना पूरी हुयी या नहीं, उनके प्रश्नों का उत्तर मिला या नहीं। उन्हें किसी और ने या इस दुनिया या किसी गुरू ने ’सर्टिफाई’ नहीं किया -’टू हूम इट मे कनशर्न…..।’ बुद्ध को यह बात स्वयं ज्ञात हुयी। वे अपना दीपक आप थे…। किसी आलोचक या पुरोहित के दिशा-निर्देशों की आवश्यकता उन्हें नहीं थी।
अंत में ये फिर से कहना चाहूंगा, कि यह भी एक निजी प्रश्न है -रेडिमेड कपड़े की तरह सबको ’फिट’ नहीं किया जा सकता। किसी की सफलता उस चमेली का, छत पे दीदार है, तो किसी के लिये शाम को एक खम्बा! कच्चा प्याज और नमक के साथ…..! तो किसी शायर के लिये ’वाह-वाह’ उनकी दर्द भरी शायरी के लिये…..शायर हूं और प्यासा हूं…. जाने कब बुझेगी प्यास….!
इरशाद….!

सनत जैन– इस जिन्दगी से खुश हैं आप ?
महेश्वर जी-नाखुश होने की कोई वजह मुझे नहीं दिखती। आखिर इस दुनिया में क्या नहीं है। विविधता की कोई कमी। कभी-कभी जरूर सोचता हूं -इस अमीरी को छोड़ मनुष्य, सफलता-पैसा, शोहरत और न जाने किस-किस के पीछे भागता है। कुछ लोग जीवन से हार कर, बोर होकर अंधेंरे में बैठे रहते हैं। अब क्या कमी रह गयी -ईश्वर से इस दुनिया को सुंदर-विधि-अनंत बनाये रखने में…..! अधिकतर शहरी व ग्रामीण अपने पड़ोसी की तरक्की से, कुंठित व दुबले हो गये। ईश्वर यदि होगा तो जरूर सोचता होगा -अबे चूतिये! मेरे से क्या कमी रह गयी!
सो खुशी और ना-खुशी भी एक नितांत निजी प्रश्न है।

सनत जैन-जब आप अपनी जिन्दगी के बारे में सोचते हैं तो क्या लगता है अब तक की आपकी जीवन यात्रा कैसी रही ?
महेश्वर जी-अत्यंत संतोषजनक और सबसे बढ़कर आनंददायक! सच ये कि मैं अपने इश्क में मगन रहा हूं। अब ये न पूछियेगा कि मेरा इश्क क्या है और कौन ?

सनत जैन– सर जरूर ये पूछना आपके लिये खतरे से खाली नहीं है। इसलिये इसे छोड़िये। अगर आपकी जिन्दगी पर कोई किताब लिखी जाये तो उसका शीर्षक क्या होना चाहिए ? औैर उसका कौन सा अध्याय सबसे ज्यादा इंट्रेस्टींग होगा ? और कोई अफसोस ?
महेश्वर जी-अफसोस तो कुछ भी नहीं। किताब का शीर्षक, चलताऊ जमाने के अनुसार भड़काऊ-लपेटू टाइप होगा। जैसे-बाबा की लुंगी, बाबाजी का ब्लाउज, बाबाजी का ज्ञान-कमंडल, बाबा औघड़ का ढाई आखर, बाबाजी का मैला इत्यादि! रोचक अध्याय तो वही होना चाहिये, जब इस पुस्तक के मुख्य चरित्र यानी बाबाजी मस्त होकर इश्क में लीन रहेंगे। यानी दुनियादारी से बेखबर अपनी दुनिया के रीति से विपरीत होगी, जो हंसायेगी और जीवन-दर्शन भी करायेगी।

सनत जैन-अगर आपको टाइम मशीन मिल जाये और आपको मौका मिले कि आप अपने जीवन में पीछे जा सकें तो कौन से पल में जाना पसंद करेंगे ? ऐसी कौन सी चीज है जिसे करना चाहेंगे या बदलना चाहेंगे ? किससे मिलना चाहेंगे ?
महेश्वर जी-टाइम मशीन से कहूंगा, कि यह बाबा टाइम से जाना चाहता है। जब टाइम मशीन या तो हार मान लेगी अथवा समय के परे ले भी गयी तो वो ’समय’ ’स्थान’ से भी परे होगा। तब ’बदलाव’ भी स्वतः आ जायेगा। फिर बिना पूछे ’समय’ और ’स्थान’ बनाने वाले का दर्शन भी हो जायेगा, यानी परिचय जिसे शायद ईश्वर कहते हैं।

सनत जैन-बस्तर के बारे में आपके विचार- इतिहास-वर्तमान-भविष्य क्या ? कैसा ?
महेश्वर जी-बस्तर क्या, बस्तरवासियों का वर्तमान, अतीत, भविष्य सभी कुछ निर्भर है। अतीत तो चला गया। ऊपर हमने अपनी अपेक्षायें या निजी पसंद दर्शा दिये है। वही बस्तर या किसी शहर, स्थान का, मेरे लिये आदर्श रूप है।

सनत जैन-अगर एक शब्द में आपसे पूछा जाये कि आप कौन हैं तो आपका जवाब क्या होगा ?
महेश्वर जी-यही तो मुश्किल है। संकेत, चरित्र-प्रधान पुस्तक का शीर्षक, बहुत कुछ बोल रहा है -ध्यान से सुनिये।
सनत जैन-आपके जीवन का आध्यात्मिक पहलू किस तरह है ? आप इस विषय में किस तरह के विचार रखते हैं ?
-हर जैविक-अजैविक चीजों के भीतर देखने समझने का प्रयास! आप मासदा आम खा रहे हैं -’वाह! मजा आ गया नू…! इसमें विटामिन सी, डी, ए….आयरन, जिंक…..सब है। दूसरा कोई खाकर कहता है।