बढ़ते कदम-शुचिता झा

शबनमी अहसास

ओस से भरकर छलकती
आसमांॅ की प्यास
दूर बिखरा हवा में
शबनमी अहसास.
पर्वतों की धूप जाने
सो रही है भोर
छांॅव छुपकर ताकती है
फुनगियों की ओर.
प्रीति का श्रृंगार फैला
धड़कनों के द्वार
रेशमी अभिसार जागा
स्पंदनों के पार.
सिहरनों के गांव ठहरा
भीगता मधुमास.

दुख दूसरों के

दुनिया के फरेब से
अनजान नहीं हैं हम,
कोई माने या न माने
बेईमान नहीं हैं हम,
यह बात अलग है
दुखों से भर जाता है दिल,
नये मंसूबे देखने दुनिया के
फिर संभल जाता है दिल,
दुख दूसरों के
भुलाये नहीं भूलते,
काफ़िले से बिछड़े हुये को
बुलाना नहीं भूलते.

कु. सुचिता झा
बी.ए. फायनल
दंतेश्वरी महाविद्यालय
जगदलपुर छ.ग.