पुस्तक अंश / संस्मरण-हरिहर वैष्णव

लालाजी के चले जाने का अर्थ

लाला जगदलपुरी. एक ऐसा नाम जिसे छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल की जीवित किम्वदन्ती कहा जाता है. बस्तर का चलता-फिरता ज्ञान-कोष कहा जाता रहा है. अक्षरादित्य कहा जाता रहा है. किन्तु आज वही 93 वर्षीय चिरकुमार, चलता-फिरता ज्ञान-कोष हमारे बीच नहीं है. 14 अगस्त 2013 संध्या 7.00 बजे उस साहित्य-ऋषि ने अपने डोकरीघाट पारा (जगदलपुर, बस्तर, छ.ग.) स्थित निवास पर अंतिम सांसें ली. अंतिम सांसों के पहले तक यद्यपि वे रोग-शय्या पर पड़े हुए थे तथापि उनके ज्ञान का भण्डार तब भी अक्षुण्ण रहा था. तब भी, यदि कोई उनसे कुछ मांगने गया तो वह खाली हाथ नहीं लौटा. हां, कभी-कभी स्मृति-लोप की स्थिति में चला जाने वाला दण्डक वन का यह साहित्य-ऋषि मूल प्रसंग से थोड़ी देर के लिए भटक भले ही जाता रहा हो किन्तु स्मृति लौटते ही आपके साथ समरस हो जाता था. कई बार आपसे पूछता था, ‘‘और सब ठीक है न ?’’


इन साहित्य-मनीषी को हम सब लालाजी के नाम से जानते थे, जानते हैं और जानते रहेंगे. जहां तक मैं जानता हूं, लालाजी के संपर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति ने उनसे कुछ-न-कुछ पाया अवश्य ही है किन्तु दिया कुछ भी नहीं. दरअसल कोई उन्हें कुछ दे ही नहीं सकता था और उन्होंने स्वयं भी कभी इसकी अपेक्षा नहीं की. उन्होंने ‘याचना’ तो कभी की ही नहीं. वे हमेशा ‘दाता’ ही बने रहे. लालाजी अत्यंत स्वाभिमानी व्यक्ति रहे हैं. तब भी, जब वे रोग-शय्या पर थे, तो भी उनका स्वाभिमान जस-का-तस बना रहा. स्वाभिमान खोने का पाठ उन्होंने पढ़ा ही नहीं. अपने संपर्क में आये लोगों से भी यही कहा, ‘स्वाभिमान मत खोयें. उसे बनाये रखें.’ लालाजी स्वाभिमान की बातें उनके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति जानता है. किन्तु कई लोग उनके इस स्वाभिमान को उनकी हेकड़ी बताते नहीं चूकते. बहुत संभव है कि पढने-सुनने वालों को यह अतिश्योक्ति लगे किन्तु मैं जानता हूं कि मेरे लिए लालाजी के चले जाने का अर्थ मेरा स्वयं का चला जाना है. मुझे लालाजी से जितना स्नेह मिला, जितना मार्गदर्शन मिला उसे सहेज पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है. कल्पना कीजिये कि क्या महासागर को कोई अपनी बाहों में समेट सकता है ? लालाजी से मिले स्नेह और आशीर्वाद के महासागर को बाहों में समेटना क्या मेरे लिए सहज है ? कतई नहीं. वस्तुतः आज यदि मैं बस्तर की वाचिक परम्परा पर थोड़ा-बहुत काम कर पाया हूं तो निश्चित ही इसके पीछे कीर्ति-शेष लालाजी का ही हाथ रहा है. उनका आशीर्वाद रहा है. कदम-कदम पर मेरा मार्गदर्शन करते लालाजी से कई बार मतभेद भी हो जाया करते थे किन्तु वे मतभेद आपसी विचार-विमर्श के बाद दूर हो जाया करते थे. मैं इस बात से गौरवान्वित हूं कि अपने अंतिम समय से कुछ पहले तक भी वे मुझे बराबर याद किया करते थे और भले ही अपने ही परिवार के सदस्यों को न पहचान पाते रहें हों किन्तु मुझे पहचान जाते थे. मेरे लिए जगदलपुर जाने का अर्थ ही था लालाजी से भेंट करना. किन्तु कभी-कभार यदि बहुत ही व्यस्तता के कारण या समयाभव के कारण मैं उनसे नहीं मिल पाता तो तकलीफ दोनों को होती थी. मैं अधूरापन महसूस करता तो वे भी यही महसूसते थे.
मेरी उनकी पहली भेंट थी 1971-72 में जब मैं बी.ए.प्रथम वर्ष का छात्र था और उसी बीच उन्होंने जगदलपुर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक ‘अंगारा’ में मेरी पहली रचना प्रकाशित की थी और मुझे पत्र भी लिखा था. पत्र मिलने और रचना (‘ध्यानाकर्षण’ शीर्षक कविता) प्रकाशन के बाद मैं उनसे अपने मित्र केसरी कुमार सिंह के साथ उनसे उनके निवास (कवि निवास) में मिला था. उसके बाद इन 40-41 वर्षों में न जाने कितनी बार भेंट हुई. प्रत्येक भेंट में उनसे ऊर्जा मिली, उनका आशीर्वाद मिला और अथाह प्यार. फिर अंतिम भेंट हुई 17 मार्च 2013 को.
इस दिन उनके और मेरे सह-सम्पादन में नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘बस्तर की लोक कथायें’ की प्रतियां लेकर मैं और नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया में सहायक संपादक (हिन्दी) पंकज चतुर्वेदी जी उनसे मिलने पहुंचे थे. बात पहले से तय थी ही. पंकज चतुर्वेदी जी लालाजी से मिलने को उत्सुक थे. और 10 मार्च को कोंडागांव में इस पुस्तक के लोकार्पण के बाद हम दूसरे दिन यानी 11 मार्च को सवेरे 9.30 बजे के आसपास जगदलपुर के लिए रवाना हो गये. 11.00 बजे के आसपास हम जगदलपुर पहुंचे. मैंने रास्ते में बस्तर के लोक-भाषा हल्बी के अन्यतम कवि श्री सोनसिंह पुजारी जी के विषय में पंकज जी को बताया था. वे उनसे भी मिलने को उत्सुक थे. हम सबसे पहले श्री पुजारी जी के घर पहुंचे. थोड़ी देर उनसे चर्चा की और लगभग 11.30 बजे हम लालाजी के निवास जा पहुंचे.
हमनें उनके घर में प्रवेश किया तो पाया कि उनके कमरे का दरवाजा बंद है और वे ‘आओ रे, भोजन कराओ रे’ कह रहे थे. उनकी आवाज में जो पीड़ा थी, जो रूदन था, उसे सुनकर मैं, पंकज जी और खीरेन्द्र यादव तीनों ही द्रवित हो गये थे मैंने दरवाजा खोलने का प्रयास किया किन्तु वह खुला नहीं. मुझे चिन्ता हो रही थी कि दरवाजा भीतर से बंद है तो उन्हें किस तरह भोजन कराया जायेगा ? अभी हम इसी दुश्चिन्ता से दो-चार हो रहे थे कि सामने वाले मकान से एक महिला आयीं और बताया कि लालाजी के अनुज के.एल.श्रीवास्तव जी की पुत्र-वधु कल्पना श्रीवास्तव आ रहीं हैं. वे ही हमें कमरे के भीतर ले चलेंगी.
भतीजे विनय श्रीवास्तव की पत्नी कल्पना आयीं और कमरे का दरवाजा धकेल कर खोला. तब हमारी समझ में आया कि दरवाजे का पल्ला नीचे झुक कर फर्श पर टिक गया था और इसलिए वह हमसे नहीं खुला. बहरहाल, कल्पना के साथ हम तीनों ने भीतर प्रवेश किया. भीतर पहुंच कर हम तीनों ने लालाजी को प्रणाम किया. वे हममें से किसी को भी नहीं पहचान पाये. पंकज जी ने ‘बस्तर की लोक कथायें’ की एक प्रति लालाजी के हाथ में दी. कल्पना बताने लगीं, ‘‘ताऊजी! आपसे मिलने आये हैं. ये आपकी पुस्तक छप गयी.’’
यह सुनकर वे कह उठे, ‘‘बड़ी कृपा हुयी.’’ फिर हंसने लगे.
कल्पना ने टार्च उनके हाथ में थमायी. लालाजी ने बिस्तर पर लेटे-लेटे ही टार्च की रोशनी में पुस्तक का मुख-पृष्ठ देखा और प्रसन्न हो कर बरबस अपनी चिरपरिचित दबंग आवाज में बोल पड़े, ‘‘वाह-वाह! बहुत बढ़िया, याने बड़ा काम किया है आपने. बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया है आपने. मैं बधाई देता हूं आपको.’’ फिर पूछने लगते हैं, ‘‘सब ठीक है ?’’
पंकज जी कहते हैं, ‘‘बस! आशीर्वाद आपका.’’
‘‘सब आनन्द है?’’ लालाजी फिर पूछते हैं. मैं केवल ‘जी’ कहता हूं.
फिर पंकज जी पुस्तक की शेष प्रतियां भी सिरहाने रखकर कहते हैं, ‘‘ये सभी पुस्तकें आपके लिए.’’
मैं पंकज जी को लालाजी के पास बुलाता हूं और परिचय कराता हूं, ‘‘लालाजी, आप दिल्ली से आये हैं. पंकज चतुर्वेदी जी हैं. नेशनल बुक ट्रस्ट में संपादक. आपसे व्यक्तिगत रूप से मिलने, आपका आशीर्वाद लेने आये हैं.’’ किन्तु वे सुन नहीं पाते. मुझसे कहने लगते हैं, ‘‘आप कोंडागांव से आये हैं.’’


‘‘जी कोंडागांव से. हरिहर.’’ मैं जवाब देता हूं.
वे कहते हैं, ‘‘कोंडागांव से आये हैं.’’ फिर मैं एक कागज पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखकर उन्हें देता हूं. वे पढ़ने का प्रयास करते हैं किन्तु पढ़ नहीं पाते हैं. इसी बीच मैं पुस्तक की प्रति फिर से उनके हाथ में देता हूं. वे कहने लगते हैं, ‘‘इस रचना का मैं दिल से स्वागत करता हूं.’’ फिर पंकज जी की ओर मुखातिब होकर पूछने लगते हैं, ‘‘आप?’’
कल्पना उत्तर देती है, ‘‘दिल्ली से आये हैं. आपकी पुस्तकें इन्होंने ही छापी है.’’
लालाजी कहते हैं, ‘‘अच्छा, अच्छा. कोंडागांव से.’’
कल्पना बताती हैं, ‘‘नहीं, नहीं. दिल्ली से.’’
लालाजी फिर कहते हैं, ‘‘कोंडागांव से?’’
कल्पना कहती हैं, ‘‘दिल्ली.’’
लालाजी कहते हैं, ‘‘कोंडागांव से?’’
कल्पना कहती हैं, ‘‘नहीं . दिल्ली से आये हैं. दिल्ली से. आपकी पुस्तक इन्हीं भैय्या ने छापी है’’
‘‘हां यहीं के हैं.’’ लालाजी कहते हैं.
मैं फिर लिखकर देता हूं. अपना और पंकज जी का नाम. वे पढ़ते हैं और कहने लगते हैं, ‘‘कोंडागांव से आपका गहरा संबंध है.’’
कल्पना उनसे लिखी हुई इबारतों को पढ़ने के लिए कहती है. लालाजी अब पढ़ते हैं और कह उठते हैं, ‘‘अच्छा, अच्छा, अच्छा. पंकज चतुर्वेदी. कौन हैं पंकज चतुर्वेदी?’’ पंकज जी उनके सामने फर्श पर बैठ जाते हैं तब लालाजी के मुख पर प्रसन्नता झलक उठती है. अपनी चिरपरिचित शैली में वे हंसते हुए कहने लगते हैं, ‘‘अच्छा……… नमस्कार.’’ फिर मेरी ओर मुखातिब हो कर पूछने लगते हैं, ‘‘……और आप?’’


हरिहर वैष्णव
सरगीपालपारा,
कोंडागांव जिला-कोंडागांव
मो.-07697174308