काव्य-ब्रजेश नंदन सिंह

कहीं खो न जाये वसंत

ये डर है कि गहरे अतल में
कहीं खो न जाये वसंत
सिमटती, सिकुड़ती
ये नदियां
लुप्त होती जमीं से
वनस्पतियां
देती हैं सृष्टि को संकेत, कहीं खो न जाये वसंत
खत्म होतीं कई
दुर्लभ प्रजातियां
पलायन करता हुआ
पक्षियों का झुण्ड
प्रमाणित करते हैं
सच में जीवंत, कहीं खो न जाये वसंत
ये गलते हुए ग्लेशियर
दरकते हुए हिम सागर
प्रश्न करते हैं
एक ही ज्वलंत, कहीं खो न जाये वसंत
ना फूलों पे गुंजेगी
भौंरों की गुंजन
ना मधुवन में होगी
मयूरों की थिरकन
ना मिट्टी से आयेगी
सोंधी सुगंध, कहीं खो न जाये वसंत
ना बागों में आयेगी
ऋतु की बहार
ना मधुऋतु में बहेगी
वासंती बयार
ना होगा धरा से
शिशिर का अंत, कहीं खो न जाये वसंत
रीत जायेगी
धरती यह सच में
ना दिखेगी
सितारों की चमक नभ में
जब आयेगा हिमयुग अनंत
कहीं खो न जाये वसंत


ब्रजेश नंदन सिंह
599, जोगे निवास
मोटघरेपुरा नागपुर, महाराष्ट्र
मो.-09372399373