रात
अंधेरे को लपेटे अपने तन से
रात चली उदास मन से
मैंने कहा रात से, तुम क्यों हो निराश
तुम नहीं जानती, क्या क्या है तुम्हारे पास!
तुम्हारे आंचल में चांद तारे हैं
तुम्हारी आंखों में सपने सुहाने हैं
तुमने ही दी सभी को सूरज की नयी किरण,
नये सपने ले के आए ओस के ये कण!
सबने किया आराम तुम्हारी ही गोद में
कुछ कह नहीं सकती तुम्हारे विरोध में
फिर न कहना कभी कि तुम हो बड़ी उदास,
क्योंकि तुम नहीं जानती कि तुम हो कितनी खास!
बचपन
मैंने बचपन को बचपन में खोते देखा है
बचपन को जवान होते देखा है
अब नहीं रही उनमें कोई शरारतें
क्योंकि हंसी को उदास होते देखा है।
मैंने कहा बचपन को चल हम वहां चलते हैं
जहां घंटों बैठे पानी में पत्थर मारते थे
या नहीं तो चल हम कन्चे खेलें,
जिसे तुम हमेशा जीता करते थे!
बचपन ने कहा प्यार से बचपन को अलविदा
जिम्मेदारी का बोझ उठाते हुए चला
बचपन ने कहा बचपन को, तू जा मेरे भाई
क्योंकि मैंने गुलजार को वीरान होते देखा है।
श्रद्धा बसंती जैन
रायपुर