कहानी-दिनेश कुमार विश्वकर्मा

टूटती साँसें

नवाब साहब को बूढ़े काका उनके गाड़ी के पास ले आए और कहा, “ये रही आपकी गाड़ी यहाँ कोई नहीं आया, सुरक्षित है ये।“
नवाब लंगड़ाते हुए गाड़ी तक पहुँचे, तस्कीन हुई कि सब ठीक है। वे काका से मुख़ातिब होकर बोले, “आपने मेरी बहुत सेवा की है। वरना मैं पड़ा होता यहीं।“
जंगल से घिरा इलाका था। आस-पास झोपड़ी भी दूर-दूर ही थी यहाँ पर। नवाब तो रौबदार आदमी थे। अपनी मर्ज़ी के मालिक। कई कारखाने थे उनके नाम पर। वहीं खेती बाड़ी भी किसी मौसम की मोहताज न थी, बारह महीने फ़सल लहलहाती। किसी की मजाल कि सर ऊँचा कर उनसे कोई बात भी कर सके। वो अपने मुनीम से लेकर मजदूर तक सभी को इंसान और जानवर के बीच का ही कोई जीव समझते थे।
बेरहम भी उतने ही थे। हाँ, वह महिलाओं को सम्मान देते थे। अपनी माँ का चेहरा न देख सके थे। जन्म देते ही उनकी माँ संसार छोड़ गई। फिर सौतेली माँ के व्यवहार और भाइयों के षड्यंत्रों ने ही शायद उन्हें इतना निर्मम इंसान बना दिया था। उम्र यही कोई साठ बरस रही होगी। कभी-कभी अपनी पसंदीदा गाड़ी से बिन बताए यात्रा पर निकल जाते थे।
मगर इस बार जाने उन्हें क्या सूझी यात्रा करते बड़ी दूर निकल आए, वैसे सारा जरूरी सामान लेकर चलते थे। फिर वो पर्वतों और सुरम्य घाटियाँ पार कर एक अलग ही जगह पर चले आए, अपनी यात्रा का पड़ाव ढूंढते आगे बढ़ गए। फिर भूख प्यास का भी ख़्याल न रखा, थकावट और नींद उनकी आँखों में थी। गाड़ी रोकी उनकी उनींदा आँखों में दरख़्त आपस में टकराते नज़र आ रहे थे। कुछ दूर चलना चाहा, उनका पाँव फिसला और पत्थर से टकराया। ढलान थी लुढ़कते गए, और बेसुध होकर पड़े रहे। होश आया तो देखा एक बूढ़ा आदमी उनकी सेवा कर रहा है। कुछ पूछना चाहते तो दोनों की भाषा बाधा बनती लेकिन अनुभव और भाव भंगिमा की भी एक भाषा होती है। देखा पाँव में भी चोट लगी है। बुखार भी रह रह के चढ़ता-उतरता। लगभग हफ्ते भर बाद आराम हो आया तो गाड़ी के पास जाने की उत्कंठा लिए आ गए थे।
अब बूढ़े काका ने कहा, “आपको अभी भी आराम की जरूरत है, ठहर जाइये साहब।“
नवाब ऐसी बातों के अभ्यस्त न थे बोल पड़े, “देखो बहुत दिन बीत चुके हैं, मैं किसी तरह चला जाऊँगा। मेरी हवेली होती तो डॉक्टरों की चहल-पहल रहती।“
गोयाकि बड़े और छोटे आदमी के ज़ख्म में भी कोई अंतर होता आया हो।
नवाब अपनी गाड़ी के डिक्की में दीगर सामानों को व्यवस्थित करने लगे। फिर महंगी शराब की दो बोतल निकाली और बूढ़े काका को देने लगे। काका ने बहुत अदब से कहा, “ये मेरे काम की नहीं, इसे आप ही रखिए।“
नवाब ने कहा, “अरे वो… आपने मेरे कहने पर मुझे पिलायी थी न देशी।“ फिर हाथ आगे बढ़ाते हुए बोले, “ये रख लो जाड़े के दिन हैं, ये काम आएगी। तुम अलाव जलाने के वास्ते जंगल से लकड़ियाँ लाते रहे। तुमने मेरी बहुत देखभाल की।“
सूखी लकड़ियों का ख़्याल आते ही बूढ़े काका को जैसे कोई तीर चुभ गया हो, कुछ ऐसा महसूस हुआ और वह दृश्य आँखों में तैरने लगा जब फॉरेस्ट के अफ़सर ने उसकी कुल्हाड़ी ज़ब्त कर के यह कहा था, “पहले अब तुम किसी तरह सात सौ रुपये लेकर आओ तब ये वापस मिलेगी, और हाँ… जब तक पूरे पैसे न ला सको तो हर दिन बीस रुपये अलग से लगेंगे।“ उनसे सूखी लकड़ियाँ भी छीन ली गई थीं। वह बहुत गिड़गिड़ाये थे अफसर के आगे। अफ़सर के एक-एक शब्द उनकी देह पर चाबुक की तरह पड़ती रही।
वह किसी तरह जमा करते रहे रुपये। फिर नवाब की सेवा में भी समय देते रहे। आखिर अकेला बूढ़ा आदमी दवा से लेकर देखभाल में दिन रात लगा रहा। पास के कस्बे में यही सूखी लकड़ियाँ बेच आते थे तो थोड़े पैसे रहते थे। किसी तरह चार सौ जमा थे उनके पास । फिर नवाब की सेवा के चलते कुछ पैसे खर्च हो गए। अगर पैसे न दिए तो कुल्हाड़ी भी चली जायेगी और जंगल में दुबारा जाने पर अफ़सर उन्हें सज़ा भी देगा। अफ़सर से बहुत मिन्नत की थी कि हम केवल सूखी लकड़ियाँ ही लाते हैं साहब। पर एक न सुनी थी। इस बुढ़ापे में कस्बे में जाकर कुली का काम करने की सकत भी बाकी न रही थी। कुल्हाड़ी तो अपने पिता को देख चलाना सीखा था। अपने परिवार के सदस्यों को एक-एक कर खोने के बाद जैसे इस कुल्हाड़ी से पिता की याद आती थी। मगर अब की याद की बारिश इतनी तेज़ थी मानो किसी कच्चे दीवार को रह रह कर ढहा रही हो।
तभी नवाब ने कहा, “अरे काका! कहाँ खो गए आप? मुझे जाना है जल्द। अब दोपहर से शाम हो आई न तो मुझे आगे जाने में मुश्किल होगी।“
काका जैसे ख़्वाब से जगे हों, निःशब्द खड़े रहे। नवाब जानते थे, काका खुद्दार आदमी हैं। पैसे नहीं लेंगे और बढ़ाई हुई बोतल वापस रख ली थी। ये अलग बात थी कि नवाब को अहसान चुकाना आता भी न था।
बूढ़े काका ने शब्दों और इशारों के सहारे से कहा, “वो अफ़सर अपने पास बन्दूक रखता है, आज आखरी दिन है, वरना कुल्हाड़ी नहीं मिलेगी।“
नवाब समझ तो न पाए पर डिक्की में से अपनी बन्दूक निकाली और कहा, “ये हमारे पुरखों की निशानी है। हमारी शान है।“ नवाब के मूंछों ने भी इस बात की गवाही दी।
फिर बूढ़े काका को समझाते हुए बोले, “पूरा इलाका कल भी हमारा था, अब भी। हम अपने इलाके में बन्दूक ताने निकल पड़ते हैं। वहाँ सब अफ़सर हमारी जी हजूरी करते हैं।“
बूढ़े काका को अधूरी बात ये समझ आयी, अगर हड्डियों में जंग लगी भी हो तो एक बन्दूक या रूतबा आदमी को शेर बना देता है,जिससे पूरा जंगल सहम जाए।
फिर लम्बी साँस लेकर नवाब बोले, “तो काका हमारे चलने का समय हो गया।“
काका वक़्त की नजाकत समझते हुए बोले, “ठहरिए, मैं कुछ लेकर आता हूँ।“
और अपनी झोपड़ी की तरफ़ चले गए।
नवाब मन ही मन अंग्रेजी में कुछ बुदबुदाये।
कि कितना नेक दिल इंसान है, ऐसे लोग दुनिया में होते भी हैं, यकीं नहीं होता।
उन्हें स्मरण हो आया जब उन्होंने काका कि सेवा भाव के बदले बटुआ आगे कर दिया और काका ने कहा था, “आप मेरी सेवा भावना की क़ीमत लगा रहे हैं, अरे..आप परदेशी हैं। दूर जाना है आपको, आपके काम आएगा। मुझ ग़रीब के घर रूखा सूखा खा रहे हो, शर्मिंदा हूँ।“
नवाब ने खुद से कहा, “कुछ बात तो है काका में उन्होंने आत्मीय भाव से सिलबट्टे पर पीस कर जो भी खिलाया वैसा ज़ायक़ा तो कहीं न था।“ किसी शाख़ से कोयल की मधुर आवाज़ आती रही, इस निर्जन जगह में एकांत संगीत सुखद अनुभूति थी।
इतने में काका एक पोटली लेकर आते दिखाई पड़े । काका ने कहा, “ये कुछ फल हैं, और रोटी बना रखी थी आपके लिए।“ बूढ़े काका के हाथ और शब्दों से यहाँ तक की आत्मा से भी दुआ झर रही थी। उनकी निष्पाप हँसी ने नवाब के हृदय के किसी कोने में छुपे बचपन के तार को झँकृत कर दिया था।
काका इतनी सेवा जतन करके भी सौम्य हैं। नवाब धन्यवाद कहने की बजाय घमंड में चूर हैं।
नवाब ने विदा ली, अब बन्द पड़ी गाड़ी में भी साँस आ गई थी। गाड़ी धूल के गुबार में धीरे-धीरे ओझल होती हुई दूर निकल गई थी। हाथ लहराते काका अपने-पराये के बोध से परे तकते रहे, तभी उनकी नज़र एक सूटकेस पर पड़ी।
“ये तो नवाब का है!“
उन्हें पुकारते बूढ़े काका दौड़े, “रुक जाओ साहब ये सामान रह गया। रु…….क….. जाओ…..।“
लेकिन दौड़ते क़दमों के मुकाबले गाड़ी की रफ़्तार तेज़ होती हुई दूर निकलती चली गई। काका की पुकार हवा में ही कहीं बिखरती चली गई। फिर कुल्हाड़ी का ख़्याल आते ही रुके। हाँफता हुआ शरीर पतझड़ में पुराने शाख की तरह हिल रहा था और वहीं सूटकेस छोड़ तेज़ गति से अफ़सर के ठिकाने की ओर दौड़ पड़े।

दिनेश विश्वकर्मा
कोण्डागांव
मो.-8463852536