अंक-25 बहस -कहानी में वाचिकता

कहानी में वाचिकता

इस धरती में कहानी कब शुरू हुयी होगी। उसका स्वरूप कैसा होगा। जाने कब मानव ये समझा होगा कि कहानी हमारी मूल अभिव्यक्ति है।
इस प्रसंग में कहानी की वाचन शैली अर्थात कहानी में वाचिकता तत्व पर चर्चा करेंगे। हम सब कथा-गल्प, किस्सा -कहानी शब्द और बहुत कुछ इसके अर्थ से वाकिफ हैं।
पहली कहानी कैसी होगी? सोचकर देखिए।
क्या सोचा आपने ?
जो सोचा, जो गौर फरमायें। बस एक मिनट। लिपिबद्व करें। क्या-क्या दृश्य आपके जेहन में चले आये ? उस कहानी की गति कैसी रही होगी ? आगे क्या हुआ होगा ?
आपने सोचा!
एक कदम आगे- जो आपने देखा जरा उसे औरों को सुनाएं। वह दृश्य क्या था ? कैसा था ? अंत और मध्य में क्या होता है ?
अर्थात आपने जो देखा उसका वाचन करना है। किसी को इस तरह उस दृश्य या कहानी को सुनाना है कि सामने वाले कि जुगुप्सा जग जाए। उसकी ज्ञान वृद्धि भी हो, मनोरंजन भी।
यहां वाचिकता है-
मैंने देखा कि वह एक बहुत विशाल आग का गोला था। वह हमारे ब्रह्मांड के बीचो-बीच प्रज्वलित था। सारे ग्रह – उपग्रह उसी से प्रकाशित थे। उसी से अपना ताप ग्रहण कर रहे थे। अचानक वह गोला दो भागों में बंट गया। एक दूसरी दुनिया बन गया। वह हमसे दूर था, बहुत दूर।
हम जरा ठहरें।
कहने की आवश्यकता नहीं कि श्रोता आश्चर्यचकित है! शायद वहां पहली बार ऐसा देख सुन रहा है। गौर करने की बात ये है कि वाचक के पहले वाक्य से ही श्रोता की कल्पना शक्ति जागृत हो गई। वह उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। वह ब्रह्मांड की विशालता की कल्पना में खो गया। वाचक तो किसी कहानी या घटना का अंश सुना रहा है, मगर श्रोता ? श्रोता मन की आंखों से अपनी कहानी गढ़ने लगा है।
मनुष्य जितना कल्पनाशील होगा, उतना ही रचनात्मक होगा। उतना ही उत्पादक!
आज जबकि सारी दुनिया हमारे दृश्यों में कैद है हम हर चीज साक्षात कैमरे की आंख से देखने के आदी हैं -हमारी कहानी -’शो डू नॉट टेल’ की विधा को स्वीकार कर चुकी है अर्थात अपने पाठकों को दिखाओ ना कि सुनाओ। प्रमाणिकता के बावजूद भी इस आलेख का मकसद ’टेल एंड डू नॉट शो’ क्यों है ?
अक्सर पाश्चात्य मान्यताएं हम पर आंख मूंद कर स्वीकार कर लेते हैं। आप अमेरिका में एक बच्चे की कहानी भी कथन शैली (टेल) में नहीं पाएंगे। वहां तीन साल के बच्चे को भी माता-पिता चित्र द्वारा ’शो’ कहानियां दिखाते हैं -सुनाते नहीं!
पर हम ठहरे ठेठ भारतीय मिट्टी पकड़ पहलवान। आसानी से चित होने वाले नहीं। किसी तकनीक या शैली पर सवाल तो उठना ही चाहिए। वैसे कैमरे की आंख या ’शो’ वाली लेखन शैली अधिकांश लेखकों-पाठकों की पसंद हुआ करती है, उस पर प्रश्न नहीं। प्रश्न इस बात पर है कि साहित्यिक अभिव्यक्ति क्या किसी एक शैली या टेक्निक की गुलाम होकर रहेगी ? जरूर कुछ लोचा है।
पहली बात आपने अपने दो साल के शिशु को टीवी स्क्रीन के सामने तकिया लगा कर लेटा दिया -या फिर आपने ब्रिलिएंट माइंड (भारतीय गृहणियां अधिकांश) ने एक स्मार्टफोन में वीडियो अपलोड कर उसे थमा दिया। बच्चा मगन। वह घंटों मोबाइल वीडियो में मस्त है।
पहले गांव देहात में जब छोटे बच्चे बहुत चिल्लाते थे तो घर के बड़े बुजुर्ग उसके मुंह में थोड़ा अफीम चटा देते थे। बच्चा घंटों सोता रहता था।
आज इस अफीम का स्वरूप बदला हुआ है। बच्चा रो रहा है -स्मार्टफोन थमा दो। परेशान कर रहा है -मोबाइल थमा दो। बच्चा पांच छह साल का हो गया है और चैबीस घंटे वीडियो गेम से चिपका रहता है। मोबाइल छीनो तो चिल्लम पों! किसी डॉक्टर के पास इलाज नहीं। एक अलग ही पर्सनालिटी डिसाइडर का जन्म यहां हो चुका होता है -सौभाग्यवश माता-पिता इस ’अफीम चढ़ाव आदत’ के विरुद्ध कुछ रचनात्मक सोचने लगे तो गनीमत….!
एकल परिवार, दुर्भाग्यवश अधिकांश भारतीय दंपति अपने बच्चों की परवरिश इसी तरीके से कर रहे हैं।
शायद यही कलि-युग है, मशीन से घिरा मशीन का गुलाम। जब बाप महागुलाम तो बच्चा गुलामी करें- क्या आश्चर्य! बाप कहे -बहुत बढ़िया। ऑफिस के टेंशन से फुर्सत नहीं बच्चा कौन खिलाए। मां है ना दिन भर। अब मां को भी तो स्मार्टफोन चलाना है और टीवी में सीरियल (कातिल कैटरीना वाली) देखनी है।
यहीं पर एक कुशल चिकित्सक की तरह कथा की वाचन शैली पर ध्यान गया। कहते हैं संजीवनी भी आपके आंगन में है आसपास झाड़ झंखाड़ में छुपा -पर बाहर के ब्रांडेड टॉनिक पीने से फुर्सत मिले तो अपनी मिट्टी की गंध ली जाय…। खैर..।
ब्रह्मांड की उत्पत्ति -मानव की उत्पत्ति के बाद से ही मानव कथा शैली में अपनी संवेदनाएं, विचार संप्रेषित कर रहा है। ऐसा क्या हुआ कि आज बच्चे को कथा, गल्प, परी कथाएं सुनाने की जगह मोबाइल थमाया जा रहा है? अपनी अचूक विरासत से कटकर -यह किसी देश प्रदेश की बात नहीं है …..समस्त मानव संसाधन की बात हो रही है। कमोबेश सभी, मनुष्य की इस बुनियादी शक्ति से परे हो चुके हैं।
राम की कथा सबसे पहले शिव ने शक्ति को सुनाई -चोरी से कागभुशुंडी जी राम कथा सुनने लगा। फिर काकभुशुंडी ने धरती पर राम कथा का वाचन किया।
व्यास जी को महाभारत (जय विजय) लिखना था -परंतु उन्होंने लेखन के लिए श्री गणेश जी को यह कार्य सौंपा। श्री गणेश जी ने कथा सुनी और फिर अर्थ समझकर उसे लिपिबद्ध किया।
हमारे समस्त शास्त्र, वेद आदि, उपनिषद, आख्यान, पुराण इसी वाचन शैली में -यहां तक कि जैन व बौद्ध धर्म के समस्त साहित्य इसी शैली में लिखे गए हैं। (अपवाद छोड़ दें)
एक ने कथा दूसरे को सुनाई। दूसरे ने तीसरे को।
कहां थे अरबों-खरबों के प्रकाशक मैंक मिलन, पाॅन अमेरिका, पेंगुइन, कैंब्रिज……? हजारों वर्षों की कथाएं अक्षुण्ण हम तक पहुंच रही हैं। ताड़-पत्र में कहीं लेखबद्ध, भित्ति या दीवारों पर….., पर जो श्रुति हम तक पहुंची है, यह किसकी ताकत रही है ?
गल्प की ?
वाचिकता की ?
हजारों वर्षों से मानव डीएनए (जीन) में समाई वाचिक परंपरा अचानक से आउटडेटेड ?
प्राचीनतम सभ्यताओं के मिथक इसी शैली में आज तक प्रवाहित रहे हैं।
और हम ?
अपनी संजीवनी पर अपना पिछवाड़ा रख के बैठे हैं। उस तरफ ध्यान जाए तो कैसे!
आखिर क्यों इस कथा शैली (भूले-बिसरे) को याद करने की जहमत उठायी गयी। कारण है;
वैसे तो गद्य विद्या मानव कल्पना जागृत करने, विशेषकर गल्प की कोई भी शैली प्रभावशाली है, परंतु वाचन शैली में कही या सुनायी गयी कहानी का कोई जवाब नहीं।
कथावाचक कहता है -एक भव्य महल था। महल चारों ओर से अभेद दीवार से सुरक्षित। महल के आस-पास उतने ही सुंदर बाग बगीचे। हर द्वार पर ऊंचे कद के मुच्छड़ मुस्टंडे पहरा देते। महल का मालिक रोज शाम को अपनी बीवी के साथ संध्या भ्रमण को निकलता और चहचहाते पक्षियों और डूबते सूरज के अवसान का आनंद रस -पीता। ठीक इसी दृश्य को कथा लेखक (लेखक) अपने कैमरे की आंख से वर्णन करता है -शो डु ना टेल!
क्या महल है! वाह! इतना शानदार…..वह पहली दफा ऐसी भव्यता देख रहा है। उसकी आंखें फट पड़ी हैं -मुंह खुला। वह महल इस तरह देख रहा है मानो वह उसे पी जाएगा। काश! वह ऐसा कर पाता। आह। ये नजारे…. खुशबू बिखेरते ये गुलाब और चमेली…..,वो गेंदा वहां शरारत कर रहा है मानो! हवा के रुख को तो देखिए -इतना शरारती! वो रही इस भवन की मल्लिका, अपने शौहर के साथ इन खुशबूओं के इश्क में डूबी। शौहर डूबते सूरज की ओर देखते, मानो एक जीवन करवट लेता। तभी मुच्छड़ चैबदारों ने सलाम बजाया -खबरदार! सावधान! हुजूर की खिदमत में कदम बोसी….।
अंतर स्पष्ट है और बारीक भी। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह दूसरी टेक्निक उतनी ही प्रभावशाली होती है जितनी होनी चाहिए। इसके अपने गुण दोष हैं। यहां इनमें अंतर ढूंढना इस लेख का मकसद नहीं। मकसद है ये बताना कि कहन शैली की (वाचिकता क्यों और किसके लिए ?)
फिर भी, शो-वाली शैली में लेखक अपने साथ-साथ पाठकों को सीधे-सीधे अपने साथ ले चलता है। पाठक स्वयं अपनी आंखों से देखने लगता है। स्पर्श, सूंघना, चखना, सुनना सभी पांचों इंद्रिय जागृत हो जाती है। ’जागृत’ नहीं होती कथा का विवरण इन पंच-भूत-तत्वों को छूने लगती है। वह जो कहन शैली व श्रोता में एक स्पेस, दूरी वहां जो होती है, यहां ’शो शैली’ में चीजों से कोई दूरी नहीं होती। ’एक भव्य महल था’ की जगह ’क्या महल है’ वाह। इतना शानदार…।’
वह ऐसा नहीं लिखता -कि वह भव्य था।
बल्कि भव्यता के रूप बताने वाले चिन्हों, प्रतीकों, एक्सप्रेशन, इंप्रेशन के साथ चलता है। जैसे महल देखकर आंखें ’फट’ जाती है। मुंह खुला रह जाता है।
वह नहीं लिखता है कि फूल सुगंधित थे। दूसरी अभिव्यक्ति भिन्न तरीके से करेगा -जैसे उसकी धड़कनें जो इश्क में डूबी थी, इन खुशबुओं की बदौलत थी। या, बाग की खुशबू उसकी मोहब्बत की जुल्फों में कैद…! या, बादशाह ने एक गहरी सांस ली, खुशबू नाक ने नहीं पूरे जिस्म में महसूस की।
अब जरा उलटी दिशा में चलते हैं। पर, लगे हाथ एक और विशेषता का जिक्र कर दूं। शो (दिखाओ) की शैली वर्तमान काल में या भूतकाल में हो सकती है -’था’ है। ’है’ की शैली या वर्तमान काल में लिखी कहानियां लगभग फ्लॉप है, लोकप्रिय नहीं हो पायी। एकदम कलम को कैमरा बना देना फोकट-छाप भी हो सकती है। खैर, कहन-वाचिक शैली हमेशा भूतकाल में ही घटेगी। क्योंकि वाचक ने जो देखा है, वह आपको (श्रोता) को सुना रहा है।
चलिए अब मूल मुद्दे पर आते हैं।
वाचिक शैली ने इस धरती पर इतने वर्षों तक क्यों राज किया। शायद सहज प्रवाह के कारण ? मगर, जो आप सोच रहे हैं कि आधुनिक तकनीकी विकास (कलम-पिं्रट- कंप्यूटर) के कारण अभिव्यक्ति की शैली प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकती। मगर, क्या वैसी शैली जो हमारे जेहन, जीन की आत्मा बन चुकी है, किसी ’तकनीक’ नामक चीज़ के आ जाने से ’आत्मा’ खारिज ?
नहीं, किसी तकनीकी क्रांति में इतना सामथ्र्य नहीं क्योंकि जो प्रमाणिक, स्थापित है उसे क्या चुनौती ? कारण ? कारण है वाचन शैली की खूबियां -आप महसूस करते जाएं, थोड़ा खोपड़ा जलाइए, मतलब मथिए, चिंतन कीजिएगा-
वाचक ने कथा शुरू की -एक भव्य महल था।
श्रोता के दिमाग ने क्या कल्पना की -महल की। भव्य। और सवाल उठाए -कितना भव्य, राजाजी के धर्मशाला जैसा….., कितना ऊंचा…. कितने बुर्ज व कितनी मीनारें… किस पत्थर से बना…..। वगैरह….।
संभव है, कोई उत्सुक श्रोता पूछ बैठेगा -दादा! वह कितना भव्य था ? किसके जैसा…।
तो, सार क्या है -सार है मनुष्य (श्रोता) की कल्पना शक्ति जगाने की शक्ति! कलाएं इसलिए महान हैं कि वह मानव मस्तिष्क को पुष्ट, जागृत व शोधन-परिमार्जन करती हैं, बल्कि वो कलाओं की कला में जो विधा आपकी कल्पना शक्ति को ऊंचाइयां देती है विभिन्न आयामों से मिलती व खेलती हैं।
बहुत से पाठक जो क्रिकेट या हाॅकी की कमेंट्री टीवी आगमन से पूर्व रेडियो-ट्रांजिस्टर मैं सुना करते थे -उनसे पूछियेगा। कमेंट्री के साथ-साथ उनकी कल्पना शक्ति कितनी तेज सटीक रूप से एक्टिव रहा करती थी।
क्या इस वाचिक विधा ने एक कुंद मानव की रचना की, या उसकी मेधा को परिष्कृत किया ?
दूसरी ओर ’शो डू नॉट टेल’ -शो तो करता है -हमारी इंद्रियां पुष्ट होती हैं -हम ’फील’ ज्यादा करते हैं, लेकिन कल्पना शक्ति ?
पाठक स्वयं विचार कर लें!
प्रसंगवश बताना चाहूंगा कि ’शो’ टेक्निक महान चेखव की देन है, सारी दुनिया उनकी रचनाओं (कहानियों) के लिए (उन्होंने एक भी उपन्यास नहीं लिखा) जाने जाते हैं। इस तकनीक का दीवाना अमेरिका, लंदन (अंग्रेजी साहित्य) खूब है। कहानी का सदैव ’एक्शन’ में होना इसकी अनिवार्यता है। चेखव कहते थे -’मुझे चांद नहीं, टूटे शीशे में चांद का अक्स दिखा दो।’ (सुना दो या बता दो नहीं)
खैर,
जब सवाल साहित्य का हो रहा है तो साहित्य से नहीं, इस यथार्थवादी दुनिया, खासकर अमेरिकी बच्चे, अमेरिकी नागरिक बंदूक से खिलौने की तरह क्यों खेलते हैं ? सवाल तो बनता है।
क्योंकि बच्चे वीडियो देखते हैं परीकथा ’सुनते’ नहीं। शायद…..।
दुनिया में सबसे ज्यादा साहित्य- पुस्तकें पढ़ने वाले नागरिक सबसे असुरक्षित क्यों महसूस करते हैं ? क्या उनके पास ऐसा साहित्य है जो उन्हें भय मुक्त कर दे ? बावजूद, संसार की सारी सुविधाएं वहीं! है न विडंबना!
इस अमेरिकी उदाहरण की क्या आवश्यकता ?
आवश्यकता है -क्योंकि हमारी आबादी रहती तो भारतवर्ष में है मगर, सपने अमेरिका के देखती है। थोड़ा ठहरकर सोचना कोई गलत फैसला नहीं।
अंत में, एक निजी अनुभव,
पिता शाम को दफ्तर से घर लौटता है। गोदवाला शिशु पिता से चिपक जाता है। थोड़ी देर बाद वह पिता से जिद करता है और ’कानी-कानी’ की मांग करता है। पिता समझ जाता है -बच्चे को ’कहानी’ सुननी है। थोड़ी फुर्सत होते ही गोद में ही बच्ची को कहानी सुनायी जाती है। बच्ची अभी घुटनों के बल चलती है। बच्ची -मां का शब्द ही बोल पाती है। वह कैसे कहानी सुन पाएगी ? पर नहीं, वह सुनती है -पिता शब्दों के भाव सहित बिल्ली की कहानी सुनाते हैं।
एक थी बिल्ली।
हूं…।
बिल्ली बहुत चालाक थी।
हूं….।
बिल्ली रोज बाबू का दूध पी जाती थी।
हूं….।
और इस तरह कहानी आगे बढ़ती है। बच्ची का एक्सप्रेशन भी कहानी के साथ तारतम्य रखता है। जब अंत में ब्लैकी डॉग बिल्ली पर झपटता है तो बाबू भी कहानी के साथ लगभग हवा में झपट पड़ती है, मानो सामने बिल्ली हो।
बच्ची अपने भाव खूब व्यक्त करती है।
भाईजान! यह सिद्ध बात है किसी लैब में टेसिं्टग की मांग मत कहिएगा…..। मॉडर्न मेडिसिन वालों जैसा कि घास -पात से बीमारी कैसे ठीक हुई ? सिद्ध करो लैब टेसिं्टग दें।
भाईजान! तीन-चार-छह मास से छह साल तक के बच्चों को ’कानी’ सुनाइए। कहानी मत दिखाइए। जरा शिशु के साथ वक्त दीजिए -स्मार्टफोन की जरूरत नहीं पड़ेगी।