बस्तर की मशहूर ’चापड़ा चटनी’
पेड़ों पर मिलने वाली लाल रंग की चीटियां ’चापड़ा’ के नाम से जानी जाती हैं। ये चीटियां अपनी लार से पत्तों को आपस में चिपका कर अपना घर बनाती हैं। यह विशेषकर आम, जामुन, साल के वृक्ष में अपना घोंसला बनाती हैं। जिन पेड़ों में चैड़े पत्ते होते हैं, वहां कोमल टहनियों को भी जोड़कर घोंसला बनाती हैं। ये सावधानीपूर्वक पत्तों के किनारों पर लेप लगाती हैं और एक दूसरे को चिपका देती हैं। यह लेप बड़ा ही मजबूत होता है बरसात में घोंसले के अंदर पानी प्रवेश नहीं कर पाता है। पेड़ की शाखाओं पर पत्तों को जोड़कर चिपकाकर बनने वाले घोंसले को ’चापड़ागुड़ा कहा जाता है।
चापड़ा चटनी अब गांवों में ही नहीं वरन शहरों में बिकने लगी है। चापड़ा चटनी बड़ी ही स्वादिष्ट होती है। खाने का अलग ही आनंद होता है। वैसे चापड़ा चटनी नमक-मिर्च के साथ पीसकर बनायी जाती है। क्षेत्रियता के अनुसार अलग-अलग ढंग से चटनी बनायी जाती है।
लाल चींटियों से बनी चापड़ा चटनी में औषधीय गुण भी भरपूर होता है। चापड़ा चीटियां कई प्रकार की होती हैं। बस्तर के ग्रामीण क्षेत्रानुसार -लाल चाटी, भुरसी चाटी, करेया चाटी, तेल चाटी, डेंगी चाटी, चापड़ा चाटी, डेंगुर चाटी आदि नाम से जानते हैं।
चापड़ा चटनी बनाने के लिये सबसे पहले जंगल से चापड़ागुड़ा तलाशकर उसे किसी डण्डे की सहायता से एकत्रित कर, साथ ही चापड़ा के अंडे भी एकत्रित करते हैं। क्षेत्रियता के आधार पर एवं परम्परागत नियमानुसार चापड़ा की चटनी बनाने की विधि है। बस्तर के सुदूर ग्रामीण अंचल में एक गोलाकार मोटी लकड़ी के ऊपरी भाग को समान कर उसकी सतह पर एक बड़ा मोटा गोलाकर छेद किया जाता है। उस चैड़े छेद में चापड़ा चींटियों को डाल दिया जाता है। नमक और कच्ची मिर्च मिलाकर मूसलनुमा लकड़ी से कूट कूट कर चटनी तैयार की जाती है। आजकल आधुनिक परिवेश के अनुसार चटनी को और स्वादिष्ट बनाने के लिये धनिया, अदरक लहसुन एवं आवश्यकतानुसार गुड़ या शक्कर मिलाकर चापड़ा चटनी तैयार की जाती है। चापड़ा चटनी का स्वाद खट्टापन लिये होता है।
बस्तर के ग्रामीण क्षेत्र में मिलने वाले नशीले पेय ताड़ी रस, छिंद रस के अलावा लांदा, महुआ शराब के साथ चापड़ा चटनी को चखना के रूप में उपयोग किया जाता है।
इन चींटियों का प्रजननकाल अक्टूबर नवम्बर माह में होता है। लाल चींटियों का घोंसला अंडों से भरा होता है। जंगलों में मिलने वाली चापड़ा चींटी सिर्फ खानपान में ही उपयोग नहीं होती वरन् बस्तर के ग्रामीणों के लिये चिकित्सा का साधन भी है। ग्रामीणों का मानना है कि चापड़ा चटनी खाने से सेहत ठीक रहती है, साथ ही मान्यता है कि लाल चींटी चापड़ा से शरीर को कटवाने से बीमारी दूर हो जाती है।
एक वैज्ञानिक शोध के अनुसार लाल चींटियों चापड़ा के शरीर में फार्मिक एसिड पाया जाता है। इसके कारण शरीर के कटे हुये भाग में जलन पैदा होती है और वह ठीक हो जाता है। ग्रामीणों में ऐसी मान्यता है कि बुखार डेंगू, मलेरिया से पीड़ित व्यक्ति के खुले बदन चापड़ा चींटियों से कटवाया जाये तो वह स्वस्थ हो जाता है।
प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार बुखार पीड़ित एक ग्रामीण व्यक्ति को नंगे बदन पेड़ के नीचे ले जाकर चापड़ा चींटी के घोंसले के नीचे खड़े कर चापड़ा चींटी के घोंसले को बांस से फोड़ दिया गया। चींटियों का झुण्ड उसके शरीर को काटने लगा। वह व्यक्ति चुपचाप आंख मूंदकर शांत खड़ा रहा। थोड़ी देर बाद उस व्यक्ति का बुखार उतर गया। वह स्वस्थ हो गया। जिन लोगों को अक्सर पेट से संबंधित तकलीफ रहती है, उन लोगों को भी चापड़ा चटनी सेवन करने की सलाह दी जाती है। किसी कारण बुखार रहने पर मुंह का स्वाद चला जाता है उसे अक्सर चापड़ा चटनी का सेवन कराना लाभप्रद माना गया है।
बस्तर संभाग के बीजापुर जिले के मुरकीपार के युवक राजेश यालम ने बस्तर की चापड़ा चटनी के स्वाद को दिल्लीवासियों तक पहुंचा दिया है। दिल्ली के मेजर ध्यानचदं स्टेडियम में आदि महोत्सव में बस्तर का भी स्टाॅल लगा था। जिसमें बस्तर के महुये की चाय, चापड़ा की चटनी का दिल्ली के लोगों ने जमकर लुफ्त उठाया।
बस्तर के अलावा झारखण्ड के सुदेर अंचल में रहने वाले ग्रामीणों के लिये पसंदीदा व्यंजन है। यहां के सिमडेगा के आदिवासी लाल चींटियों को वरदान मानते हैं। उनके लिये यह पारम्परिक व्यंजन है।
इस तरह बस्तर के जंगलों में पायी जाने वाली लाल चींटी, जिसे चापड़ा चाटी कहा जाता है, यह मात्र चटनी या व्यंजन नहीं वरन् औषधी गुणों से भरपूर है। पेंडेंट, चोकर्स और chain necklace जैसे लोकप्रिय महिलाओं के हार की पेशकश। किसी भी अवसर के अनुरूप विभिन्न प्रकार की धातुओं और रत्नों से बने आभूषणों की खरीदारी करें
अब तो बस्तर आने वाले पर्यटक भी चापड़ा चटनी और सलफी का आनंद लेने लगे हैं।
नरेन्द्र पाढ़ी
पथरागुड़ा, जगदलपुर
मो.-7879375099