पाठकों की चौपाल अंक-29-38

सम्पादक महोदय
बहुत दिनों से बल्कि यूं लगता है कि कई वर्षों से ’बस्तर पाति’ पत्रिका प्राप्त नहीं हो रही है, क्या पत्रिका प्रकाशन बंद कर दिया गया है ? आपकी पत्रिका ने तो काफी कम समय में ही हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। श्रेष्ठ पठन सामग्र्री और देश भर के लेखकों को लेकर आने पत्रिका को महत्वपूर्ण बनाया था। कोरोना के बुरे दौर में सभी ने दुःस्वप्न की तरह किसी तरह अपना वक्त बिताया, पर अब समय पुनः पुराने समय की ओर चल पड़ा है, आपसे निवेदन है कि अपनी पत्रिका का पुनः प्रकाशन करें। इस हेतु किसी भी प्रकार की आर्थिक मदद की आवश्यकता होने पर अवश्य संपर्क करें। बस्तर की साहित्यिक पहचान बस्तर पाति का पुनःप्रकाशन अत्यंत आवश्यक है। अपेक्षा रखता हूं कि आप मेरे निवेदन पर अवश्य ही ध्यान देंगे।
शेष शुभ और शुभ की कामना रखते हुये।
बी. एन. आर. नायडू, जगदलपुर

आदरणीय सर, सादर चरण स्पर्श
सर, आपने एक घोर शुभचिंतक भांति बस्तर पाति के संबंध में जानकारी चाही है। आपका पत्र यूं पाना भावविभोर कर दिया है। आप जैसे पाठक ही एक पत्रिका की संास होते हैं। आपने पत्रिका के संपादक को बताया कि आज भी पत्रिका के चाहने वाले जन हैं जो आज भी इंतजार कर रहे हैं कि बस्तर पाति पत्रिका प्राप्त हो।
आदरणीय सर, वास्तव में पत्रिका प्रकाशन एक बेहद कठिन कार्य है। बाहर से यंू प्रतीत होता है मानों चुटकी बजाते ही ये काम सम्पन्न हो जाता है। परन्तु हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन बेहद कठिन कार्य है। और फिर साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन तो…….और ज्यादा कठिन।
इस कार्य में कई समस्याएं हैं जिनमें से कुछ प्रमुख हैं अर्थ, श्रेष्ठ रचना प्राप्त करना, पत्रिका की त्रुटिरहित टाइपिंग और लेखक तक पत्रिका का पहुंचाना। इन चार मुख्य विषयों पर अनेक पृष्ठ लिख कर विस्तार दिया जा सकता है। पर जरा ही विस्तार से कहना चाहूंगा।
पहली मुख्य समस्या है अर्थ! पत्रिका प्रिन्टिग का मूल्य लगभग डबल हो गया है। पहले तीस हजार लगते थे अब लगभग साठ हजार का खर्च होता है। वितरण में डाक खर्च अलग। टाइपिंग चार्ज डबल से तिगुना हो गया है। बाजार में एडिटिंग चार्ज प्रति पेज लगभग पचास रूपये हो गया है। कब तक कोई व्यक्ति अपने धन से ये कार्य निर्विध्न कर सकता है। वैसे भी कोरोना ने सबकी कमर ही तोड़ दी है। अपने खर्च ही पूरे नहीं होते हैं।
और फिर हिन्दी साहित्यिक पत्रिका का तो भगवान ही मालिक होता है। न तो कोई ग्राहक बनता है न ही कोई खरीद कर पढ़ना चाहता है। परन्तु पत्रिका सबको चाहिये। 2013 से प्रकाशन आरम्भ हुआ और वर्तमान तक मुश्किल से लगभग अस्सी ग्राहक बने वो भी वार्षिक चालीस और पांच वर्षीय चालीस! यानी कुल कलेक्शन हुुआ 24000 रूपये के आसपास। आजतक के पत्रिका वितरण का डाक खर्च ही इससे कई गुना है।
मजे की बात है कि एक दो पंचवर्षिय ग्राहक आज भी पूछते हैं कि हमारे सदस्यताशुल्क का क्या हुआ। धन्य हैं हिन्दी पाठक। जबकि मैं स्वयं ही लगभग हर प्रमुख पत्रिका का आजीवन सदस्य हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि पत्रिका प्रकाशन कितना मुश्किल भरा काम है। कुछ समय पूर्व एक लेखक महोदय का फोन आया था उन्होंने बताया कि जिन पत्रिकाओं में मानदेय मिलता है मैं सिर्फ उसमें ही रचना भेजता हूं। अन्य पत्रिकाओं में कौन रचना भेजे आखिर हमारी मेहनत का कुछ मूल्य होना ही चाहिये।
जबकि ऐसे कुछ लेखकों की रचनाओं को मैंने पढ़ा है न तो रचना में दम होता है न ही कुछ विशेषता होती है मात्र संबंधों के निर्वहन से वे बतौर लेखक स्थापित हैं। ऐसी श्रेष्ठ रचनाओं की बस्तर पाति को आवश्यकता भी नहीं है परनतु विचारणीय तथ्य यह है कि हिन्दी साहित्य की क्या स्थिति है। एक ओर अनेक लेखक ऐसे भी हैं जिनकी श्रेष्ठ रचनाओं को पत्रिकाओं में स्थान ही नहीं मिला है। तथाकथित जुगाडू लेखक और लेखक को मानदेय देने वाली पत्रिकाओं (अधिकतर सरकारीं) के कर्ता धर्ता (सम्पादक कहना अपमान होगा) अपना एक समूह बना रखे हैं और खुलेआम शासकीय धन का हरण करते हैं।
श्रेष्ठ रचनाओं के लेखकों तक पहुंच बनाना बेहद कठिन है। अगर मिलते थी हैं तो उनमें से कुछ सिर्फ नामचीन पत्रिकाओं को ही रचनाएं देना चाहते हैं, और कुछ लेखकों से संपर्क करते रहिये वे आपकों समय देे रहेंगे आप इंतजार करते रहिये।
ज्यादातर लेखक मात्र खांचाबद्ध लेखन करते हैं। एक जैसी रचना, एक ही पैटर्न की रचना। कुछ सिर्फ और सिर्फ धार्मिक उपदेशात्मक लेखन करते हैं। लेखकों वर्तमान भीड़ में लगभग नब्बे पिच्यानबै प्रतिशत तो सिर्फ काव्य लेखन ही करते हैं। बचे हुये लेखक ही गद्य लेखक हैं। उनमें से कुछ एजेण्डाबद्ध लेखन करते हैं जिसे वर्तमान में प्रगतिशील लेखन कहा जाता है। इस लेखन में पहले से मान लिया जाता है कि किसान बेचारा है, दलित बेचारा है, सवर्ण शोषक है, हिन्दू धर्म आडम्बरवादी धर्म है। रूका हुआ है। सत्ता के विरोध में लिखना है, नारी दमित है, पुरूष अत्याचारी है, पुराना भारत पिछड़ा और अविकसित था, विदेशों में ही विद्वान पाये जाते हैं। ये नेरेटीव ऐसे थोप दिये गये हैं कि सनातन सत्य की भांति साहित्यिक समाज में स्थापित हो गये हैं। बहुत से लेखक इन सीमाओं से बाहर ही नहीं आ पा रहे हैं उन्हें भय है कि अगर वे इससे बाहर गये तो उनके नाम के सामने से लेखक का तमगा ही हट जायेगा।
ऐसे लेखकों की रचनाओं को प्रकाशित करना यानी कूड़े के ढेर में और कचरा फेंकना।
भारतीय समाज के वैज्ञानिक विश्लेषण से पूरित रचनाओं का नितांत अकाल है। धर्म को एकदम थोपने या फिर एकदम अछूत मानने के सीमाओं से कम की रचनाएं क्यों नहीं मिलती हैं ?
खैर! पत्रिका प्रकाशन में टाइपिंग करवाना और वो भी त्रुटिहीन लगभग असंभव कार्य है। टाइपिंग करने वाले इस तरह गलत टाइप करते हैं कि वो पढ़ते वक्त एकदम से निकल जाता है। शब्दज्ञान न होने के कारण उनसे सुधार की गुंजाइश ही नहीं होती है।
और यदि ये सभी काम स्वयं कोई करे तो उसका जीवन इनमें ही विलिन हो जायेगा। वह अपने परिवार का भरण पोषण किस तरह करेगा।
अतः पत्रिका प्रकाशन शौकिया हो सकता है परन्तु निरंतर और निर्विघ्न होना असंभव है।
बस्तर पाति की अनिरन्तरता का यही कारण है।
सम्पादक बस्तर पाति

 

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