23 जुलाई 2016
हर पत्ते, दरख़्त, जर्रे-जर्रे में तुझे पाता हूँ,
अहसास की ये कैसी खुशफहमी है,
कभी तस्वीर से निकलकर सामने तो आ,
देख तेरे सजदे में कैसे सर झुकाता हूँ।
खोने का डर (11 जून 2016)
एक मुद्दत हुई कलम से कागज़ पर
कोई पूरा पैराग्राफ लिखे हुए,
मुझे डर है, कहीं अपनी लिखावट न खो दूं।
जब से चला है की-बोर्ड जर्नलिज्म का दौर,
हाथों से लिखना कम हो गया है।
डायरी में नोट भी करता हूँ, तो लगता है
जैसे बस कंडक्टर ने टिकट काटा हो।
आजू-बाजू में बैठे लोग समझते हैं,
बंदा जरूर शार्ट हैण्ड में कुछ लिख रहा है,
पर अपने को पता है,
डॉक्टर का लिखा केवल
मेडिकल स्टोर वाला पढ़ सकता है,
लेकिन रिपोर्टर के लिए
पीसी में लिखी खुद की राइटिंग को
बाद में पढ़ना,
कितना मुश्किल होता है।
यह ठीक वैसा ही है,
जैसे तेज रफ़्तार दुनिया में
पैदल चलने का हुनर भूलना।
महंगाई के छंद
डिजीटल इंडिया जरूर लाइए,
लेकिन डाटा पैक के दाम मत बढ़ाइए।
तकलीफ होती है, फेसबुक, वाट्सअप चलाने में,
प्लीज थोड़ा तो इंटरनेट को सस्ता कर दीजिए।
पेट्रोल के दाम और घटाइए,
मगर केरोसिन जरूर समय पर दिलाइए।
महंगा हो गया है चूल्हे को सुलगाए रखना,
प्लीज रसोई गैस के दाम मत बढ़ाइए।।
गरीब को भी मिले कटोरी भर दाल,
कसम है आपको महंगाई की दुकान की,
प्लीज महंगाई डायन को कुछ तो कंट्रोल में कीजिए।
श्री शैलेन्द्र ठाकुर
की वॉल से