लघुकथा-वर्षा रावल

दो आँखें…
’’माँ, मैं अगले माह आ जाऊँ क्या ? डिलिवरी यहां सम्भव नहीं लग रही, और…और राजेश को मालिक ने दो माह से तनख्वाह भी नहीं दी।’’ टीना ने हिचकते हुए माँ को फोन पर कहा।
‘‘अरे नहीं! नहीं टीना बिलकुल सम्भव नहीं। तुम तो जानती हो मेरी और तुम्हारे पापा की तबियत खराब रहती है, घर में नई बहू है, उससे तो काम होगा नहीं। हम आएँगे न बच्चे को देखने….।’’
टीना का गला रुंध गया, सिर्फ इसलिए कि मैंने रूपये पैसे वाले से शादी नहीं की, उनकी मर्ज़ी के खिलाफ प्रेम विवाह किया। दौड़ पड़ी और बिस्तर पर फफक-फफक कर रोने लगी। बात साफ थी मायके से कोई उम्मीद नहीं। तीन दिन बाद हुआ ये….!
ट्रिन ट्रिन ट्रिन..‘‘हेलो, टीना कैसी हो मेरी छोटी बहना ?’’
‘‘ओह दी आप! आप कैसी हैं ?’’
‘‘पहले तू बता तेरा तो टाइम हो गया होगा न ?, क्या ला रही है मेरे बिट्टू की बहन या भाई ?बोल न..!’’
’’अरे दी आप भी न…….।’’
‘‘टीना! हम लोग अगले माह माँ के पास जा रहे हैं तू भी आ जा। मैं तो हूँ ही, तू चिंता मत कर डिलेवरी हो जाएगी। माँ का फोन आया था कुछ दिनों पहले, अपने अफसर दामाद की धौंस देना चाहती हैं सबके सामने, हम लोगों को बुलाया है। पूरे एक माह रहने वाले हैं हम, खूब एन्जॉय करेंगे…।’’रीना के शब्द टीना की सिसकियों में घुलते जा रहे थे….जैसे तैसे कह पाई।
‘‘दी! कोशिश करती हूँ। पर बहुत मुश्किल है….।’’माँ की बात याद आई टीना को …..तुम दोनों मेरी दो बेटियां नहीं मेरी दो आँखे हो….।
आशीर्वाद
बगल वाले घर से बहस की तेज आवाज़ें आ रही थीं, जिसमें स्पष्ट सुनाई पड़ रहा था कि सुबह-सुबह पत्नी अपनी सासू माँ पर बरस रही थी। पति महोदय भी पतिधर्म का पालन करते पत्नी का पक्ष लेकर माँ से झगड़ रहे थे। माँ धीमे स्वर में स्पष्टीकरण दे रही थी। बच्चे को लेकर उठी इस बात में बहस चरम पर थी। बेपरवाह था तो वो बच्चा जिसकी वजह से दादी पर बन आई थी। तभी मेरी नज़र उस घर के पोर्च पर रखी कार पर पड़ी, जिस पर लिखा था।
‘माँ तेरा आशीर्वाद’


वर्षा रावल
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रायपुर, छ.ग.
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