लघुकथा-मनजीत शर्मा मीरा

सुबह का भूखा: दो बिम्ब

सोनू-’’मां रोटी दे…बहुत भूख लगी है।’’
मां-’’नासपीटे, तुझे सुबह-सुबह ही भूख लग गई। ले बोरी पकड़ और कचरे से कागज बीन ला।’’
सोनू-’’मां दोपहर हो गई है। भूख के मारे दम निकला जा रहा है।’’
मां-’’तेरे पेट में बहुत आग लगी
है रोटी खाने की तो जा सामने नल से पानी पीकर बुझा ले अपनी आग। तेरा बाप कुछ कमा कर लायेगा तभी तो जलेगा चूल्हा।’’
सोनू-‘‘मां, अब तो शाम हो गई। बापू अभी तक नहीं आया। सुबह से मैंने कुछ भी नहीं खाया।’’
मां-‘‘दो घण्टे और रूक जायेगा तो मर नहीं जायेगा। बैठा होगा तेरा बापू किसी शराब के ठेके पर। जब तक सारी कमाई उड़ा नहीं लेगा, घर नहीं पलटेगा। रोज रोटी खाकर ही तो सोता है तू…।’’
सोनू-‘‘मां, सब लोग तो तीन वक्त रोटी खाते हैं और हम एक वक्त….दिन भर भूखा रहता हूं मैं।’’
मां-’’औरों की छोड़। हम गरीबों को तो अगर एक वक्त भी रोटी नसीब हो जाये तो उसे भूखा रहना नहीं कहते।’’
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मम्मी-‘‘ऐनी खाना खा ले…।’’
ऐनी-‘‘नहीं मम्मी….।’’
मम्मी-‘‘बेटा, तूने सुबह से कुछ भी नहीं खाया। ले थोड़ा दूध पी ले…फल खा ले। दोपहर होने को आ गई…।’’
ऐनी-‘‘मम्मी तंग मत करो….पढ़ने दो। शाम को खा लूंगा।’’
मम्मी-‘‘ऐनी, तूने सुबह से कुछ नहीं खाया। तेरे डैडी ने ऑफिस से तेरे लिए पिज्जा आर्डर किया था। ले, एक पीस अपना मनपसंद पिज्जा ही खा ले। मुझे पता है कि तू भूखा होगा।’’
ऐनी-‘‘मम्मी, सुबह का भूखा अगर शाम हो खाना खा ले तो उसे भूखा नहीं कहते।’’


मनजीत शर्मा ‘मीरा’
1192-बी, सेक्टर 41-बी, चंडीगढ़
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