लघुकथा-उषा अग्रवाल

मिस-कॉल


आज भी अहमदाबाद एक्सप्रेस आंखों के सामने से छूटी जा रही थी, अगली टेªन अब दो घंटे बाद थी। घर पहुंचते काफी रात हो जाती। पता नहीं क्यों, आजकल स्टेशन में टेªनों का समय नहीं बताते, शायद पूछताछ करने वाले बार-बार पूछ कर परेशान करते हैं। इसलिए बड़े शहरों में तो कम्प्यूटराइज सेवा होती है, गाड़ी नंबर डायल करो और समय पता कर लो।
बच्चों की आगे की पढ़ाई के लिए नागपुर में शिफ्ट होना पड़ा। अब रोज सुबह नागपुर से गोंदिया और शाम गोंदिया से नागपुर, साथ में दो-तीन मित्र भी रहते तो बोरियत महसूस नहीं होती थी। सरकारी नौकरी, समय से पहले ड्यूटी छोड़कर भाग भी नहीं सकते। न जाने कब किसकी नजर पड़ जाए। सारी जिंदगी सिद्धांतों पर चलकर ईमानदारी से फर्ज निभाया है तो अब क्यों किसी की सुनें।
अगले दिन गाड़ी आने के समय से कुछ पहले पहुंच गए हम लोग। डिब्बा नंबर पांच में चढ़कर, आराम से बैठकर यही बात कर रहे थे कि रोज इस टेªन को पकड़ने के लिए समय कैसे पता किया जाए। क्योंकि, टेªन कभी बिल्कुल सही समय से चलती है तो कभी लेट लतीफ। सामने बैठी दो युवतियों में से एक युवती, जो हमारी बात ध्यान से सुन रही थी, मेरी नजर पड़ते ही झंेप गई और नजरें चुराने का प्रयास करने लगी। मैंने उसकी झेंप मिटाने बातचीत की पहल करते पूछा-‘‘मैडम आप लोग कहां से बैठे है ?’’ तो उसने बताया कि गांेदिया से पहले आने वाला स्टेशन आमगाँव। वह वहीं रजिस्ट्रार ऑफिस में नौकरी करती है और रोज इसी टेªन से वापस नागपुर जाती है, साथ में उसकी सहेली भी वहीं किसी दूसरे ऑफिस में काम करती है।
दो घंटे के सफर में वह हमसे खुल गई और मामूली परिचय के बाद जाते-जाते उसे कहा कि आमगांव में गाड़ी का समय बता देते है। आमगांव से गांेदिया आने में करीब बीस मिनट लगते हैं, तो कल जैसे ही आमगंाव से गाड़ी छूटेगी मैं आपमें से किसी के भी मोबाईल में मिस-कॉल कर दूंगी। तय हुआ कि वह मेरे मोबाईल में मिस कॉल किया करेगी।
दूसरे दिन सुबह जाते समय स्टेशन पर जैसे ही वह दिखी, मुस्कुराकर उसने हलो कहा और हम सब साथ ही चढ़ गए डिब्बे में, संयोग से आज भी सामने पड़ने वाला डिब्बा, डिब्बा नंबर पांच ही था। उसने अपना नाम नैना बताया था।
शाम को चार बजते ही मोबाईल में घंटी बजने लगी। नैना का मिस-कॉल था। स्टेशन पहुंचने के कुछ देर बाद गाड़ी सामने से आ रही थी। कदम अपने आप पांच नंबर की ओर बढ़ चले, साथ हंसते-हंसते सफर कब खत्म हो गया, पता ही न चला।
अब तो रोज का नियम बन गया था। हम सभी दोस्त, नैना और उसकी सहेली डिब्बा नंबर पांच के साथ ही जाते, चाहे पहले कोई भी पहुंचता सामने दो, तीन सीट रोक लेता। चार बजते ही मोबाईल की घंटी पर ध्यान लग जाता, कभी गाड़ी लेट होती तो ध्यान वहीं लगा रहता। किसी दिन नैना छुट्टी पर होती तो बता दिया करती कि मैं नहीं आऊंगी, मेरे कॉल का रास्ता मत देखना, परन्तु उसके मिस-कॉल की आदत पड़ चुकी थी। चार बजते ही ध्यान अपने आप उधर चला जाता अैर फिर याद आता कि आज नैना नहीं आएगी, खुद ही समय पता करना होगा।
ऐसे ही सफर करते-करते दिन-महीने में बीतते जा रहे थे। अचानक नैना ने बताया कि उसका तबादला नागपुर हो गया है, अब उसे आना-जाना नहीं करना पड़ेगा। उसकी आँखों से छलकती खुशी स्पष्ट नजर आ रही थी कि वह अब अपने परिवार के पास ज्यादा समय रह पाएगी, उन्हें ज्यादा समय दे पाएगी। मेरे दोस्तों को और मुझे फिर यह चिंता सताने लगी कि अब गाड़ी का समय कैसे पता चलेगा।
काम करते समय का पता न चला, दिन बीत चुका था। चार भी बजने वाले थे, रोज की तरह मोबाईल की घंटी पर ध्यान लगा था कि याद आया, आज नैना का मिस-कॉल नहीं आएगा। आज क्या, अब कभी भी नहीं आएगा। यही सोचते-सोचते निकल पड़ी स्टेशन की ओर। मित्रों को आज और कुछ काम था, अंतः वे बाद की गाड़ी से आने वाले थे। गाड़ी हमेशा की तरह अपनी रफ्तार से चली आ रही थी, पर मेरा ध्यान कहीं और था। डिब्बा नंबर एक, दो, तीन, चार और पांच भी सामने से आ रहा था। एक ठंडी सांस भरते अचानक नजर आसमान पर पड़ी। बादलों का झुंड इधर से उधर मंडरा रहा था, हल्की मुस्कान होठों पर तैर आई, भला बादल भी किसी के लिए रूकते हैं लुप्त हो जाते हैं तन-मन को ठंडक देकर, या सूरज की हल्की तपन या सप्तरंगी इन्द्रधनुष में बदल क्षण भर में सबका मन लुभा जाते है। वह भी तो बदली का एक टुकड़ा थी, आई और चली गई।
गाड़ी का अंतिम डिब्बा सामने आ रहा था, मैंने लपककर उसे पकड़ा और चल पड़ा अपने सफर को आगे बढ़ाने, मंजिल की ओर…..।


श्रीमती उषा अग्रवाल
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