लघुकथा-डॉ साजिद खान

मीडिया के लोग


मंत्री जी मंच पर पहुँच चुके थे । अच्छी-ख़ासी भीड़ भी इकट्ठा हो गई थी। पर वह किसी परेशानी में थे। उनकी बेचैन निगाहें जाने किन्हें ढूँढ रही थीं। वह बार-बार इधर-उधर देखते, फिर ठण्डी साँस लेकर कंधे ढीले छोड़ देते।
एक चेले ने कहा-‘‘मंत्री जी, अब भाषण शुरू कीजिए। भीड़ इकट्ठा हो गई है। शहर के बुद्धिजीवी, गणमान्य लोग आ चुके हैं।’’
‘‘अबे चुपकर..!’’ इससे पहले वह पूरी बात बोल पाता, मंत्री जी भौंहंे सिकोड़ते हुए बोले-‘‘गणमान्य लोगों का क्या अचार डालना है ? अभी अपने लोग कहाँ आए हैं !’’
‘‘ज..जी, अपने लोग ?’’
‘‘अरे! मीडिया के लोग!’’
‘‘वो तो सामने बैठे हैं।’’
मंत्री जी ने धीरे से उसे समझाते हुए कहा-‘‘ये सामने बैठे दोनों प्रेस-रिर्पाेटर अपने नहीं हैं। यह कल की न्यूज़ में बस इतना ही तो देंगे कि मंत्री जी ने अमुक स्थान पर जनता को संबोधित किया ? पर अपने लोग अच्छी कवरेज देंगे। आख़िर उन प्रतिष्ठित पत्रों के प्रेस-रिपोर्टरों पर मैं कितना ख़र्च करता हूँ, क्या तुम्हें नहीं पता?’’
इतना कहते-कहते मंत्री जी की बाछें खिल गईं, क्योंकि उनके लोग आ गए थे । वह फटाफट अपना भाषण देने के लिए माईक थामकर खड़े हो गए-‘‘देवियों-सज्जनों, शहर के गणमान्य लोग, मीडिया से आए हमारे मेहमान…।’’

नए संस्कार


चूँकि आज अलका के रिश्ते के सिलसिले में कुछ लोग आने वाले थे, इसलिए घर के सबसे बुज़ुर्ग दादी-दादा को आँगन के उस ओर वाले कमरे में फ़ालतू सामान की तरह छिपा दिया गया था ।
‘‘अच्छा तो नहीं लग रहा, पर उन्हें किनारे वाले कमरे में शिफ़्ट करके आपने बहुत ही अच्छा किया।’’ श्रीमती जी ने साड़ी का पल्लू सही करते हुए कहा-‘‘पिताजी को भी बोलने की कुछ ज़्यादा ही आदत है। सभी को पुराने ज़माने के आदर्श बताने लगते हैं। आख़िर अलका के रिश्ते की बात है। कहीं कुछ उल्टा-सीध बोल गए तो!’’
श्रीमान जी ने न चाहते हुए भी पत्नी की बातों का समर्थन करते हुए कहा-‘‘इसीलिए तो मैंने सबकुछ पहले ही सेट कर दिया है। पिताजी को भनक तक नहीं लगेगी कि घर में कौन आया है। माता जी वैसे भी पीठ-दर्द से चल-फिर नहीं पातीं।’’
थोड़ी ही देर बाद मेहमानों का काफ़िला आ धमका। औरत-मर्द-बच्चे मिलाकर कुल ग्यारह लोग। पर श्रीमान जी के ऊपर क्या फ़र्क़ पड़ने वाला था। रजिस्ट्री ऑफ़िस में नौकरी थी- कोई तंगहाली तो थी नहीं।
अभी बातचीत का सिलसिला चल ही रहा था कि अलका का छोटा भाई, जो आठवीं क्लास में था, किसी का पाकेट-पर्स लिए कमरे में आ गया।
श्रीमान जी की भौहें तन गईं-‘‘कहाँ से लाया यह ?’’
टिंकू ने सहजता से जवाब दिया-‘‘वह सुबह जो अंकल आए थे न ? जब वह मुँह-हाथ धोने के लिए गए थे, तभी मैंने इसे उठा लिया था। मेरे ख़र्च भर के इसमें काफ़ी रूपए हैं।’’
टिंकू की बात सुन श्रीमती जी ने मेहमानों की ओर उन्मुख होकर, बात को सँभालते हुए, सहजता से कहा-‘‘देखा भाई साहब, हमारे घर के बच्चे कभी झूठ नहीं बोलते।’’ उन्होंने सबका समर्थन लेने वाली दृष्टि चारों ओर दौड़ाते हुए कहा-‘‘भाभी जी, अब आप ही बताइए कि अगर मेरा टिंकू झूठ बोल देता, या फिर यह पर्स कहीं छिपा लेता, तो क्या मैं जान पाती ?’’
श्रीमती जी के तर्क से सभी चकित थे ।
लड़के की माँ ने तपाक से कहा-‘‘वाह बहन जी, आपने तो अच्छे संस्कार दिए हैं बच्चों को।’’ उन्होंने चहकते हुए कहा-‘‘मेरा रवि भी झूठ-फ़रेब से दूर ही रहता है। ऑफ़िस में कोई भी आता है, उससे काम के पैसे पहले ही बता देता है । और फिर अपने वायदे से कभी मुकरता भी नहीं । जिससे पैसा ले लिया, समझो उसका काम हो गया !’’
दोनों परिवारों के विचार मेल खा रहे थे, इसलिए रिश्ता तय हो गया था ।
दूर कोने के कमरे में बैठे दादा जी अलका को अब तक चौथी बार आवाज़ लगा चुके थे कि वह उन्हें बैठक में रखी मानस दे जाए ।


डॉ0 मोहम्मद साजिद ख़ान
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, जी.एफ़.(पी. जी.) कॉलेज, शाहजहाँपुर
-242001 (उ0 प्र0)
मो.- 09450303696
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