एक मुलाकात-कृष्ण शुक्ल

‘एक मुलाकात’ व ‘परिचय’ श्रृंखला में इस पिछड़े क्षेत्र बस्तर से जुड़े हुए और क्षेत्र के लिए रचनात्मक योगदान करने वाले व्यक्ति के साथ बातचीत, उनकी रचनाएं, रचनाओं की समीक्षा और उनके फोटोग्राफ अपने पाठकों के साथ साझा करेंगे।
कृष्ण शुक्ल बस्तर क्षेत्र का वो नाम है जो अपने समय में बहुत चमका और वर्तमान में लगभग गुम हो गया। यह हमारे क्षेत्र के वर्तमान साहित्यकारों की कमजोरी ही मानी जायेगी जो अपने अग्रजों का काम और नाम भी सहेज न पाये। देश के प्रत्येक हिस्से में वहां के साहित्यकारों का साहित्य सहेजा जा रहा है, उन साहित्यकारों के नाम पर पुरूस्कार आरंभ किये गये हैं जिनके माध्यम से उन साहित्यकारों का नाम वर्तमान पीढ़ी के सामने है। खैर! ये शायद समय का ही दोष माना जा सकता है, वर्तमान तो दूसरों की लाश पर खुद को स्थापित करने वाला है।
कृष्ण शुक्ल जी वो व्यक्ति हैं जो किसी नाम की चाहत में अपना रचनाकर्म नहीं करते बल्कि समाज को और स्वयं को दिशा देने में रचनारत रहते हैं। बगैर मोह माया के एक साधु की तरह, एक योगी की तरह। हमारी वर्तमान पीढ़ी को यह ही नहीं मालूम था कि हमारे ही छोटे शहर में एक ऐसा कहानीकार मौजूद है जो हमारे दुर्गम क्षेत्र से बैलगाड़ी युग में अपनी कहानियों को देश भर की समस्त पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा कर अपना लोहा मनवा चुका था। उनकी कहानियां उस वक्त की श्रेष्ठ पत्रिकाओं कादिम्बनी, सारिका आदि में प्रकाशित हो चुकी थीं। उनके बारे में लगातार खोजबीन करते हुए पता चला कि वे तो मेरे घर से जरा सी दूरी पर ही रहते हैं। यह जानकर और भी दुख हुआ। न जाने कितने ही साहित्यकारों से लगातार बातें होती रहीं पर किसी ने न बताया उनके बारे में न ही उनके मित्रों ने न ही मेरे मित्रों ने। साहित्य की इस वर्तमान बेरूखी और बेदर्दी का यह साक्षात दर्शन साहित्य के भविष्य की भयावह तस्वीर दिखाता है। उस तस्वीर में कोई पुराना नहीं है सब के सब नये चेहरे हैं। कृष्ण शुक्ल जी का संकोची स्वाभाव और लाइमलाइट से दूर रहने की चाहत के चलते वे बस्तर पाति के सातवें अंक बदले नौवें अंक में आ पाये हैं। उनका साहित्य के प्रति समर्पण देखिए, उनके पास अनेक साहित्यकारों की तस्वीरें हैं परन्तु खुद की एक भी नहीं है। उनके पास पुराने जमाने की यादों का जखीरा है। पुराने साहित्यकारों बस्तर की सांस्कृतिक धरोहर लाला जगदलपुरी, डॉ. धनंजय वर्मा, कहानीकार शानी, समरलोक पत्रिका की सम्पादिका मेहरूनिन्सा परवेज़, ग़ज़लकार रऊफ परवेज़, लक्ष्मीचंद जैन, पूर्णचंद्र रथ आदि प्रसिद्ध लोग तो हैं ही इसके अलावा भी अनेक साहित्य प्रेमियों की सूची दिमाग में संलग्न है। सूची के साथ उनके साथ बिताये गये वक्त की ताजा यादों की खुशबू फैल जाती है। आइये हम उनसे कुछ प्रश्नों के उत्तर जानने के बहाने उनसे बातें कर नजदीक बैठने की कोशिश करते हैं।
सनत जैन-हिन्दी का पाठक पत्रिका/पुस्तक क्यों नहीं खरीदता है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसकी पसंद के विपरीत सामग्री जबरन परोसी जा रही है ? मोटे उपन्यास जिन्हें लुगदी साहित्य कहा जाता है वे तो बहुत बिकते हैं।
कृष्ण शुक्ल-आज का युग कम्प्यूटर एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया से अधिक जुड़ा हुआ है। पाठक के पास समयाभाव के कारण पढ़ने में रूचि कम होती जा रही है। रही बात मोटे उपन्यासों की तो वह लाइब्रेरी में ही जमा होकर रह रहे हैं। प्रारंभ से बच्चों की शिक्षा अंग्रेजी मीडियम से होने के कारण भी हिन्दी के साहित्य एवं पत्रिकाओं में रूचि किशोरावस्था से कम होती जा रही है।
सनत जैन-प्रकाशक अपनी पत्रिका का खर्च कैसे निकाले ? वास्तविक पाठक तक कैसे पहुंचे ? उन्हें कैसे जोड़ें ?
कृष्ण शुक्ल-पूर्व काल में धर्मयुग, सारिका, कहानी, नई कहानियां, नई सदी आदि पत्रिकाओं के पाठक थे अतः बेचने के बाद बुक सेलर पैसे भी भिजवाता था। वर्तमान में पाठक तक पहुंचना एक टेढ़ी खीर है।
सनत जैन-वर्तमान साहित्य परिदृश्य के बारे में टिप्पणी।
कृष्ण शुक्ल-कुछ लेखक तो मोबाइल में ही अपनी रचना उकेरने लगे हैं।
सनत जैन-हिन्दी लेखन में पाठकों की कमी का क्या कारण नजर आता है ?
कृष्ण शुक्ल-सही है हिन्दी के पाठकों की संख्या वर्तमान में सीमित होती जा रही है। प्रारंभिक शिक्षा अंग्रेजी में होने कारण, जैसाकि मैंने पहले कहा हिन्दी की ओर सोच कम होती जा रही है। विशेषकर युवा पीढ़ी की।
सनत जैन-आजकल उत्तरआधुनिकता के नाम पर इंटरनेट से कट एण्ड पेस्ट रचनाएं आ रही हैं, क्या इनसे साहित्य का भला हो सकता है ?
कृष्ण शुक्ल-उत्तर आधुनिकता के नाम पर इंटरनेट से कट एण्ड पेस्ट से साहित्य तो समृद्ध होने से रहा और पाठकों के अभाव में साहित्य का भला होने से रहा।
सनत जैन-वर्तमान में नया साहित्यकार कहां से साहित्य की शुरूआत करे ? क्या पढ़े, पुराने स्थापित साहित्यकारों को या फिर नये साहित्यकारों को ? लेखन में मेहनत से सुधार होता है या फिर पढ़ते-लिखते आ जाता है ?
कृष्ण शुक्ल-नया साहित्यकार की पैदाइश ही पठन से शुरू होती है। जितना अधिक पढ़ेगा उसकी साहित्यिक चेतना उतनी ही जागृत होगी। रही बात पढ़ने की वह सब कुछ पढ़े जो उपलब्ध हो। कोई भी रचना अच्छी या बुरी नहीं होती। नहीं तो सआदत हसन मंटो आज भी अग्रणी कहानीकारों में शुमार नहीं होते। सच कहूं पढ़ना जरूरी है पर लेखन बहुत हद तक मेहनत पर निर्भर होता है।
सनत जैन-कहानी में क्या महत्वपूर्ण है भाषाशैली, कथ्य, संदेश, एजेण्डा या फिर पाठक का मूड ?
कृष्ण शुक्ल-कहानी में सबसे महत्वपूर्ण ‘कथ्य’ ही है। हां भाषाशैली ऐसी हो जो आम पाठक के पल्ले पड़े। रहा सवाल संदेश, एजेण्डा का तो उसे राजनीतिक पार्टी और धार्मिक पार्टी के लिए छोड़ देना चाहिए।
सनत जैन-आप साहित्य की कौन सी विधा को खुद के लिए अनुकूल मानते हैं ?
कृष्ण शुक्ल-मेरा जवाब है मैं साहित्य में कहानी लेखन को पसंद करता हूं। हालांकि मैं रेडियो के नाटक, लेख आदि भी लिखता रहा हूं, परन्तु कहानी मेरी अंतरात्मा से जुड़ी है।
सनत जैन-क्या साहित्य में टोटके होते हैं ?
कृष्ण शुक्ल-मैं टोटके को नहीं जानता।
सनत जैन-क्या साहित्य में गॉडफॉदर का होना जरूरी है ?
कृष्ण शुक्ल-मैंने किसी को अपना गॉडफॉदर नहीं बनने दिया। सबसे बड़ा गॉडफॉदर उसका अध्ययन है।
सनत जैन-साहित्य के कब तक जिन्दा रहने की संभावना है ?
कृष्ण शुक्ल-साहित्य शाश्वत है। हां, उसका स्वरूप परिवर्तित होता रहता है। हमको इसे स्वीकारना भी चाहिए।
सनत जैन-साहित्य की वर्तमान परिपाटी में ‘तू मेरी थपथपा, मैं तेरी थपथपाता हूं’ कहां तक सही है ?
कृष्ण शुक्ल-मैं नहीं मानता। हां, यह चलन में दिखाई पड़ता है।
सनत जैन-क्या साहित्य में सफलता के लिए किसी विशेष गुट से जुड़ा होना जरूरी है ?
कृष्ण शुक्ल-मैंने कभी किसी गुट विशेष को तरजीह नहीं दिया। कलाकार का लेखन ही उसे गुटों से जोड़ता है।
सनत जैन-साहित्य में लगातार छपने वाला ही साहित्य सुधि है या फिर गुमनाम पाठक ?
कृष्ण शुक्ल-साहित्यिक सुधि लेने वाला सबसे बड़ा है पाठक। इस संबंध में एक स्थानीय व्यक्ति का उल्लेख करना चाहूंगा स्व. सोमनाथ रथ का। मैंने उन्हें हमेशा पढ़ते हुए पाया। मेरी कहानियों के भी वे पाठक थे साथ ही आलोचक भी। जिससे मैं हमेशा सही लेखन की ओर बढ़ा।
सनत जैन-वर्तमान साहित्य काल्पनिक है या वास्तविक ?
कृष्ण शुक्ल-साहित्य हमेशा वास्तविक ही होता है पर उसमें कल्पना की कोटिंग की जाती है।

सनत जैन-वर्तमान साहित्य वर्तमान का सही ढंग से दस्तावेजीकरण कर पा रहा है ?
कृष्ण शुक्ल-वर्तमान साहित्य भी कुछ न कुछ आनेवाले समय में अपनी छाप छोड़ेगा ही।
सनत जैन-सदा ही मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि बनने बनने वाला ही सच्चा साहित्यकार है ?
कृष्ण शुक्ल-मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथि बनने वाले कुछ पेशेवर लोग ही होते हैं। साथ ही वे आसानी से उपलब्ध भी हो जाते हैं।
सनत जैन-साहित्य किसके लिए लिखा जाता है ?
कृष्ण शुक्ल-साहित्य लिखा जाता है उन सामान्य लोगों के लिए जिनकी जिन्दगी से रचना बनती है। पर आज के समय में शायद ही वे उसे पढ़ पाते होंगे।
सनत जैन-साहित्यिक वरिष्ठता उम्र होती है या फिर उसका रचा साहित्य होता है ?
कृष्ण शुक्ल-साहित्यकार की वरिष्ठता उम्र नहीं बल्कि उसका रचित साहित्य होता है। नहीं तो श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी एक कहानी से अमर नहीं हो जाते।
सनत जैन-अध्ययन से साहित्य रचा जाता है या फिर आप ही आप होता जाता है ?
कृष्ण शुक्ल-साहित्य अध्ययन तो मांगता ही है पर कुछ हद तक कुछ लोगों में आप ही आप होता है। क्योंकि मैं अपने बारे में ही सोचता हूं कि परिवार में किसी को साहित्य से मतलब नहीं था। बचपन में पत्रिकायें मांग-मांग के पढ़ता था।
सनत जैन-पुराने लोगों द्वारा रचित साहित्य पढ़ने से किस तरह ज्ञान में वृद्धि होती है ? साहित्यिक योगदान में मात्र रचना ही होता है या फिर पढ़ना, पढ़ाना ?
कृष्ण शुक्ल-पुराना साहित्य, नया साहित्य कुछ नहीं है। सभी साहित्य है और सबकुछ पढ़ना है। लिखना एक गौण विषय है, पढ़ना जरूरी है। सबसे बड़ा साहित्यकार पहले एक अच्छा पाठक ही होता है।
सनत जैन-हम साहित्य के विस्तार में किस तरह से योगदान दे सकते हैं ?
कृष्ण शुक्ल-साहित्य का विस्तार समय के साथ अपने ढंग से ही होगा।