समीक्षा – डॉ अर्चना जैन

दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों की मूल संवेदना

गद्य और पद्य दोनों विधाओं में समानाधिकार से लिखने के बावजूद दुष्यंत कुमार मूलतः कवि ही थे। उनके इस कवि के भी तीन पहलू थे: नई कविता, गीत और ग़ज़लें। यह और बात है कि दुष्यंत की ग़ज़लें हिन्दी जगत में इतनी अधिक लोकप्रिय और चर्चित हुईं कि उनकी आकस्मिक मृत्यु के बाद हिन्दी में ग़ज़ल-लेखन की प्रवृति को ग़ज़ल का वेग मिला।
आज तो हिन्दी में ग़ज़ल-लेखकों की बाढ़-सी आ गई है। यह सही है, दुष्यंत-रचित गज़लों-सी कथ्य और शिल्प विषयक बारीकियां आज बहुत कम ग़ज़लों में देखने को मिलती हैं, किन्तु फिर भी हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना ही होगा कि अमीर खुसरो और कबीर से निकली हुई भारतेन्दु, प्रसाद और निराला तक चली आती हुई गज़लगोई की सूक्ष्म-कृश धारा को हिन्दी में एक गरजते-लरजते समंदर का रूप देने का श्रेय दुष्यंत को ही है। वे निस्संदेह युग-प्रवर्तक ग़ज़लकार थे।
यह बात नहीं कि दुष्यंत रोमानियत या प्रणयभाव की मखमली अभिव्यक्ति से कतराते थे। यह वैयक्तिक स्वर भी ‘साए में धूप’ की अनेक ग़ज़लों में देखा जा सकता है, किन्तु वास्तव में यह उनका प्रमुख स्वर नहीं था। वे अपनी ग़ज़लों के ही नहीं, प्रत्युत् अपनी सम्पूर्ण कविता के माध्यम से जनसामान्य की यातनाओं, दुःखों और विवशताओं को ही वाणी देने का प्रयत्न करते हैं।
कविता विषयक उनकी अपनी कुछ अवधारणाएं थीं। आम आदमी के प्रति उनकी सहानुभूति उनके समस्त कृतित्व और विशेषतः उनकी ग़जलों में देखी जा सकती है। ‘जलते हुए वन का बसंत’ शीर्षक अपनी कृति में कवि ने भूमिका में स्पष्ट करते हुए लिखा है – ‘‘मेरे पास कविताओं के मुखौटे नहीं हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राएं नहीं हैं और अजनबी शब्दों का लिबास नहीं है। मैं कविता को चौंकाने या आतंकित करने के लिए इस्तेमाल नहीं करता। समाज और व्यक्ति के सन्दर्भ में उसका दायित्व इससे बहुत बड़ा है।’ ‘वह (कविता) राजनीति, सामाजिक, और वैयक्तिक स्तर पर, हर, लड़ाई में मेरे लिए एक भरोसे का हथियार है।’
दुष्यंत अपने प्रारंभिक तीन कविता-संग्रहों के माध्यम से हिन्दी की नई कविता के कवि के रूप में पर्याप्त प्रतिष्ठा अर्जित कर चुके थे, फिर भी उनके हृदय की बैचेनी, अकुलाहट और जिज्ञासा उन्हें अभिव्यक्ति की किसी ज़मीन की तलाश के लिए प्रेरित करती रही, जहाँ पहुँचकर वे समाज के तमाम दुःख-दर्दों और रंजोग़म को आत्मसात् करके अपेक्षाकृत उन्हें अधिक पुरअसर अंदाज़ में व्यक्त कर सकें। अपने इस लक्ष्य के लिए उन्हें नई कविता की भूमि संकीर्ण और अपर्याप्त महसूस हुई। इस सम्बन्ध में दुष्यंत का अपना मत उद्धरणीय है।
वे कहते हैं – ‘‘पिछली पीढ़ी के कवियों के बरअक्स आज की इन कविताओं में यह तय कर पाना भी मुश्किल है कि यह किसकी कविता है और यह कविता है भी कि नहीं। इसीलिए मैंने कहा कि कविता की एकरसता या फिर आधुनिक, युवा, वाम और नई आदि विशेषणों से मंडित आज की कविता के वाग्जाल और सपाट बयानी से उकताकर मैंने उर्दू के इस पुराने और आज़्मूदा माध्यम की शरण ली है- जोकि मैं जानता था कि यहाँ भी इश्क और हुस्न से हटकर तकलीफ़ का बखान करना एक मुश्किल और नाजु़क काम है और ग़ज़ल की रिवायत से बँधे हुए लोग इस कोशिश पर नाक-भौं जरूर सिकोड़ेंगें।
ग़ज़ल ऐसी काव्य-विधा है जो पीड़ा, फिर वह वैयक्तिक हो या सामाजिक, को प्रभावी ढंग से व्यक्त करने का एक अत्यंत उपयुक्त एवं सशक्त माध्यम है। बकौल जाँ निसार अख़्तर ग़ज़लगोई एक ऐसा फ़न है जिसके दो मिसरों के शेर में शायर अपने दिल में जलती हुई आग भरकर उसे पुरअसर बना देता है-
हमसे पूछो कि गज़ल क्या है, ग़ज़ल का फ़न क्या,
चंद लफ़्जों में कोई आग छुपा दी जाए।
दुष्यंत तो एक ऐसा अदीब था जो देश के करोड़ों अभावग्रस्त और ग़मज़दा लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहा था। उसकी ग़ज़लें भला पुरअसर क्यों न होतीं ?
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
दुष्यंत की कथनी और करनी में फर्क नहीं था। वह सस्ती और बाज़ारू टाइप की लोकप्रियता से कोसों दूर था। जिन दिनों हिन्दी में छंदमुक्त नई कविता और उसके समर्थकों का बोलबाला था, उर्दू शायरी में भी अधिकाशतः इश्को हुस्न, शमा-परवाना, गुलो बुलबुल और जामोमीना की रिवायत में ही नए-पुराने शायर मुब्तिका थे ऐसे समय में दुष्यंत ने नई कविता के अग्रात्म, दुर्बोध, जटिल और उबाऊ डिक्शन को छोड़कर ग़ज़ल-विधा को अपनाया और उसमें भी सामाजिक उत्पीड़न और राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को बड़ी ही जिं़दादिली और साफ़गोई के साथ व्यक्त करने का क्रांतिकारी क़दम उठाया। दुष्यंत की ग़ज़लों में जहां एक और उसकी साफ़गोई दिखाई देती है वहीं दूसरी ओर उसके हृदय में छिपे आँसू भी दिख पड़ते हैं। दुष्यंत की सोच का निराला ढंग और शेर की अदायगी को तेवर तो देखिए। उसे न ज़िन्दगी की ज़रूरत है न किसी ख़ुदा की गरज़।
सीने में ज़िन्दगी के अलामात हैं अभी,
गो ज़िन्दगी की कोई ज़रूरत नहीं रही।
हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया,
हम पर किसी खु़दा की इनायत़ नहीं रही।
अपनी असल पीड़ा को अधिक से अधिक लोगों तक आसानी से पहुँचाने के लिए दुष्यंत ने ग़ज़ल के क्षेत्र को अपनाया। वे स्वयं लिखते हैं – ‘‘मैंने अपनी तकलीफ़ को………….उस शहीद तकलीफ़ को ज़्यादा से ज़्यादा सच्चाई और समग्रता के साथ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए ग़ज़ल कही है।’’ ‘‘जिं़दगी में कभी-कभी ऐसा दौर आता है, जब तकलीफ़ गुनगुनाहट के रास्ते बाहर आना चाहती है। उस दौर में फँस कर ग़मे जानां और ग़मे दौरां तक एक हो जाते हैं। ये ग़ज़लें दरअसल ऐसे ही एक दौर की देन हैं।’’
न तो दुष्यंत की संवेदना उधार ली हुई थी, न उसकी सोच उथली या सतही थी और न ही दुष्यंत की पीड़ा कृत्रिम किस्म की ओढ़ी हुई पीड़ा थी। दुष्यंत की संवेदना में इसीलिए भुक्तभोगी हृदय की सच्चाई और पीड़ा में मर्म को स्पर्श करने की शक्ति थी। वैयक्तिक और सामाजिक पीड़ा की दोहरी संवेदना के कारण ही संभवतः दुष्यंत की ग़ज़लें मर्मस्पर्शी और फलस्वरूप लोकप्रिय हो सकी हैं। जहां तक पीड़ा और वेदना की प्रखर अनुभूति का प्रश्न है, दुष्यंत की तुलना यदि किसी ग़ज़लकार से हो सकती है तो वे हैं मिर्ज़ा असदुल्लाखाँ ग़ालिब। इसके बावजूद दोनों की पीड़ा में संवेदना के स्तर पर एक अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है। जहाँ ग़ालिब अपने समकालीन समानधर्मा रचनाकारों से त्रस्त होकर कहीं दूर चले जाने की बात कहते हैं, वहीं दुष्यंत की अनुभूति में अपेक्षाकृत अधिक प्रखरता और अभिव्यक्ति में अधिक व्यंजना है – ग़ालिब कहते हैं –
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो,
हम सुख़न कोई न हो और हमजुबाँ कोई न हो।
दूसरी ओर दुष्यंत कहते हैं – यहाँ दरख़्तों के साए में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्रभर के लिए।
दुष्यंत कुमार की इस स्वीकारोक्ति में यक़ीनन सचाई है किः ‘‘भारतीय कवियों में सबसे प्रखर अनुभूति के कवि मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए ग़ज़ल का माध्यम ही क्यों चुना ? और अगर ग़ज़ल के माध्यम से ग़ालिब अपनी निजी तकलीफ़ को इतना सार्वजनिक बना सकते हैं तो मेरी दुहरी तकलीफ ( जो व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी ) इस माध्यम के सहारे एक अपेक्षाकृत व्यापक पाठक वर्ग तक क्यों नहीं पहुंच सकती ?’’
दुष्यंत हिन्दी की तथोक्त नई कविता और विशेषतः उसमें आधुनिकता की दुहाई देने वाले नारेबाज कवियों से बुरी तरह झल्ला उठे थे। दुष्यंत जनवाद के हामी थे, वे क्रांति के पक्षधर भी थे किन्तु वे इस सच्चाई से भी भलीभाँति परिचित थे कि क्रांति दलबन्दियों, खेमेबाजियों और खोखले नारों से नहीं आती। उसके लिए ज़रूरी चीज़ है एहसास की वह गर्म शिद्दत जिसमें फौलाद भी गल जाता है। स्वयं दुष्यंत के शब्दों में, ‘‘हां, मैंने ग़ज़ल अपने चारों ओर बुनी जा रही है कविता की एकरसता तोड़ने के लिए भी कहना शुरू किया।……………….. कविता में आधुनिकता का छद्म कविता को बराबर पाठकों से दूर करता गया है। कविता और पाठक के बीच इतना फ़ासला कभी नहीं था, जितना आज है। इससे ज़्यादा दुःखद बात यह है कि कविता शनैः शनैः अपनी पहचान और कवि अपनी शख़्सियत खोता गया है।……………. जो कविता लोगों तक पहुंचती नहीं, उनके गले नहीं उतरती वह किसी भी क्रांति की संवाहिका कैसे हो सकती हैं ?’’
दुष्यंत से पूर्व अपनी तमाम कथ्यगत और शिल्पगत विशेषताओं के बावजूद उर्दू ग़ज़ल (चाहे वह हिन्दुस्तानी हो या पाकिस्तानी) वैयक्तिकता के गहरे दलदल में फँसी रही। यही कारण है कि सामाजिक चेतना से अनुप्राणित दुष्यंत की ग़ज़लों को जहाँ नई पीढ़ी के उर्दू साहित्यकारों और शायरों ने यह कहकर बहिष्कृत करने की नाकाम कोशिश भी की कि ये ‘ग़ज़ल के शेर’ नहीं हैं और दर हक़ीकत दुष्यंत से पहले कथ्य में सामाजिक चेतना की ऐसी तीखी और तल्ख़ अभिव्यक्ति उर्दू ग़ज़लों में देखी भी नहीं गई। हर सिम्त तगज़्जुल का ही बाज़ार गर्म रहा। ऐसे में ज़बान की सलामत और जज़्बात की शिद्दत लेकर ग़ज़लगोई के मैदान में उतरने वाले दुष्यंत का लोकप्रिय हो जाना स्वाभाविक भी था। दुष्यंतकुमार लिखते हैं – ‘‘कथ्य के स्तर पर इनमें मौजूदा हालात की बात कही गई है। जो दृश्य सामने वह दृश्य जो सामने होना चाहिए उसकी ज़रूरत, समाज का जूझता और टूटता हुआ रूप, राजनीति और राजनीतिज्ञों का मुल्क और समाज के साथ सुलूक, इन्सान यानी आवाम की ज़िन्दगी, जरूरतें और उसके ख़तरे…………इन सबकों मैंने इन ग़ज़लों में बांधा है और इन संजीदा और भारी भरकम मुद्दों को सहज से सहज अभिव्यक्ति और सादी से सादी भाषा मंे बयान करने की कोशिश की है।’’
दुष्यंत की ग़ज़लों के सम्बन्ध में डॉ.धर्मवीर भारती की इस टिप्पणी में कटुता भले ही हो किन्तु सच्चाई और वास्तविकता भी है। वे लिखते हैं-’’आखिर क्या था उन ग़ज़लों में जो इस तरह इतनी गहराई में झकझोर गया।………….सबसे बड़ी बात यह थी कि वे एक ऐसे आदमी की प्रामाणिक पीड़ाभरी आवाज़ थी, जो इस मुल्क को, अपनी इस दुनिया को बेहद प्यार करता रहा है। जो बेहतर सपने और उजले भविष्य के प्रति अखण्ड आस्थावान रहा है। भविष्य के सपनों में जो जी-जान से जिया है, जिसने देखा है बेबसी और लाचारी से एक-एक कर उन सपनों को बिखरते हुए और उसका दर्द पूरी शिद्दत से महसूस करते हुए।…………न तो उसने छद्म आशावाद में पलायन किया और न एक बेईमान किस्म की झूठी शब्दाडम्बरमयी आक्रामकता में। एक सच्ची और तीखी अकेली छूटी हुई रचना, झूठे शब्दजाल के विराट काव्याडंबर को कैसे पलभर में नकली और जाली साबित कर अपने को प्रतिष्ठित कर लेती है, इसका प्रमाण दुष्यंत की ग़ज़लें हैं।’’
राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रही सियासी साज़िशों, वैचारिक अन्तर्विरोधी और सामाजिक क्रूर विषमताओं को दुष्यंत शब्दाडंबरों की मोटी चादर चीरकर भी देखता है और उसके भीतर छिपे भोंडेपन और मानवीय शोषण के हथकण्डों को निर्ममता से उजागर करता है। दुष्यंत की ग़ज़लों के शेर अर्थात् दर्द की पहाड़ी चट्टानों के भीतर ही भीतर बहता हुआ आग का सैलाब, व्यवस्था विरोध में ज्वालामुखी के विस्फोट की मानिन्द जलती हुई मशाल। चन्द अशआर उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं-
कभी कश्ती, कभी बत्तख, कभी जल,
सियासत के कई चोले हुए हैं।

दुकानदार तो मेले में लूट गए यारों,
तमाशबीन दुकानें लगाके बैठ गए।

रौऩके जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं,
मैं जहन्नुम में बहुत खु़श था मेरे परवरदिगार।
वस्तुतः दुष्यंतकुमार एक ऐसे संवेदनशील कवि किंवा ग़ज़लकार थे जिनके हृदय में शोषण और अन्याय के विरूद्ध निरंतर एक जागरूकता बनी रही जो उन्हें हर घड़ी हर लम्हा बेचैन करती रही। युगबोध के प्रति निरंतर सजग दुष्यंत की ग़ज़लें हमारे समकालीन यथार्थ की दस्तावेज हैं। प्रतीकांे की सहायता से दुष्यंत ने स्वातंत्र्योत्तर भारतीय परिवेश में जीने वाले आम आदमी के स्वप्नभंग एवं मोहभंग को मुखर किया है।
दुष्यंत व्यक्ति के रूप में एक जनसाधारण थे और इसीलिए उनकी ग़ज़लें आम आदमी की वेदनाओं एवं संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। दुष्यंत के ही शब्दों में, ‘‘मैं साधारण आदमी हूं, इतिहास और सामाजिक स्थितियों के संदर्भ में, साधारण आदमी की, पीड़ा, उत्तेजना, दबाव, अभाव और उसके सम्बन्धों, उलझनों को जीता और व्यक्त करता हूं।’’
दुष्यंत की ग़ज़लें उस आवाम के लिए लिखी गई थीं जिनके लिए वह ताज़िन्दगी चिंतित और बे़करार रहे। इस दृष्टि से हम उन्हें प्रतिबद्ध कवि भी कह सकते हैं। उनकी ग़ज़लों में न तो तथाकथित पंडितों के जैसा बड़बोलापन है और न ही अर्थहीन शब्दाडंबर। जीवन की जटिलताओं को सरल-सुबोध भाषा में व्यक्त करने के लिए उन्होंने ग़ज़लगोई के फ़न को स्वीकार किया। वे लिखते हैं – ’’ मैं प्रतिबद्ध कवि हूं……………..यह प्रतिबद्धता किसी पार्टी से नहीं, आज के मनुष्य से है और मैं जिस आदमी के लिए लिखता हूं, यह भी चाहता हूं कि वह आदमी उसे पढ़े और समझे।’’ कविवर श्री धनंजयसिंह के शब्दों में –
उसने लिक्खी नहीं थी वाह-वाही की ग़ज़लें,
दर्द की खंदकों से उसका हर अशआर उठा।
वक़्त की धड़कनों में रक्त जिसका बहता था,
एक स्वरकार उठा आग का सितार उठा।

प्रो. अर्चना जैन
203, वात्सल्य फ्लैट,
वकील वाड़ी, एल.जी.
हॉस्पिटल के पास,
मणीनगर
अहमदाबाद
पिन-380008
(गुज.)
फोनः 079-25462646