पाठकों की चौपाल
संपादक,
अंक 5-6-7 का संयुक्तांक अपने संपादकीय में अद्भुत रहा। तुमने वर्तमान में घटित आम आदमी और राष्ट्रभाषा हिन्दी की दुर्दशा पर सारगर्भित कटुसत्य को सहज सरल ढंग से समझाया है। पढ़कर सिहर जाता है एक सामान्य पाठक, एक सामान्य आदमी। सरकार और अफसरशाही कार्यशैली के बीच पिसता ही जा रहा है देश का आम आदमी। इस त्रासदी को तुम जैसा युवा संपादक जीवंत, सटीक, तिलमिला देने वाली सहज भाषा में इस गरिष्ठ विषय वस्तु को समझाया है, साधुवाद देता हूं। मेरे पास शब्द ही नहीं हैं तुम्हारे आलेख की विवेचना करूं, समीक्षा करूं। एक शिष्य के आगे एक शिक्षक नतमस्तकक है। तुमने इतना कुछ कह दिया कि मेरे पास कहने को कुछ भी नहीं है। तुम्हारे इस न्यायपरक, सारयुक्त गीतासार के संदर्भ में दो विद्वानों का उल्लेख जरूर करूंगा। एक आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री जो उ.प्र. के राज्यपाल भी थे, शास्त्रज्ञ होने के साथ-साथ अनेक भारतीय भाषाओं के भी विद्वान ज्ञाता थे, परन्तु राष्ट्रभाषा हिन्दी को राष्ट्रीय एकता का माध्यम बनाने के लिए कृतसंकल्प थे। आज की हिन्दी में अंग्रेजी के बेमेल समिश्रण से उन्हें परहेज रहा, वे हिन्दी से अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग घट जायें, तद्भव शब्द ज्यादा प्रयुक्त हों। राजभवन को हिन्दी की सूक्तियों से अलंकृत भी करवाया था। भारतेन्दु साहित्य परिषद् के 70 वें अधिवेशन में बिलासपुर वे आये, अंग्रेजी के प्रोफेसर दिनेश ठाकुर भी वहां थे, शास्त्री जी का स्वागत करने वे स्टेशन गये, वहां उन्होंने शास्त्री जी को ठाकुर रविन्द्रनाथ टैगोर, उनकी धर्मपत्नी का बिलासपुर प्रवास के विषय में बताया, प्रसिद्व उपन्यासकार विमल मित्र के विषय में बताया, जेलरोड से गुजरते हुए राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी की कविता ‘पुष्प की अभिलाषा’ की उत्पत्ति स्थान केन्द्रीय जेल दिखाया। शास्त्री जी अभिभूत थे। शाम को सभागार में साहित्यकारों की भीड़ में उन्होंने कहा-‘सौ हिन्दी वाले न सही, ठाकुर (दिनेशसिंह) जैसा एक अंग्रेजीवाला हिन्दी सेवक चाहिए। आज डॉ. राजेन्द्रप्रसाद, पी.व्ही.नरसिंह राव, राजगोपालाचारी, जैसे कितने राष्ट्रभाषा संरक्षक संचारक रह गये हैं।’
दूसरा उदाहरण छत्तीसगढ़ के अंग्रेजी के मूर्धन्य, विद्वान प्रोफेसर दिनेश ठाकुर के उद्गार भी लिखना चाहूंगा। वे लिखते हैं कि उन्होंने संस्कृत भी अंग्रेजी में ही पढ़ा। साढ़े तीन दशकों तक निरंतर अंग्रेजी लिखने, बोलने, पढ़ने-पढ़ाने के बाद, सुनने को मिलता है कि मेरी हिन्दी प्रांजल, परिष्कृत, संस्कृतनिष्ठ है तो यह मेरे पूर्वजों का पुण्य है, मेरी नाभिनाल गर्भित धरित्री, अर्थात मेरी माटी के द्वारा दिये गये संस्कार हैं। अपनी भाषा अपनी ही होती है। प्रोफेसर दिनेशसिंह ठाकुर आगे लिखते हैं। वर्षों के अंतराल के बाद भी अंग्रेजी मुझे अभिव्यंजना की कम प्रवंचना की भाषा अधिक लगती है। कम से कम भारतीय संदर्भ में ठीक ही है। आज की परिस्थितियों में जो हिन्दी में निरंतर निष्ठापूर्वक लिख रहे हैं, उनका तमाम लेखकों की सिसृक्षा जिजिविषा अभिनंदनीय है। आज हिन्दी की पुस्तकें छापना, बेचना लोहे के चने चबाने जैसा है, यह जानते हुए भी जो आलेख अखबार हिन्दी साहित्य की पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं, हिन्दी के उन तमाम दुस्साहसी प्रकाशक वीर लेखक धीर मेरे श्रद्धास्वद हैं। इन विद्वजनों के कथन से समझ सकते हो कि तुम क्या हो, बस बढ़े रहो ऐसे ही आलेख लिखते रहो। आम पाठक के मन की भड़ास, क्रोध, अशांति को कहीं तो संतुष्टि मिलेगी। समसामयिक समस्याओं पर अपनी अभिव्यक्ति से सभी को संतृप्त करते चलो। साधुवाद।
पुनश्चः पद्मश्री मेहरून्निसा पर निकला विशेषांक अच्छा लगा। मेरा विश्वास है कि आज तक तुमने कितने सम्मान समारोह, अभिनंदन समारोह, विशेषांक निकाले परन्तु शायद ही कृतज्ञता , आनंदअनुभूति के दो शब्द किसी ने लिखा हो, परन्तु श्रीमती मेहरून्निसा ने तुम्हें जरूर लिखा होगा, प्रकाशित कर सको तो अच्छा लगेगा। फलदार वृक्ष ही भार से झुकते हैं, ये बात सिद्ध होगी।
बी.एन.आर. नायडू, नायडू मेंशन, जगदलपुर, बस्तर छ.ग.
आदरणीय नायडू सर, नमस्कार!
आपने मुझे जैसा पत्र प्रेषित किया है उसे पढ़कर एक ओर मैं खुशी से गद्गद् हो गया हूं, फूला नहीं समा रहा हूं; तो वहीं दूसरी ओर स्वयं को पाप का भागी मान रहा हूं कि एक शिष्य चाहे दुनिया में कुछ भी कर ले वह अपने गुरू के बाल बराबर भी नहीं हो सकता और आप…..! सर आप आदरणीय, पूज्यनीय हैं, भविष्य में इस प्रकार की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति से बचें वरना आप का ये नटखट शिष्य जिस पर इतना विश्वास कर रहे हैं अपने मार्ग से भटक सकता है। सर मैं जमीन से जुड़ाव महसूस करता हूं इसलिए इंजीनियरींग की पढ़ाई करने के बाद भी अपना शहर छोड़कर, अपने मां-बाप को छोड़कर बाहर नहीं जा सका। ठीक उसी प्रकार मैं अपनी भाषा से अंतरंगता रखता हूं इसलिए हमेशा हिन्दी के लिए लगा रहता हूं। हिन्दी के प्रति फैलाई जा रही नफरत हमें अपनी जमीन से अपने संस्कार से, अपने परिवार से तोड़ देगी, हमें कहीं का भी रहने न देगी। सर मैं हिन्दी में ही अपने व्यापार का पत्र-व्यवहार करता हूं। अंग्रेजी के फार्मों को हिन्दी में टाइप करके बाजार में मुफ्त में दे देता हूं जिससे वे ही प्रचलन में आ जायें। हमारे विभाग में बनाये जाने वाले रेखाचित्र, आदि का नाम पता हिन्दी में ही लिखता हूं। वर्तमान में आमजन मानकर चलते हैं कि ये सब अंग्रेजी में ही लिखना होता है। मेरे प्रयास से धीरे- धीरे ही सही कुछ तो हो रहा है।
यह समय दूसरों को देख कर नकल करके चलने का है, लोग सही या गलत खुद नहीं सोचते हैं, बस दूसरों को देखते हैं। आप जैसे विद्वान गढ़ने वाले शिक्षकों का शिष्य हूं इसलिए आगे तो बढ़ना ही है।
आपके अनुमान के अनुरूप ही पद्मश्री मेहरून्निसा परवेज़ जी का खत आ चुका है और ठीक आपके अनुमान के अनुसार उन्होंने अपना वक्तव्य भी दिया है। उनका पत्र हूबहू प्रकाशित भी कर रहा हूं। सर आपका आशीर्वाद सदैव यूं ही बना रहे। आपका सनत
प्रिय भाई सनत कुमार जी,
‘बस्तर पाति’ का नया अंक मेरे हाथ में है, बता नहीं सकती मेरी क्या मनोदशा हुई। आपने तो इतिहास की तरह मुझे अमर कर दिया। तेज बुखार की सी हरारत लग रही है। सारा शरीर अतीत की ठंडी हवा से सिहर उठा है।
अतीत की ढेर-ढेर पुरानी बातें मक्खियों की तरह भिनभना रही हैं, जहां अकेले-तन्हा खड़े थे और टूट-टूट कर किरचों में बिखरे थे, क्या उस अनुभव को भूल सकते हैं ? लेकिन वहीं से जीवन का यह उतरती उम्र का इतना बड़ा सुख मिलेगा, नहीं सोचा था। मुझे तो जैसे सुरखाब के पर लग गये हैं।
मुझे बचपन से ही लगता था कि यह दुनिया केवल पुरूषों की है। आज महसूस किया कि दुनिया के कुछ पुरूष औरतों के हक में भी खड़े होते हैं। अल्लाह ने जहां दुख दिया, वहीं इतना बड़ा सुख दिया। हर दुख और सुख को मैंने अल्लाह की मर्जी समझकर स्वीकारा और उसे अपने शब्दों के साथ खमीरे की तरह गूंथ लिया।
बस्तर ने जहां दुख दिये, वहीं पहचान दी और आज आप सब का स्नेह पाकर सुख से निहाल हूं। मैं आदरनीय बी.एन.आर. नायडू जी की तथा आप सबकी अहसानमंद हूं। आज भी मुझे गिरजाघर के घंटों की आवाज सुनाई देती है, जहां मैं बचपन में स्कूल से आते समय आकाशनील के सूखे फूल बिनने जाती थी।
मेरा ढेर सारा स्नेह तथा शुभकानायें स्वीकारें! नववर्ष की बधाई!!
आपकी बहन मेरून्निसा परवेज़
आदरणीय दीदी जी, नमस्कार,
आप पर केन्द्रित अंक प्रकाशन की योजना मेरे मन में ‘बस्तर पाति’ के प्रकाशन के पहले से ही थी। मैंने पूर्व में ही एक सूची तैयार कर ली थी। भारतीय संस्कृति की सोच के अनुसार हम हमेशा अपने बुजुर्ग और गुरू का सम्मान करते हैं। उनकी चरण रज से स्वयं को धन्य समझते हैं और माथे पर लगाते हैं। इसलिये आपका सम्मान हम सब का फर्ज होने के साथ ही साथ हम सब के लिए आशीर्वाद की तरह है। आपका लेखन संसार और आपका जीवन संघर्ष अपने आप में ही एक किंवदन्ती है, जो हर किसी के लिए एक आदर्श है। आप पर केन्द्रित अंक संपादित करते हुए बहुत सी जानकारियां भी प्राप्त हुईं जिनसे आपके प्रति सम्मान और बढ़ गया।
और आपका बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने पत्र लिख कर हमारा हौसला बढ़ाया। वरना इस प्रक्रिया को लोग एक ‘रूटीन कॉलम’ के रूप में लेते हैं। भविष्य में भी आपका स्नेह और आशीर्वाद बना रहेगा।
सनत जैन
भाई सनत जी, नमस्कार
आपकी पत्रिका का विवरण परिधि-14 जनवरी 2016 में पढ़ा था। इच्छा है कृपया ‘बस्तर पाति’ का कोई अंक भेजें। ‘ककसाड़’ झांसी में आती है देख लेता हूं। मेरी बस्तर पर केन्द्रित कुछ रचनाएं हैं। इनमें से एक ‘आना कभी बस्तर’ परिकथा के नवलेखन अंक में छपी थी। फिलहाल आपकी पत्रिका देखने पढ़ने की अधीरता है। मैं ‘दैनिक विश्व परिवार’ में दैनिक स्तम्भ आजाद कलम लिख रहा हूं। शेष शुभ।
प्रेम कुमार गौतम, 178, ईसाईटोला, झांसी-284003, उ.प्र.
आदरणीय प्रेम जी, नमस्कार
आपका अधीरता भरा पत्र पाकर मेरा मन भी अधीर हो गया आपसे बातें करने का परन्तु आपका फोन नंबर पत्र में नहीं था। आपकी रचनाओं का स्वागत है चाहे वे बस्तर केन्द्रित हों या न हों। लघुकथाएं भी भेजिए। पत्र का धन्यवाद। सनत जैन
प्रिय सनत सस्नेह शुभकामना
साहित्य प्रकाशन के क्षेत्र में आपकी सेवाएं प्रशंसनीय ही नहीं स्तुत्य होती जा रही हैं। अरण्यधारा-2 का प्रकाशन मन वचन कर्म की समरसता से किया है। रचनाओं में परिपक्वता दिखाई देने लगी है। समीक्षा का तो क्या कहना। रचनाओं को आत्मसात करके लिखी समीक्षा ऐसी लगी जैसे स्वयं कवि अपने मन की बात कह रहा है। वस्तुतः जो वह स्वयं नहीं सोच पा रहा होगा वह वास्तविक भाव समीक्षा में व्यक्त कर दिखाया है। इसके लिए शाबासी के सिवाय क्या दूं ? ‘यशस्वी भव’!
लेखकों/कवियों की कविता तो सामने आने लगी है। कहानी भी आनी चाहिए। अरण्यधारा-3 में कहानी हो। भले ही एक-एक ही हो। अरण्यधारा-4 में लेख आवे तो साहित्य की यह विधा-प्रतिभा भी प्रकाश में आ सकेगी। विचार करें। आग्रह नहीं है, सुझाव है। यह बस्तर के साहित्यकारों की विविध प्रतिभा-परिश्रम-अभिव्यक्ति को सामने लाने का सुझाव है। विचार अवश्य करें।
एक बात और-अपने और अपने कार्य की अपूर्णता खोजते रहिए इसमें पूर्णता की चुनौती या प्रेरणा नित नवीन होती रहेगी। यह जीवन का अद्भुत आनंद और स्फूर्ति है।
धर्मपाल सेनी, यशस्वी भव के आशीष सहित सप्रेम। माता रूक्मिणी सेवा संस्थान डिमरापाल, जगदलपुर
ताऊजी सादर चरण स्पर्श,
आप वंदनीय हैं, आपकी ऊर्जा वंदनीय है जो एक प्रकाश स्तंभ की तरह इस क्षेत्र को चुपचाप प्रकाशित कर चुकी है और आज भी कर रही है। आपका हर शब्द एक व्यापक संदेश की तरह है। आपके आदेश/आग्रह पर कार्य कर रहा हूं। बस्तर क्षेत्र के कहानीकारों को ढूंढा जा रहा है उन्हें तैयार किया जा रहा है अरण्यधारा श्रृंखला के लिए। अभी अरण्यधारा-3 हल्बी की कविताओं के लिए और अरण्यधारा-4 छत्तीसगढ़ी की कविताओं के लिए पूर्णता की ओर है। मेरी लिखी समीक्षायें आपको पसंद आईं धन्यवाद। आप सभी साहित्यसेवियों का आशीर्वाद है जो इस लायक बन रहा हूं। सनत जैन
आदरणीय सनत जी, सादर अभिवादन
आशा है आप सानंद होंगे। ‘बस्तर पाति’ का संयुक्तांक मिला। धन्यवाद। पद्श्री मेहरून्निसा परवेज़ पर केन्द्रित इस विशेषांक में उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर विशेष सामग्री प्रकाशित कर पत्रिका के पाठकों को जो नव वर्ष का अमूल्य उपहार दिया है वह आप जैसे विद्वान व कुशल संपादक ही सोच सकता है। आप को मेरी हार्दिक बधाई। शेष सामग्री भी पठनीय, स्तरीय व प्रभावी।
अशोक आनन, मक्सी-465106, जिला-शाजापुर, म.प्र. 9981240575
आदरणीय जैन जी सादर प्रणाम,
आदिवासी क्षेत्र की लोकसंस्कृति एवं आधुनिक साहित्य को समर्पित उत्कृष्ठ त्रैमासिक पत्रिका ‘बस्तर पाति’ का कहानी पर केन्द्रित यह तीसरा अंक प्राप्त हुआ। इसका साहित्य पढ़कर मैं अभिभूत हूं। आवरण पृष्ठ के चित्रांकन से संस्कृति सजीव हो उठी है। चित्रकला कार्यशाला द्वारा निर्मित चित्र अत्यंत मनोरम हैं। कविताएं, कहानियां, लघुकथाएं, आलेख आदि सभी स्तंभ मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक हैं। साहित्य-संस्कृति के मनोहर संगम पर विविध विधाओं के महकते उपवन ने पत्रिका के स्तर में चार चांद लगा दिये हैं। पत्रिका शीर्ष संपादकीय है जो प्रेरणास्पद और साहित्यिक गतिविधियों के लिए मार्गदर्शक है वर्तमान परिवेश से जुड़े सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग रहते हुए संपादक ने जो विचार प्रगट किये हैं, वे स्वागत के योग्य हैं। पत्रिका की साहित्य सामग्री को जिस कुशलता से सजाया है व प्रशंसनीय है। पत्रिका के उज्जवल भविष्य की शुभकामना के साथ आपको हार्दिक बधाई।
डॉ. सीताराम गुप्त ‘दिनेश’, गढ़ी परिसर, आलमपुर, जिला भिण्ड म.प्र. मो.-9770949528
आदरणीय अशोक आनन(मक्सी), डॉ सीताराम गुप्त ‘दिनेश’(आलमपुर), अविनाश ब्यौहार ’उमरिया पान’(जबलपुर), धनेश यादव(नारायणपुर), अरूण कुमार भट्ट(रावतभाटा), श्रीमती माधुरी राऊलकर (नागपुर), दिनेश कुमार छाजेड़(रावतभाटा), कृष्णचंद्र महादेविया(सुंदरनगर), देव भण्डारी (कलिंगपोंग), लोकबाबू(भिलाई नगर), डॉ.नथमल झंवर(सिमगा), शिशिर द्विवेदी (बस्ती), प्रो. भगवान दास जैन(अहमदाबाद), किशोर तारे (रायपुर), नरेश कुमार ‘उदास’(बनतलाब, जम्मू), हरिशचंद्र गुप्ता ‘हरिश’(द्वारिकापुरी), सराफ सागरी(जबलपुर), डॉ. श्रीहरिवाणी(नौबस्ता), डॉ. जयसिंह अलवरी (श्रीगुप्पा) सादर अभिवादन!
आप सभी ने ‘बस्तर पाति’ को पत्र लिख कर हौसला अफजाई की है। ‘बस्तर पाति’ इसी स्नेह और प्यार का भूखा है। जिस प्रकार पेट की भूख भरपेट भोजन से तृप्त होती है उसी प्रकार पत्रिका की तृप्ति पाठकों, लेखकों के फोन, पत्र और रचनाओं की प्राप्ति से होती है। वर्तमान मोबाइल और इंटरनेट के दौर में पत्र का आना मिठाई और मेवों से भरे बड़े थाल की तरह महसूस होता है। आप सभी का मिठाई एवं मेवों के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। हमेशा अपना आशीर्वाद यूं ही बनायें रखें और ‘बस्तर पाति’ को प्राणवायु देते रहें। पत्रों को स्थान देने की हमेशा इच्छा होती है परन्तु स्थानाभाव के कारण सभी पत्रों को स्थान नहीं दे पा रहे हैं अन्यथा न लेंवे। अगले अंक से पाठकों की चौपाल तीन पन्नों की होगी। फिर हमारी आपकी बात देर तक चलेगी। शेष शुभ। आपका सनत जैन
छपते-छपते
संपादक,
जगदलपुर शहर की पत्रिका ‘बस्तर पाति’ पहली बार मैंने देखा। निसंदेह यह पत्रिका अपने श्रेष्ठ कलेवर और विषय वस्तु से संतोष प्रदान कर रही है। पाठकों से रूबरू स्तंभ में समसामायिक ज्वलंत विषयवस्तु का सटीक, बेबाक लेखन, संपादक के ज्ञान, उसकी संवेदना का अनुभवजन्य कटु सत्य है। सीधी सच्ची बात को उतने ही सहज वाक्यों में संप्रेषित करने की कला आपको मेघावी सिद्ध करती है। इतने सुंदर आलेख के लिए धन्यवाद ज्ञापित करता हूं।
इस अंक की दूसरी विशेषता पद्मश्री मेहरून्निसा पर केन्द्रित होना। ष्े नाम सुनने में जरूर आता था, बस्तर में सनत जी आपने फिर से इसे आफताब बना दिया, इनके साहित्य से व्यक्तित्व से जुड़ी जिज्ञासा को आपने संतुष्ट कर दिया। पद्मश्री से संबंधित जितने आलेख हैं, उनका साक्षात्कर, संपादकीय पर आलेख, उपन्यास पासंग पर दी गई समीक्षा बहुत ही श्रेष्ठ, उच्चकोटि की कही जा सकती है। ‘बस्तर के साहित्य मरू की गुप्त सरस्वती’ शीर्षक जितना जानदार लगा, आलेख लेखिका के जीवन प्रक्रम उतना ही शानदार लगा। उनके रचना संसार के परिचय से अनभिज्ञ पाठकों के लिए उनके साहित्य रचनाकर्म को परिचित करवा दिया, धन्यवाद। श्रीमती मेहरून्निसा के कद, उनकी बुलंदी से पूरा जगदलपुर प्रसन्न है। डॉ. लक्ष्मण सहाय एवु श्रीमती अनीता सक्सेना दोनों ने शोधपरक शानदार लिखा है, निश्चय ही साधुवाद के पात्र हैं।
अंत में आपका यह श्रमश्राध्य कार्य आपके साहित्य अनुरागी एवं मसिजीवी होने का पुष्ट प्रमाण है। बस्तर पाति में दिखती है आपकी कर्मण्यता, साहित्य सर्जकता एवं ईमानदारी जीवन में आगे बढ़ें, श्रेष्ठ पत्रिका के श्रेष्ठ संपादक बनें, यशस्वी हों। दीनानाथ कुशवाहा, जगदलपुर, बस्तर छ.ग.