एक मुलाकात: पद्मश्री धर्मपाल सेनी

‘एक मुलाकात’ व ‘परिचय’ श्रृंखला में इस पिछड़े क्षेत्र से जुड़े हुए और क्षेत्र के लिए रचनात्मक योगदान करने वाले व्यक्ति के साथ बातचीत, उनकी रचनाओं की समीक्षा, उनकी रचनाएं और उनके फोटोग्राफ अपने पाठकों के साथ साझा करेंगे।
24 जून सन् 1930 जन्मे आदरणीय ‘ताऊजी’ बस्तर क्षेत्र में स्त्री शिक्षा में अपने योगदान के लिए हमेशा याद किये जाते हैं। हमारे ‘ताऊजी’ समाज सेवा के लिए अपना जीवन न्योछावर कर चुके हैं। बस्तर जिले में जगदलपुर ब्लॉक के ग्राम डिमरापाल के आश्रम माता रूक्मिणी संस्थान में ही योगी की तरह रहते हुए आदिवासी बालिकाओं के लिए जी रहे हैं। उनकी शिक्षा के साथ-साथ खेलकूद, नृत्य, वादन आदि अनेक रूचियों के विकास पर भी काम कर रहे हैं। उनकी उपलब्धियों का आंकलन करते उनके कक्ष में हजारों की संख्या में सम्मान एवं पदक लगे हैं। सुबह चार बजे से उनकी शुरू होने वाली दिनचर्या योग, ध्यान और शारीरिक श्रम के साथ दिन भर लगातार बगैर विश्राम चलती रहती है। आज भी एक जवान व्यक्ति को मात देने वाली दिनचर्या के मालिक सुबह से ही रचनाकर्म में लग जाते हैं । गांधीवादी ऋषितुल्य ‘ताऊजी’ मात्र बातों से नहीं बल्कि कर्म से जीते हैं। उन्होंने अपने ज्ञानार्जन में जो पाया है उस दर्शन को अपनाया है उसे अपने आलेखों में लिखा है। उनकी कविताओं के प्रत्येक शब्दों में दिखता है। उनकी विचार धारा परमार्थ की है, जो उनके साहित्य में दिखाई पड़ती है। आज हमने साहित्य के विभिन्न बिन्दुओं पर चर्चा की और उनके विचार जाने। उनके विचार स्पष्ट और काफी हद तक सत्य का स्पर्श करते हैं। आइये हम सब उनके विचारों से कुछ सीखने समझने का प्रयास करें।

प्र.-व्यवहार में और रचित साहित्य कितने प्रतिशत का अन्तर जायज है ?
यदि साहित्यिक रचना में कल्पना, व्यवहार को दिशा बोध या प्रेरणा न दे सके तो रचना में कमी तो कही जावेगी। यदि व्यवहार रचना में सकारात्मक न हो तो रचना कच्ची कही जावेगी। रचना में कल्पना और व्यवहार का प्रतिशत निर्धारित करना कठिन काम है, फिर भी, 25 प्रतिशत कल्पना और 75 प्रतिशत व्यवहार एक मोटा अन्तर है, जो अवसर और आवश्यकता के अनुसार परिवर्तनीय बना रहेगा।
रचना यदि व्यवहार को कल्पना के सहारे सहलाती, संवारती, दिशा देती चलती है, तो प्रतिशत का अंतर वह 50-50 या 75-25 वाला भी हो सकता है।
प्र.-साहित्यकार होने के लिए व्यक्ति को कितना पढ़ा लिखा होना चाहिए ?
साहित्यकार को अक्षर ज्ञान, शब्द निर्माण, अध्ययन एवं अवलोकन प्रधान होना पर्याप्त है। आधुनिक दृष्टि से वह जितनी बड़ी डिग्री का स्वामी होगा उसका साहित्य में प्रवेश उतना ही प्रभावी हो सकता है। साहित्य का सृजन प्रकाशन प्रसार भी उतना ही मजेदार होगा। साहित्य का सृजन प्रकाशन प्रसार के बाद डिग्री एक मामूली सी हस्ती रह सकती है। असली डिग्री तो कल्पना, संवेदना, सांसारिक विविधता में एकता का बोध, मानवीय व्यवहार का अध्ययन और अभिव्यक्ति ही साहित्यकार की असली डिग्री है।
6-सामाजिक असंतुलन के लिए लेखक जिम्मेदार होता है या फिर सम्पादक ?
परिवर्तनशीलता प्रकृति का भौतिक धर्म है और साहित्यकार मानव व समाज की विविध संवेदनाओं, चुनौतियों और कल्पनाओं के आकर्षणों को अभिव्यक्त करने का नाम है । साहित्यकार में लेखन और सम्पादन दोनों ही जीवित दायित्व वाले अधि–कार है । साहित्य यथार्थ के दूध में कल्पना की शक्कर केसर के समान है, जो न्याय के बिन्दु से समाधान तक सत्य की खोज है। अलग-अलग मानव समुदायों में अलग-अलग प्रकार से चुनौतियां होती हैं परन्तु उनकी संवेदनाओं और समाधान में शब्दों का, तर्कों का अन्तर होते भी भाव लगभग समान या कम से कम अन्तर्द्वन्द वाले होते हैं। ………जब जीवन में विभिन्न समुदायों के हित या लाभ या शुभ टकराते है, तो असंतुलन पैदा होता दिखता है। इसके लिए लेखक से लेकर सम्पादक तक में असंतुलन पैदा होता दिखता है। वहीं समाधान का प्रयत्न और प्रतिभा बन कर साहित्य में आता है। इसके लिए लेखक से लेकर सम्पादक तक असंतुलन की रेखा के साथ समाधान का प्रभाव पैदा नहीं होता तो सम्पादक में अवसर पहचानने की कमी मानी जावेगी। लेखक तो मनमौजी भी होते है। स्वान्तः सुखाय तथा संघर्ष और समझौते वाले भी होते हैं। ये सब जीवन की जरूरतें हैं । अतः सम्पादक का यह दायित्व होता है कि समाज के यथार्थ और परिवर्तन की दिशा वाले सकारात्मक अथवा नकारात्मक लेखन को किस तरह, कितना, कब और कैसे प्रस्तुत किया जावे कि असंतुलन यदि जरूरी हो गया है, तो भी अनावश्यक तर्कांे वाला न होकर सही सार्थक भाव वाला बना रहे।
प्र.-साहित्यकार अपने जीवन में क्या करता और वह क्या रचता है, क्या दोनो में तारतम्य होना जरूरी है ?
साहित्यकार के जीवन में करने तथा रचने में तारतम्य हो तो वह अध्यात्मिक वैज्ञानिक हो जाना होगा। दूसरी तरफ अन्तर जितना ज्यादा होगा, रचना में प्रतिभा तो होगी परन्तु करनी का अन्तर्विरोध उसके जीवन को घर में और बाहर भी हां और ना से गुदगुदाने वाला या रूलाने वाला बन जावेगा। इसके बावजूद प्रतिभा तो उसकी मृत्यु के बाद भी काम करती रहेगी। साहित्कारों की रचना और करनी में अन्तर आश्चर्य या अनहोनी नहीं रह जाती है। साहित्यकार तो जीवन के विविध रंगो को चित्रित करने के लिए विविधता में जीने का सरोकार रखने के अधिकारी है, जिससे हर रंग को कथनी या करनी की एकता या विविधता से प्रस्तुत कर सके । हां यदि रचना और करनी में तारतम्य हो तो सोने में सुहागे की तरह हो जाता है । वह आदर्श बन जाता है।
प्र.-मंचीय कवि और साहित्यिक कवि में क्या अंतर है ?
मंचीय कवि सामान्यतः शब्दों से, भावों से और तर्कों से गुदगुदाने वाले होते हैं। मानवीय संवेदनाओं की ऊपरी सतह से अन्दर को जाने वाले भी हो सकते हैं। परन्तु साहित्यिक कवि गंभीरता बरसाने वाले होते हैं। ऊपरी सतह से अन्तरतम् को जगाने वाले होते हैं। कुछ में दोनों बातें एक साथ सफलता के साथ होती हैं, वे श्रोताओं को बांधे ही नहीं रख सके वरन् दिशा भी दे सके तो भी मंचीय साहित्यकार हो जाता है। यूं साहित्यकार अपने आप में मंच होता है। उसमें वक्तव्य कला हो तो हर जगह वह स्वयं मंच होता है। बस श्रोता चाहिए भले एक ही हो।
प्र.-आधुनिक कहानी और आधुनिक कविता क्या बला है ?
आधुनिक कहानी समाज की यथा स्थिति और परिवर्तन के दौर को समझाने के लिए उलझाने की कहानी है। उलझा साहित्य निश्चय ही सुलझे समाज को चाल ना देगा। सुलझे साहित्य का भी निर्णायक होगा, जो आधुनिकतम् होगा। जिसमें अतीत का सच वर्तमान के यथार्थ को स्फूर्ति देता भविष्य को चेताने वाला होगा। साहित्यकार जब परिवर्तन की उलझनों को उभार कर सुलझने के परिवर्तन को जन्म देने को उकसाने की कोशिश करता है, तो वह आधुनिक कहानी बन जाती है। आधुनिक जीवन आर्थिक और कामनाओं की जटिलता तथा उपलब्धियों की गतिशीलताओं वाला है। इसमें उत्पन्न परिवर्तन की तेज गति उलझने सुलझने की दिशा में चलने वाली कविता में अभिव्यक्त होती है।
प्र.-क्या वास्तव में सफल महिला साहित्यकार होने के लिए परिवार नामक संस्था से दूर रहना आवश्यक है ?
महिला द्वारा साहित्य साधना के लिए भी समय चाहिए। उसे परिवार से वंचित रहने की जगह परिवार की नोन तेल लकड़ी से रक्षित होने की जरूरत तो रहेगी। महिला साहित्यकार को केवल पकाने और पैदा कर पालने का संयम तो चाहिए। साहित्य के लिए समय एक मात्र सबसे बड़ी सुविधा है। कौन सी रचना कब जन्म लेगी ? क्या पता ? विशेष कर कविता के बारे में। ….काम काज में ज्यादा उलझाव वह चाहे जिस प्रकार का और प्रभाव वाला हो, कविता-कहानी को जन्म देना, पालना पोषना कष्टकारक होता है। इससे कुछ रचनाएं तो जन्म ही नहीं ले पाती या जो जन्म लेती हैं, उनमें नैसर्गिक निरन्तरता में कमी आ जाती है।
महिला और परिवार से दूर हो! यह भारत में तो अभी असम्भव सा है। परिवार उसे समय का अवसर रचना के लिए उदारता से दे तो वह उसके लिए स्वर्ग सी सुविधा होगी।
प्र.-किसी भी पत्रिका में छापने के लिए रचनाएं भेजना कहां तक उचित है ?
लेखक रचना लिखता है, छपाना चाहता है, तो किसी न किसी पत्रिका में भेजने से ही उसे पता चलेगा कि कौन सी पत्रिका उसके स्तर की है। कौन सम्पादक उसे महत्व देगा ? कौन सी पत्रिका उसके लिए छापने का अवसर बनेगी ? यह किसी भी महत्वाकांक्षी लेखक के लिए जानना जरूरी है। इसलिए जो पत्रिका जानकारी में आवेगी वहां भेजना चाहेगा और अपना लेखन सुधारने का प्रयत्न करेगा। …अच्छा तो यह है कि लेखक जांच पड़ताल करके ही रचना किसी पत्रिका को भेजे तो पत्रिका तथा स्वयं को सहयोग वाली बात होगी। यह भी सच है कि बिना छपे लेखक के विचारो का प्रचार प्रसार प्रभाव किस तरह होगा ? इसलिए छापने भेजना आवश्यकता बन जाती है।
प्र.-कहानी, व्यंग्य, कविता तीनों में कौन शक्तिशाली है ? किसकी मारक क्षमता ज्यादा है ?
व्यंग्य अपने में कहानी और कविता दोनों की क्षमता और योग्यता रखता है। ..कहानी और कविता भी व्यंग्य से रंग कर रंगीन हो जाती है। व्यंग्य तो रंगीन होता ही है। वह मिजाज को रंगीन बनाने से कविता से बड़ा और कहानी से छोटा पर खोटा होता है। वह बोझ हल्का करते हार से जीत की संवेदना भी शीघ्र से शीघ्र देता है। मनोवैज्ञानिक परिवर्तन का एक कारगर औजार है, जिसे हथियार की तरह उपयोग किया जा सकता है। व्यंग्य में दर्द, टीस, भी होती है, और मुस्कराहट भी उसकी खूबी है।
साहित्य में सबसे शक्तिशाली हथियार तो कविता ही है , जिसे पालने की लौरी से लेकर लड़ाई के मैदान तक शौर्य पैदा करने के काम में लाया जा सकता है। जिसे सहज याद रखा जा सकता है, जिसकी मन पसन्द दो लाईने याद रखने का रिकार्ड कविता के पक्ष में है। मानवीय दिमाग कविता को सहज याद रख पाता है। स्वयं कविता सबसे सहज संवेदनशीलता से अभिव्यक्त करने की शक्ति रखती है। वह सर्वकालिक संवेदनशील साहित्य स्रोत है।
प्र.-जब समय के साथ लेखन में सुधार हो जाता है, तो फिर यह कैसे कहा जाता है कि उनकी शैली फलां थी ?
हर साहित्यकार की एक शैली तो होती ही है, जिसके द्वारा वह अपने को सरलता, सहजता और विशेष रूप से अभिव्यक्त कर पाता है। इसलिए समय के साथ लेखन में सुधार के बावजूद शैली को भी याद रखा जाता है। लेखन के सुधार में शैली का भी योगदान होता है, चाहे वह किसी में कम हो या किसी में ज्यादा हो। पाठकों, श्रोताआंे और प्रशंसकों में भी शैली की पसंदगी और चर्चा होती ही है। शैली लेखन की ऊंचाई, गहराई और विस्तार में मदद करती है। कई बार शैली में थोड़ा सा परिवर्तन लेखन के परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान भी कर देता है। शैली भी लेखक के लेखन को पहचान देने वाली होती है। इसलिए चर्चा में बनी रहती है।
प्र.-मात्र कविता लिखना साहित्य है या फिर अन्य विधाओं से भी जुड़ना चाहिए ?
कविता लिखना साहित्य की महान विधा है। थोड़े शब्दों में ज्यादा अर्थ भरने का सशक्त माध्यम है। कविता अक्सर हृदय की संवेदना से फूट कर आती है। संवेदना से जन्म लेने के कारण वह संवेदना की उज्वलता और प्रभावशीलता को अभिव्यक्त करती है। ..किसी के यह कहने मात्र से कि कविता नहीं अपितु सभी विधाओं में लिखा जाना चाहिए। यह लेखक को प्रेरणा दे सकता है परन्तु उसे सभी विधाओं के लिए प्रभावशाली नहीं बना सकता। सहज लेखन शक्ति और प्रोजेक्टेड लेखन शक्ति में अन्तर रहेगा। रहता है। इसलिए स्वभाव या सहज प्रेरणा से लेखन ज्यादा सशक्त रहेगा। सभी विधाओं में लिखना यह हाथ की बात नहीं बल्कि अवसर, प्रतिभा और चाह का सरोकार है, अगर लेखक हर विधा से जुड़ सके तो कहना क्या ? वह हरफनमौला है। चक्रवर्ति साहित्यकार है।
प्र.-साहित्य की किस विधा को अपने लिए अनुकूल मानते है ? क्या उसी विधा ने आपकी पहचान बनायी है।
बचपन में कहानी सुनाने से साहित्यिक गतिविधि प्रारम्भ होने की याद है। बहादुरी और नया-नया करने की कहानियां बाल मित्रों को सुनाते रहता था। मीडिल में आते-आते कविता लिखने लगा। चित्रकारी और नाटक का शौक भी रहा परन्तु बी.कॉम पहुंचते पहुंचते सूख गया। अपने भावों के उन्मेश को कविता में लिखना कम समय वाला लगा। रचनात्मक कार्यांे का जुनून भी इसमें बाधा नहीं बन पाया। संक्षेप में कविता, कहानी, लेख और चिन्तन समय अनुसार लिखने की प्रेरणा बने रहे। बस्तर में आने पर कविताएं ज्यादा लिखी। उन्हीं से थोड़ी सी पहचान बनी। यूं मुझें विश्वास है कि कहानियां, लेख, चिन्तन यदि प्रकाशित हो जाएं तो साहित्यिक पहचान बनाने में कामयाब होंगे।
प्र.-क्या साहित्य में भी टोटके होते है ?
जीवन का ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जिसमें टोटके नही होते ? साहित्य भी इससे कैसे बच सकता है ? साहित्य की व्यंग्य और हास्य विधा अफवाह जैसी भी होती है। वह मूल्य निर्माता भी होती है। छोटे बडे़ के भाव भी पैदा करती है। शायद हर लेखक की कहानी, लेख, नाटक या कविता लिखने में टोटके जैसी कुछ चीज होती है।
आखिर टोटका है क्या ! टोटका ध्यान बांटने, तनाव या चिन्ता के बिन्दु से अलगाव करने या बदलने अथवा कुंठा मुक्ति के लिए होता है। अधिकांशतः अपने मन में यह जानते भी हैं कि इससे कुछ ठोस परिणाम नहीं होगा। उसे अपनाना टोटका है। मन में एक सम्भावना का भाव पैदा करने वाला शब्द, वाक्य, भाव टोटका बन सकता है।
प्र.-क्या साहित्य में गॉडफादर का होना जरूरी है ?
गॉडफादर कहां जरूरी नहीं है ? हर व्यक्ति में कोई गुण या मूल्य या संस्कार अथवा विचार और कोई व्यक्ति विभूति गॉडफादर की तरह होता है, जो उसके जीवन के अधिकांश ज्ञान कर्म प्रेम को निर्देशित करता है, काम क्रोध लोभ को दिशा देता या रोकता अथवा बढ़ावा देता है। ……..जहां तक साहित्य का प्रश्न है वह अन्तर्मुखी साहित्यकारों की कुछ जरूरतें पूरी करने वाला होने से जरूरी सा लगता है। साहित्यकार सामान्यतः संवेदना प्रधान स्वाभिमानी होते हैं । वे शब्दों, मूल्यों, विचारों की सत्ता के प्रवर्तक नियामक, अधिकारी या सेवक होते है। उनका स्वाभिमान जल्दी क्या तुरन्त आहत या प्रभावित अथवा जागृत होता है। इसलिए वे किसी को गॉडफादर मान कर चलें यह कठिनता से समझ में आने वाली बात है। इसके बावजूद व्यक्ति को अकेलेपन से डर भी लगता है। इसलिए वह समूह चाहता है। समूह संरक्षक की शक्ति का भाव और मूल्य दोनों है। व्यक्ति एक से अधिक हुआ कि गॉडफादर की भूमिका बन जाती है। चाहे आप उसे जरूरी समझें या न समझें। वह उत्पन्न हो जाती है।
प्र.-साहित्य का वर्तमान मूल्यांकन क्या कहता है ?
परिवर्तनशील समाज में साहित्य का वर्तमान मूल्यांकन करना आसान नहीं होता है, जितना वह स्थिर समाज या एकशिक्षित, समृद्ध और संगठित शक्तिशाली समाज में हो सकता है। भारत के सभी समाज स्थानीयता से राष्ट्रीय और जागतिक समाज की दिशा में एक साथ बढ़ने वाले हो कर परिवर्तन के जिस मनमोहक दौर से गुजर रहे हैं, उसमें आज का मूल्यांकन कल बासी हो जाता दिखता है। आज राजनैतिक , आर्थिक तथा विज्ञान, टेक्नालॉजी की विश्व व्यापकता ने इसे और कठिन बना दिया है। हम किस कसौटी पर मूल्यांकन करें ? निराशा और आशा, सत्य और असत्य, अच्छा या बुरा, सुख या दुख, हित या अहित सबमें परिवर्तन हो रहे हैं। परिवर्तन जितने तेज होते हैं, मूल्यांकन भी परिवर्तनशील हो जाता है, जब तक कि परिवर्तन का सही दिशा बोध नहीं हो जाता है।
आध्यात्म और विज्ञान दोनों स्थिर समाजों में परिवर्तन करने वाले हो रहे हैं। उनके आधार पर मूल्यांकन करें तो आज सब कुछ समृद्धि और सत्ताशक्ति के लिए चाहिए। इनके लिए पैसा पहले भी जरूरत रहा आज भी है। पहले इतना मुखर और निडर नहीं था। आज वही प्रखर मुखर हो गया है। साहित्य को इसी पर कस कर देखें तो वह भारत की युवा पीढ़ी की पूर्ति करने या मांग को अपनी दिशा देने में समर्थ भी नहीं और केवल खोजी बना हुआ दिख रहा है। विशेष कर शिक्षित होते भारत में शिक्षा पर बहुत अधिक लिखा जाना चाहिए। समृद्ध और शक्तिशाली होती जनजातियों , दलितों, पिछड़ों की आवश्यकता का ध्यान रखते, इन विशाल समूहों को राष्ट्रीय और वैश्विक विकास की दिशा में बढ़ाने के लिए साहित्य का वर्तमान सृजन पर्याप्त होना एक महती जरूरत है।
साहित्यकार भी यदि दलित, पिछडे़ या अगड़े होकर रह गए तो भारत का भाग्य संगठित और अद्वितीय कैसे होगा ? इस विभाजन को जात धर्म भाषा या क्षेत्र के रूप में अप्रभावी या क्षीण करना जरूरी है। साहित्य ने इसे नियंत्रित तो रखना चाहिए। ‘‘जाति न पूछो साधु’’ की तरह साहित्यकार का स्वर होना चाहिए।
प्र.-साहित्य की वर्तमान परिपाटी में तू मेरी थपथपा मै तेरी थपथपाता हूं, कहां तक सही है ?
थपथपाना अपने आप में न गलत है न सही है। वह हां और ना का वैसा ही अस्तित्व है, जैसे विद्युत का धन ऋण होना है। …..थपथपाने का धन ऋण यदि प्रेरणा को अभिव्यक्त करने वाली ऊर्जा बनता है, तो एक प्रोत्साहन भर देता है। ….पं्रशसा के भाव से थपथपाना एक शक्ति है, सम्पदा है। ईर्ष्या के रूप में प्रतिस्पर्द्धा है। हित या लाभ के रूप में थपथपाना भी एक शिष्टाचार सा बन जाना कहा जा सकता है। परन्तु सत्य को थपथपाना साहस का काम है।
आप साहित्यकार की परम्परागतता को थपथपाते हैं या परिवर्तनशीलता को, यह महत्वपूर्ण है। साहित्यकार की आवश्यकता को थपथपाना उसकी प्रतिभा को यदि वह है, तो वरदान की तरह सिद्ध हो सकता है। वही किसी को गिराने के लिए थपथपाना गलत ही कहा जावेगा, फिर भी, तू मुझे थपथपा मै तुझे, तो यह मनोदशा साहित्यिक जाती वाद हो जाना है।
प्र.-क्या साहित्य में सफलता के लिए किसी विशेष गुट से जुड़ा होना जरूरी है ?
साहित्य में सफलता के लिए प्रतिभा को अभिव्यक्त करने की स्वभाविक शैली चाहिए। बाहर जो हो रहा है, हो गया है और होगा उसे पहचानने वाली संवेदना चाहिए। भावों के सागर मे शब्दों की वाक्य लहरें और ताजी हवा वाली तर्क परायणता की क्षमता चाहिए। ……..साहित्य घट रही घटनाओं को अभिव्यक्त न कर सके, निहितार्थ प्रगट करने में असमर्थ हो, भविष्य के लायक अतीत को आज बनाने में निर्बल हो तो चाहे, जितनी गुटबाजी करो, गुट से जुड़ों सफलता गुट नहीं देता। यह अलग बात है कि समान उद्देश्य और दृष्टिकोण वाले, चिन्तन वाले एक हो जावें, तो सफलता का मार्ग चौड़ा हो जाता है। सुविधा वाला आसान हो जाता है उस पर बढ़़ना, मार्ग के संघर्ष अथवा साहित्य के सन्देश के संघर्ष मिल कर ठीक से किये जा सकते हैं। पर इसके लिए गुट बनाने की नहीं वरन एक स्वाभाविक एकता ही सच्ची स्थिति है। अन्यथा सब अतीत के गर्भ में समा जाता है। गुट को गुट भार भी डालता है। स्वतंत्र साहित्य न मरता न मारता है। न जीतता हारता है। इसलिए साहित्य को गुट नहीं सत्य चाहिए । साधना चाहिए। समय की आवश्यक अभिव्यक्ति चाहिए। समाज, समय राष्ट्र और विश्व की आराधना चाहिए ।

पद्मश्री धर्मपाल सेनी जी एवं सनत जैन की बातचीत