काव्य-सतीश लखोटिया

ईश्वर तेरे यह भी रूप


अंधेरा, प्रकाश, अभिमान वाणी।
का चल रहा था विचार-विनिमय गोष्ठी का दौर
कर रहे थे अपनी श्रेष्ठता का बखान
इशारा करके धरती के मानव की ओर।

कहता अंधेरा अपनी ही जुबानी
मेरी माया ही है अजब-गजब
जब आती मानवरूपी जीवन में अंधकार की बात
उजाला दिखे जीवन में उसके
भागता ईश की शरण से लेकर
जहां दिखती उजाले की आस।।

प्रकाश ने की अपने ही दिव्य ललाट से।
अपनी श्रेष्ठता का बखान
मैं आ जाऊं जिसके जीवन में
वह बन जाता महान
मेरी दिव्य चमक-दमक में
खो जाता इंसान
भूल जाता वो अपने पुराने दिन
कभी वो भी हुआ करता
भीतर से घायल मरणासन्न इंसान।।

अभिमानी अहंकारी तो था।
अपने ही मिजाज में
कहने लगा क्या करूं मैं मेरी महीमा का बखान
मैं आ जाऊं जिसके भीतर
उसे तुच्छ लगता हर सामनेवाला इंसान
कहती है दुनिया
अच्छे-अच्छों का नहीं रहा अभिमान
21 वीं सदी में विचरण कर रहा मैं
शतप्रतिशत कलयुगी मानव में
जो समझते खुद को महान।।

अहंकारी के बोल-वचन।
हुये जैसे ही समाप्त
मीठी वाणी वाले बोल पड़े नम्रता महाराज
मेरी तो बात ही निराली
मीठे बोल-वचन से ही
लुट गयी दुनिया बेचारी
राम-राज्य से ही कर लो मुझको याद
मीठे वचनों से ही मैंने छीन लिया
श्रीराम का राज
आज भी करता न कोई
जनता की भलाई के लिए काम
मीठे वचनों आश्वासनों की खैरात से
हर कोई कर रहा जनता का कल्याण।

मंद-मंद मुस्कराकर।
इनकी बातें सुन रहे थे
जगत के भाग्य विधाता
मेरे ही रचे हुए ये रूप
व्यर्थ ही कर रहे आपस में बहस
इन अज्ञानियों को क्या मैं समझाऊं
छल, कपट, नम्रता, अहंकार, अंधेरे, उजाले की दौड़ में
बता रहा कलयुगी मानव खुद को ही महान
समय के कालचक्र में
अभी समय है मुझको अवतरीत होने में
जब तक इंसानियत निश्चित तौर पर
खो देगा ये धरती का इंसान
ये धरती का इंसान।।

सतीश लखोटिया
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