अंक-8-पाठकों से रूबरू-साहित्यिक खेमेबाजी

साहित्यिक खेमेबाजी


नेट न्यूट्रीलिटी के नारे के बीच यह सच्चाई प्रकाश में नहीं आ पा रही है कि यह बाजार में एकाधिकार की क्रांति है। वर्चस्व की इस लड़ाई में थोथे आरोपों का दौर आने वाला है। इसके साथ ही अपनी पहचान और संबंधों के आधार पर टांग खिंचाई का भी काम भीतर ही भीतर जारी है।
यह लड़ाई ठीक हम साहित्यकारों के बीच चलने वाली लड़ाई की तरह है। ये बात शोधनीय है कि साहित्यकारों ने बड़ी कंपनीयों से सीखा है या फिर बड़ी कंपनीयों ने हम जैसे साहित्यकारों से। वर्चस्व कई तरह का है प्रदेश की राजधानी में रहने वाला अन्य जगह के साहित्यकारों को शून्य मानता है। उसके पास पावर है, सत्ता के केन्द्र में बैठा है, जुगाड़ है इसलिए साहित्यकार है। जब तक कोई दूसरा नहीं आता तब तक वह निर्विवादीत रूप से श्रेष्ठ है। प्रदेश के अन्य जिला मुख्यालयों में बैठे साहित्यकारों के लिए उनके क्षेत्र के अन्य गांव शहर के लोग गंवार हैं।यहां तक तो आम भारतीय सोच के मुताबिक मान ही लिया जाता है कि यह तो ‘ईश्वरीय नियम’ है। अब दौर है अपने ही शहर, अपने ही क्षेत्र की प्रतिभाओं के सीने पर सवार होकर स्वयं को वरिष्ठ साहित्यकार घोषित करने का। (यह भी ऐतिहासिक सच माना जा सकता है।) यहां मैं विषय से भटक कर कुछ कहना चाहूंगा। बहुत से विद्वान हमेशा यह कहते मिल जायेंगे कि कुछ नया लिखो। रोटी कपड़ा और मकान की सच्चाई में जीव भर उलझने वाले लोग यही लिखेंगे और हर पल जन्मती नई पीढ़ी उन्हीं सच्चाईयों का सामना करती आगे बढ़ेगी। हर बच्चा पैदा होकर सीधे चलना/दौड़ना शुरू नहीं करेगा-पीठ के बल पड़ा रहकर, फिर पलटकर, फिर खिसककर, फिर रेंगकर, घुटनों के बल चलकर, उसके बाद कहीं जाकर खड़ा होकर चलेगा-ये तो सभी पैदा होेने वाले बच्चों के साथ होगा। उनके लिए तो उनके जीवन का हर पल नया होगा। या फिर वह सोचेगा कि सब बच्चे तो ऐसे ही करते हैं मैं सीधे उडूंगा। रचनाकार को स्वतंत्र तरीके से बढ़ने का मौका मिलना चाहिए, अपनी प्रतिभा को व्यक्त करने का मौका मिलना चाहिए। उसे मैकाले के सांचे में डालकर ‘साहित्यिक केक’ बनाकर नहीं निकाला जा सकता है। वर्तमान मान्यता देनेवाले इस दौर में साहित्यकार नहीं किया जा सकता, मानना ही पड़ेगा। भले ही आप अपने तुच्छ दुराग्रह, पूर्वाग्रह से ‘इतिसिद्धम’ कहते रहें। नया व्यक्ति अगर अपने तरीके से देखते देखते ही सीखेगा तो कुछ नया करेगा। अगर किसी पूर्वभाषित, पूर्वनिर्धारित परिपाटी की ओर ही चलेगा तो वर्तमान शोधकों की तरह यहां का ईट वहां की माटी जोड़कर ‘कुतुबमीनार’ की तरह ऐतिहासिक हो जायेगा। नवांकुर को देखते ही कुछ ‘विद्वान’ साहित्यकार टूट पड़ते हैं। अपने अपने खेमे के प्रतीक साहित्यकारों को पढ़ने पढ़ाने के लिए पढ़ना जरूरी है- का नारा बुलंद करते हैं। अपने अपने बहुत है, उन खेमों के नाम से ही उनके प्रतीक कौन समझ जायेंगे फिर भी नये लोगों को आप समझा देंगे। दलित खेमा, स्त्री विमर्श खेमा, प्रगतिशील खेमा (अंतर्निहित मार्क्सवाद, समाजवाद, पूंजीवाद का विरोध आदि की तरह कई ‘वाद’) कबीरपंथी खेमा, धार्मिक खेमा, जातिवादी खेमा आदि, आदि।
जब प्रकृति ही पुराने पत्तों, पुराने पहाड़ों, जंगलों, नदियों में हेर फेर करती रहती है तो फिर हम और आप अपनी घटिया गतिविधियों से स्वयं को स्थापित करने का प्रयास क्यों करते हैं ? क्यों हम यह मानकर चलते हैं कि नवागंतुक हमारे लिए गढ्ढा खोद रहा है। प्रकृति का नियम है बदलाव! इसे हम और आप कितने ही प्रयासों से बदल नहीं सकते। हां, ऐसे प्रयासों से हम स्वयं को अपमानित, उपेक्षित और प्रताड़ित कर सकते हैं, ऐसे प्रयासों से लोग किसी को मान्यता नहीं देते अलबत्ता उन्हें उपेक्षित जीवन जीने पर मजबूर कर देते हैं। उनका बॉयकाट सर्वथा उचित उपाय होता है क्योंकि साहित्यकार का काम तलवार भांजना तो नहीं है।
वर्चस्व के इस दौर में नवांकुरों को रौंदने का बेरहम कार्य जबर्दस्त ढंग से चल रहा है ठीक उतने ही जबर्दस्त ढंग से स्वयं को स्थापित करने के प्रयास! स्वयं को साहित्य का भगवान साबित करने की होड़ में अपने बीच के लोगों का तिरस्कार करके उत्सुक मन को मारना धडल्ले से जारी है। जिन्हें हम अपना सबकुछ मान लेते हैं वही हमारे लिए हमारे आसपास कुंअे जैसे गढ्ढे खोद देता है।
समाज में साहित्य के अवमूल्यन का मूल कारण खोजना जरूरी है परन्तु वहां से शुरूआत न हो जहां से गलती हो चुकी है। मूलबिन्दुओं की ओर देखा जाए, जमीनी हकीकत समझी जाए, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के प्रयासों से विलग प्रयास हो। पूर्वाग्रह, दुराग्रह से हटकर कारण खोजें जायें। बीमारी के लक्षणों का उपचार नहीं बल्कि बीमारी के उपचार की आवश्यकता है।
ऐसा क्यों होता है कि साहित्यकार स्वयं की स्थापना के लिए नवांकुरों की रचनाओं को पढ़ते ही कह देता है यह तो मैंने पहले ही लिख लिया है, खोज कर दिखाता हूं। उस नवांकुर के नवीन आइडिया को चुराने के साथ ही साथ उस नवागंतुक साहित्यकार का गला घांेट दिया जाता है। अपने आगे बड़ी लकीर कोई खींच न पाये इसका उनके तरीके से प्रयास होता है। अपने क्षेत्र के लोगों की रचनाओं को छपने ही न देना, कार्यक्रम में न बुलाना, अगर बुला लिया तो रचनापाठ का मौका न देना आदि। अजीब विरोधाभास है एक ओर हर कोई साहित्यिक गोष्ठी में, लघु पत्र-पत्रिकाओं में और आपस की चर्चाओं में स्तरीय रचनाएं ढूंढते हैं, नामी और नवोदितों की रचनाओं को सिरे से खारीज कर देते हैं। इसके बाद कहते हैं कि नए लोग साहित्य के प्रति उदासीन हैं। स्वयं को प्रेमचंद, निराला की तरह स्थापित करना चाहते हैं। नवोदितों की इस कदर आलोचना की जाती है कि वह लेखन के प्रति उदासीन हो जाता है। उत्साह बढ़ाने के उपाय हैं-मसलन-गोष्ठी में मौका, लघुपत्रिका में छापना और उन नवोदितों की रचनाओं पर समीक्षात्मक कार्यक्रम, स्कूलों में कार्यक्रम, प्रमाणपत्र वितरण, सम्मान पत्र देना, अखबारों में उनके समाचार/चित्र छपवाना। कौन आचरण और व्यवहार में ये सब उतार रहा है ? जहां किसी नवोदित साहित्यकार में संभावना नजर आई उसकी रचनाओं, उसके स्वाभाव, उसके पारिवारीक जीवन की आलेाचना, चुगली शुरू हो जाती है। उसके बाय काट का पूरा फूलप्रूफ प्रबंध किया जाता है। जानबूझकर साहित्यिक कार्यक्रमों को टालते हैं जिससे कि नवोदितों को रचना पाठ का मौका न मिले। इससे उनकी ‘बादशाहत बनी रहेगी क्योंकि छोटी लकीर के आगे बड़ी लकीर खींचंेगी ही नहीं। कई कर्ता-धर्ता तो अपने ग्रुप से जुड़े नवोदितों ( बाकी अन्य को भी) दूसरे ग्रुप से जुड़ने नहीं देते हैं। फोन पर धमकाते हैं, अपमानित करते हैं। यदि किसी साहित्यिक पत्रिका में नवोदित ने रचना भेजी और उस नवोदित के शहर के कोई प्रसिद्ध (जुगाडु) साहित्यकार से पत्रिका के संपादक ने बता दिया ‘अरे भाई फलाने की रचना आई है, इस अंक में छपने वाली है।’ फिर देखिए वह ‘प्रसिद्ध’ एड़ीचोटी का जोर लगाकर रचना छपने नहीं देगा। मान लीजिए इसके भारी प्रयास के बाद भी रचना छप गई तो सारा क्रेडिट ‘प्रसिद्ध’ ले लेगा कि ‘मैंने उस नवोदित को प्रेरित किया, उसकी रचनाओं को अच्छा बताकर फलाने संपादक की पत्रिका में छपवा दिया।’
शहर के कुछ नामी व्यक्ति ऐसे होते हैं जो स्वयं को साहित्य से भी बड़ा मानते हैं। उनके भीतर का घमण्ड उनके व्यवहार और शक्ल में भी नजर आने लगता है। वे नई पीढ़ी से अपेक्षा रखते हैं कि उन्हें ही मुख्य अतिथि, मुख्य वक्ता या मुख्य सम्मानकर्ता बनाए, इसके अलावा अन्य रूप बिल्कुल नापसंद होता है। उनके मनमुताबिक न होने पर गुटबाजी करना, स्वयं कार्यक्रम में उपस्थित होकर शांतिभंग करना ही उनका उद्देश्य हो जाता है। ऐसी घटिया मानसिकता वाले को यदि अपने कार्यक्रम में बुलाना यानी अपने पैर में खुद ही कुल्हाड़ी मारना! साहित्य के ऐसे ठेकेदार अपनी पत्नी को भी साहित्यकार के रूप में महिमामंडित करने से नहीं चूकते हैं। अपनी रचनाओं को अपनी पत्नी के नाम पर छपवाकर जबरन वाहवाही लूटते नजर आ सकते हैं और उनकी ऐसी तथाकथित साहित्यकार पत्नी साहित्य पर चर्चा करती नजर आ सकती है। वर्तमान दौर इस तरह की बेहूदा सोच के चलते भ्रमित हो गया है। नये साहित्यकार साहित्य की अच्छी बातों से आकर्षित होकर आते हैं और यहां पहुंचकर भटक जाते हैं।
किसी मनोरोगी की तरह व्यवहार करने वाले इन साहित्यपुरोधाओं का इलाज क्या हो सकता है ? इसका हल ढूंढकर समय न बरबाद करके उन्हें अनदेखा किया जाए, उनका साहित्यिक बहिष्कार किया जाना उचित होगा। वैसे भी लड़ना, झगड़ना साहित्यकार का काम नहीं होता है। पर अचरज की बात है कि नवोदितों के प्रति लगभग हर छोटी बड़ी साहित्यिक संस्थाओं का नजरिया इसी तरह का है। न तो नए साहित्यकारों को ढूंढने की पहल करते हैं न ही उन्हें जोड़ने का प्रयास करते हैं। इसके पीछे मात्र यही गूढ़ संदेश होता है कि नए को मौका देना मतलब अपने लिए गढ्ढा खोदना। आलोचनाओं से उपजी परिस्थ्तिियों को अपना हथियार बनाकर आगे बढ़ते जाना उचित है, यदि आलोचकों से डरकर रूक गये तो क्या कर पायेंगे ? और फिर आलोचक चाहते भी तो यही हैं, तभी तो लंगड़ी मारते हैं। साहित्य की राजनीति के पुरोधा नवोदितों के पीछे-पीछे जितना व्यूह रचते हैं उतना ही सामने भी रचते हैं। सार्वजनिक बुराई करना, किसी किये गये कार्य की नुक्ताचीनी करना उनका अधिकार होता है। दो चार सम्मान मिल जाये तो फिर देखिए उनका पॉवर! वे तो साहित्य तो साहित्य, समाज के प्रत्येक क्षेत्र के बाप हो जाते हैं।
अगर संयोजक और आयोजक की मनसा को भांपे बगैर सारे लोग अपनी रोटी सेंकने से बाज नहीं आते हैं तो कार्यक्रम चौपट हो सकता है। शरीर जिन अंगों से मिलकर बनता है ठीक उसी तरह कार्यक्रम भी विभिन्न सहयोगियों के साथ मिलकर पूर्ण होता है। यदि एक भी सहयोगी का सहयोग बिगड़ा, पूरा कार्यक्रम बिगड़ सकता है। वर्चस्व के लिए साहित्य से जुड़ा व्यक्ति अपनी विशेषता तेजी से ढूंढ कर अमल करता है। कार्यक्रम का आयोजक आयोजन न करने के बहाने ढूंढता है। मुख्य अतिथि जो सामान्यतः उम्रदराज होता है, वह अपनी व्यस्तता का रोना रोता है। ‘घर आकर बोला ही नहीं’ का जवाब हमेशा तैयार मिलता है। मधुर कण्ठ का कवि/गीतकार गले में तकलीफ का बहाना बनाता है। स्त्री रचनाकार गृहस्थी का बहाना मारती है। मंच संचालक कार्यक्रम के एन वक्त पर धोखा दे सकता है। पैसा खर्च करने वाला अपने लोगों से स्वागत करवाता है। मान लीजिए किसी शहर में प्रकाशक/संपादक है तो वह अपने शहर के लोगों को नहीं छापता है। उनका प्रयास स्वयं को रेखांकित (हाईलाइट) करने में ही रहता है। वह ऐसे लोगों को छापता है जो उसे अपने शहर बुलाकर सम्मान करते हैं और अपने उन संपादक मित्रों को छापता है जो उनके ऊपर विशेषांक निकालते हैं या फिर रचनाएं छापते हैं भारी भरकम प्रशंसा के विशेषणों के साथ।
मौका पड़ने पर मजा चखाने की प्रवृत्ति कार्यक्रम के विभिन्न सहयोगियों के बीच होती है और यदि शहर में कोई अन्य आयोजक, प्रायोजक, संयोजक, मंच संचालक, मुख्य अतिथि, कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करने वाला आदि हैं तो उनके बीच भी अहम् और वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो जाती है। एक दूसरे के कार्यक्रम में न जाना, न बुलाना, एक दूसरे की बुराई फैलाना। कार्यक्रम फेल कराने के लिए गोटीबाजी करना यथा कार्यक्रम में शामिल न होने का कहना, कार्यक्रम के किसी भी मंचसंचालक, मुख्य अतिथि, रिपोर्टिंग वाले को एन कार्यक्रम के समय पर उपस्थित न होने देना आदि प्रपंच रचे जाते हैं।
हम अचरज कर सकते हैं कि पता पूछने वाले को नाम ही न जानने का दावा तक कर दिया जाता है। जिनके बारे में सारा शहर जानता है उनके बारे में अपनी बेशर्म अनभिज्ञता जाहिर करना ? ऐसा कई मित्रों से फोन पर चर्चा के दौरान जानकारी में आया। महानगरों और बड़े शहरों में न जानना कोई गंभीर बात नहीं होती परन्तु छोटे शहर, गांव, कस्बे में ? घोर आश्चर्य !
किसी भी छोटी काव्य गोष्ठी/साहित्यिक परिचर्चा, विमोचन कार्यक्रम या सम्मान समारोह से समाज के नये लोगों को मौका मिलता है, उनकी प्रतिभा को खुलने का मंच मिलता है। नये लोगों को जोड़कर ही हम किसी परिवार के समझदार बुजुर्ग की तरह साहित्य की विरासत सौंप सकते हैं। अपने तुच्छ, त्वरित स्वार्थों की पूर्ति के लिए ऐसे कामों में रोड़े डालने वालों से बचने का क्या उपाय हो सकता है; इस पर विचार करना आवश्यक है।
पत्रिका प्रकाशन से जुड़ने के साथ ही लगातार आने वाले फोन और उनमें होती चर्र्चाओं से समझ आया कि ऐसी स्थिति कमोबेश हर जगह है। उपाय भी उनकी ही बातों से मिले। ऐसे उपद्रवी, षड़यंत्रकारियों का साहित्यिक बहिष्कार ही सर्वमान्य उपाय है। न उनके कार्यक्रम जाओ न ही उन्हें बुलाओ। जो साहित्य की संवेदनशील भावना को न समझा वो कैसा साहित्यकार ? साहित्यिक सम्मेलन/गोष्ठी मात्र आपसी विचारों के आदान प्रदान का साधन ही नहीं है बल्कि स्वसमीक्षा का माध्यम है, साहित्यिक सूचनाओं का आयोजन है, प्रेरणा स्थल है, नवागंतुकों का स्वागत स्थल है, साहित्य के बीजारोपण की भूमि है। यहां खरपतवारों और कीट-पतंगों का क्या काम हो सकता है ?
वर्तमान में एक बीमारी और फैली है और वह है स्वयं को विद्वान मान बैठने की। ऐसा विद्वान, महान जो स्वयं को अपने शहर/गांव में आयोजित इन कार्यक्रमों में या तो मुख्य अतिथि बनाये जाने पर उपस्थित होता है या फिर आयोजक के स्वयं के निवेदन, निवेदन पत्र पर ही आता है। साहित्यकार के प्रगतिशील होने के दावे के विपरित ऐसा व्यवहार आश्चर्यजनक लगता है। वर्तमान में तो शादी-विवाह में भी एस.एम.एस. से लोग आ जाते हैं। अब शादी वाले घर का सदस्य भी निमंत्रण के लिए पीले चावल/मखाने रखने नहीं जाता है तो फिर इतना घमण्ड किस लिए ? खुद का घमण्ड गया नहीं और हम चलें हैं दूसरों को संवेदनशील और जागरूक बनाने। हंसी का विषय है। समय के अनुकूल बनिए महाशय! वरना खुद ही बहिष्कृत हो जाओगे। घर में होने वाली शादी में अड़ियल दामाद को मनाने का दौर खत्म हो चुका है तो फिर….?
वर्चस्व के इस दौर युवा शक्ति की उपेक्षा स्वयं के लिए अंधे रास्ते पर चलने की तरह है। हम जितना प्रयास शहर के पुराने साहित्यकारों, श्रोताओं, पाठकों को जोड़े रखने के लिए करते हैं उससे कहीं बहुत कम ऊर्जा के उपयोग से नई पीढ़ी तैयार कर सकते हैं। स्कूलों में कार्यक्रम आयोजित करने का कलेन्डर तैयार करिये और देखिए नई प्रतिभाओं की नयी सोच। धार्मिक आयोजनों में काव्यपाठ रखिए फिर देखिए गृहणियों की प्रतिभा। इस संदर्भ में बस्तर पाति की सह संपादिका श्रीमती उषा अग्रवाल ‘पारस’ का योगदान प्रेरणास्पद है। उन्होंने पत्रपत्रिकाओं से नये साहित्यकारों के फोन नंबर निकालकर उनसे लगातार संवाद कायम किया। अपने समाज, अपनी लोकालिटी, अपने महिलामण्डल, सामाजिक संस्थाओं के सदस्यों को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। उनकी रचनाओं को पढ़कर सुधार किया, लगातार उनके संपर्क में रही। नये लोगों पर किया उनका प्रयास सफल हो गया। सैकड़ों लोग उनकी ‘फोनशिक्षा’ से शिक्षित होकर हाइकुकार, लघुकथा लेखक बन गये, वह भी नये नवाड़ी। मुझे स्वीकार करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं कि मैं भी उनसे प्रेरणा पाकर हाइकु लिखना शुरू किया। धन्यवाद उषाजी! इस निस्वार्थ प्रयोजन के कारण ही आज हम ‘बस्तर पाति’ में जुड़े हैं। महिला वह भी गृहस्थ मारवाड़ी परिवार से जहां औरतों का दिन शुरू भी किचन से होता है और रात भी वहीं से शुरू होती है। उन्होंने ‘लघुकथा वर्तिका’ के माध्यम से संकलन प्रकाशित किया।
निस्वार्थ व्यवहार ही साहित्य का उद्धार कर सकता है यह मान लेना ही उचित है। सनत कुमार जैन

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