हमारी आदिम भावनाएं जागृत करने में लोककथा या लोककला, चाहे वह संगीत हो, नृत्य हो, वादन हो, कोई भी कला रूप हो, – वे जितना सक्षम होती हैं उतनी शास्त्रीय या परिष्कृत कला रूपों में वो बात नहीं दिखाई देती. यहां ‘लोक’ बनाम ‘शास्त्र’ के बीच के द्वन्द पर विचार करना मेरा प्रयोजन नहीं है, ना ही किसी की श्रेष्ठता सिद्ध करना. बात सीधी सी है-हम लोक साहित्य, लोककला के मार्फत मानव की आदिम वृत्तियों को जानने का प्रयास कर सकते हैं विषयों-तत्वों को जानकर ही, अर्थात् ज्ञान से ही हम आज की या आने वाले दिनों की चुनौती का सामना कर सकते हैं और खासकर तब, जब कला-कर्म, चाहे कोई भी कलाकर्म हो, आधुनिक मानव के लिए एक चुनौती बनता जा रहा है. यह स्वाभाविक हैं – क्योंकि मनुष्य जैसे-जैसे सभ्य या विकसित (?) होता जायेगा, यह चुनौती नये-नये रूप में प्रगट होती जायेगी. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस ओर बहुत पहले ही आगाह कर दिया था कि सभ्यता के विकास के साथ कवि कर्म कठिन होता जाएगा. हम साफ देख सकते हैं – यह आधुनिकता या अति आधुनिकता हमें कहां ले जा रही है. जीवन, पर्यावरण, परिवेश, कला-साहित्य, संगीत-नृत्य, चित्रकला इत्यादि हर फील्ड में. साफ है -तकनीक का दखल बढ़ता जा रहा है. पहले कपड़ों की बुनावट सरल और लिबास स्पष्ट होता था, आज सिंथेटिक युग हैं और मनचाहे फैशन बिखरे पड़े हैं. हम चारों ओर से इस तकनीकी प्रहार से आहत हैं. तकनीक का ऐसा हमला मानव इतिहास में शायद ही देखने को मिला हो.
कथा साहित्य और कलाओं में यथार्थवाद, आधुनिकतावाद, उत्तरआधुनिकतावाद, जादुई यथार्थ, अति आधुनिकता इत्यादि क्या हैं ? सिर्फ लिखने की कला की तकनीक ? लेखक दावा करता है कि उसने ऐसी तकनीक से कथा या कविता रची है कि ऐसा पहले कभी, देखा न सुना गया. चाहे सिनेमा हो, नृत्य हो, संगीत हो, हर ओर यही शोर सुनाई दे रहा हैं और मजेदार कि इस विषय में सचमुच यही पूरी दुनिया ‘ग्लोबल’ होती दिखती है. बधाई! बहुत-बहुत बधाई दोस्तों!
डांस कम सर्कस ज्यादा, संगीत कम कनफोड़वा कम्प्यूटर जनित ध्वनि ज्यादा, सिनेमा में एक्शन ही एक्शन, तकनीक का भरपूर दोहन करना है. लेखन में – हम किसी से कम नहीं! हमारे पास अति जादुई कहानी हैं.
यहां सही या गलत को ‘स्पॉट’ करने का इरादा नहीं हैं. यह तो गति है, प्रगति है. यह जरूरी है. भले कहीं पहुंचे नहीं!
लोककलाओं की तकनीक क्या हैं ?
लोकथाएं या कोई भी लोककला सीधे दिल से निकलकर बात दिल को छूती हैं. अगर व्यक्तिगत तौर पर आपको यह चुनाव करना पड़े कि शास्त्रीय गीत सुनना पसंद करेंगे या लोक गीत ? लोककथा पढ़ना चाहेंगे कि अब उत्तर आधुनिक कथाएं. लोकवाद्य सुनना चाहेंगे कि कम्प्यूटर द्वारा बजाई बांसुरी ? सवाल अपने आपसे पूछा जा सकता हैं.
लोककथाएं अगर तकनीक पर बहुत जोर नहीं देती तो आखिर इसकी ताकत कहां है. कहीं इसके भीतरी मर्म तो नहीं जिन्हें कहानी के तत्व कहते हैं, और उसमें भी कहानी का मूल तत्व- कौतुकता या रोमांच को मुख्य आधार बनाया जाता है- मानव मूल्यों की रक्षा करते हुए ?
शायद यह बहुत करीब है, सत्य के निकट है कि इसी एक तत्व ने आदिम मानव से लेकर आज तक एक जटिल होते जाते मानव के भीतर आज भी, दबे भाव से ही सही, मगर कहीं बैठा है और हमें ‘गाइड’ करता रहा है. शायद शिक्षा ने वो काम इस सभ्यता के लिए नहीं किया होगा जो इन कथाओं ने मानव शिक्षा और संस्कृति, स्थान, क्षेत्र में किया हैं. यह एक ‘सोशल कंट्रोल’ का माध्यम भी अनजाने ही सही, मगर रहा है. आचार्य विष्णु पंडित द्वारा रचित पंचतंत्र कथाओं का मूल उद्देश्य ही था बिगड़े शहजादों को ठीक करने हेतु कहानियों-किस्सों के मार्फत दी गयी शिक्षा! रामायण ओर महाभारत के विचित्र चरित्र आम और खास सभी तरह के लोगों के बीच आज भी प्रेरणास्त्रोत हैं और लोक उनमें अपना जीवन/छवि बड़ी आसानी से ढूंढ लेता हैं. हमारी सांस्कृतिक ताकत अगर कहें कि ये किस्से-कहानियां ओर अन्य लोककलाएं ही हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. बल्कि हम वास्तव में अगर कुछ हैं, तो इन्हीं की बदौलत. हम यहीं पर कुछ हैं. यह हमारा राष्ट्रीय गर्व भी है, पहचान भी.(यह मजेदार है कि इस ‘फ्रेंड़बुक’ के जमाने में हम सब कुछ बड़ी तेजी से भूलते जा रहे हैं. लोककलाओं की तकनीक क्या हैं ?़ )
हमारे पास आदर्श या महान या उच्चतर मानवीय मूल्य यदि हैं तो इन्हीं से. यही हमारी आंतरिक ताकत हैं.
कौतुकता, जुगुप्सा, रोमांच जगाने वाली तकनीक ही एक सफल कथा-टेकनीक है ? नहीं. लेकिन बहुत हद तक.
एक राजकुमार नदी के तीर स्नान करने जाता है. उसे एक सोने जैसे चमकती केशराशि दिखती हैं. वह केशराशि किसी स्त्री का होना प्रतीत होता है. राजकुमार सोचता है – हो न हो, कोई युवती है जो इसीं जलधारा पर स्थित हैं, जिसकी केशराशि सोने की है, वह कैसी होगी ? कितनी सुन्दर जिसके केश ही स्वर्ण आभायुक्त हैं ?
राजकुमार ऐसा विचार कर तुरंत जलधारा के विपरीत प्रवाह में तैरते हुए निकल पड़ता हैं. अवश्य ही वह सुन्दरी इस नदी में स्नान करने आती होगी.
उसे पाना ही उसका लक्ष्य हैं.
इस तरह की सेटिंग एवं जिज्ञासा के साथ लोककथाएं भरी पड़ी हैं. इस कथा के प्रारंभिक अंश में ही पाठक जाने-अनजाने मुख्य चरित्र के साथ स्वतः ही समभाव में जीने लगता है. युवती कैसी होगी-यह कल्पना भी पाठक के मन में पूरी आवेग के साथ जागृत हो जाती है. अब वह पूरी तरह नायक के साथ हो जाता है. नायक ‘एडवेंचर’ के लिए मानो निकल पड़ता है. इस संसार की प्रकृति की तरह ही इस कथा एवं उसका नायक का भविष्य अज्ञात है – अनजाने के प्रति तीव्र आग्रह हमारी तमाम सुषुप्त आशाएं यहां उद्वेलित हो जाती हैं.
जिज्ञासा – लालसा- उत्साह और क्रिया स्वरूप साहस! इन सब ने मिलकर कथा को, पात्र को गति दिया. और यह गति बढ़ती कथा के साथ कम नहीं होती. बहुत सारे दिन-रात की मेहनत के बाद एक भवन मिलता हैं जहां उसकी कल्पना की सुन्दरी, स्वर्ण केशराशि युक्त युवती कैद है. उसे एक राक्षस ने कैद कर रखा है और-शीघ्र ही उससे विवाह करने वाला हैं. वह सुन्दरी किसी और प्रदेश की राजकुमारी है. राजकुमार सुन्दरी को राक्षस से मुक्त कराने का प्रण करता है, मगर राक्षस को पराजित करना आसान नहीं हैं. उसके प्राण कहीं और हैं- यह रहस्य बरकरार है.
कहने की आवश्यकता नहीं कि पाठक अब तक कहानी में डूब चुका है. वह कई-कई मनोभावों को एक साथ जी रहा होता है. कथाकार जानता है- कथा तभी बनेगी जब जीवन के कई प्रसंग, कई आयाम एक के बाद एक उद्घाटित होते जाएंगे. वह जाएगा, राजकुमारी उसे मिलेगी, वह उसे पसंद करेगी और विवाह हो जाएगा इससे कथा नहीं बनती. कथा सामान्य घटना में असामान्य बातें दिखाने वाली हों या घटना ही इतना असामान्य हो कि हमें चौंका दे. और हम कहें कि वाह! ऐसा तो सोचा भी नहीं था.
जिज्ञासा जगानेवाली कशिश तो यहां है साथ ही बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रति प्रतिबद्धता. देखा जाए तो कहानी इतनी है. अच्छाई के प्रति प्रतिबद्ध होना और बुराई खत्म करना मानवीय मूल्य है जिसकी स्थापना हमारी कथा विरासत करती आई हैं.
पर, ऊपर के कथा-प्रसंग में घटनाएं बाह्य हैं, जीवन के गहरे प्रसंग, सत्य के प्रति सही पहचान और सही पक्ष के समर्थन में खड़ा रहने की दृढ़ता जैसे मानवीय मूल्य हमें पौराणिक क्लासिकी में ही देखने को मिलते हैं. वहां द्वन्द, जीवन संघर्ष न सिर्फ बाहरी स्तर पर घटित होता हैं, बल्कि उससे अधिक पात्र के भीतर!
लक्ष्मण मेघनाथ के बर्छा-प्रहार से मूर्छित हैं. राम धनुष बाण रखकर विलाप कर रहे हैं. हाय! वे माता को अपना मुंह कैसे दिखाएंगे. सभी चिंतित हैं. सिर्फ हनुमान सक्रिय हैं और लंका, दुश्मन के जमीन के राजवैद्य सुषैण के मन में आए धर्मसंकट का समाधान कर रहे हैं. राजवैद्य के लिए राजद्रोह है शत्रु पक्ष की किसी तरह की, सहायता करना. उनके मन में संघर्ष, मरीज का इलाज करें या राज्य के नियमों की अवज्ञा; यह सत्य हैं, सुषैण सही कह रहे हैं. लेकिन ज्ञानी हनुमान अड़े हैं, वे किसे आतंकवादी की तरह वैद्यराज को उठा लाने नहीं गये हैं, न ही, वे उनका संशय, धर्मसंकट, जो दो या दो से अधिक सत्यों के बीच सही सत्य के पक्ष में या किस पक्ष का साथ दिया जाए-निर्णय नहीं कर पा रहे हैं-से युक्ति-युक्त तर्क कर रहे हैं. सुषैण द्वन्द से ऊपर नहीं आ पा रहे हैं. हनुमान समझाते हैं, सुषैण पहले वैद्य हैं, बाद में राज्य के नागरिक, सत्य दोनों हैं. मगर वैद्य का कर्म पूर्ण करना सही धर्म है क्योंकि वैद्यधर्म मानव-मात्र के लिए हैं. अतः स्पष्ट राजद्रोह होने पर भी सुषैण मानवधर्म के हित में निर्णय लेते हैं.
यहां धर्म का अर्थ क्या करना, क्या नहीं करने से है. सुषैण को हनुमान की बात, या कहे उसे सत्य को स्वीकार करना पड़ा तो बृहत्र निकाय को समर्पित था. अर्थात् एक सत्य ने दूसरे सत्य को पराजित किया.
ऐसे प्रसंग, मानव जीवन में, चाहे किसी भी स्थान का काल में हम चले जाएं, पीछा छोड़ने वाले नहीं. क्योंकि इस सृष्टि के मूल में ही द्वन्द, आघात का परिमाण मौजूद हैं.
रोमांच या कर्म-अकर्म अथवा धर्मसंकट यहीं सत्य नहीं हो जाता. वैद्यराज सूर्योदय से पूर्व हनुमानजी को संजीवनी लाने कहते हैं‘- वे संजीवनी की पहचान एवं लक्ष्मण भी उन्हें बताते हैं.
क्या हनुमान जी सीधे उड़कर बूटी उठा लायेंगे, समय पर ? बात सीधी-सादी होती तो यहां कहानी या कहे मानव जीवन का महाकाव्य नहीं लिखा जाता. महाकवि ऐसे ही प्रसंगों का सटिक चित्रण करता है कि ऐसे संकटों का सामना कैसे किया जाए. असल में- महाकाव्यकार जीवन के उन प्रसंगों के चरित्र को समझता और हमें समझता है कि शाश्वत हैं और इनका सामना कर ही हम ‘हम’ हो पाते हैं.
हनुमान के मार्ग में पहला अवरोध बनकर सुरसा आती हैं और ‘भूख’ के महत्व को मानों समझाना चाहती है. भूखे के धर्म के समक्ष इस सृष्टि में कोई और धर्म नहीं, स्वयं अति मानव राम का भी नही. हनुमान बड़ी चतुराई से सुरसा के ग्राह्य बन जाते हैं मार्ग से भटके बिना. सुरसा अपने भूख को बहुत बड़ा, बहुत ही बड़ा कर लिप्सा का मुंह फाड़कर मानों कहना चाहती है कि भूख शांत करने के लिए विशालतम नहीं लघुतम ही पर्याप्त है. यहां हनुमान के सामने जो धर्म संकट उत्पन्न हुआ है वह शब्दों में कम, चित्रों में ज्यादा सटिक व्यक्त हुआ हैं. यह दृश्य एक सुन्दर मेटाफर हैं. भूख, लिप्सा, धर्म-अधर्म का विवेक इत्यादि के लिए.
संजीवनी तक पहुंचने से पूर्व हनुमानजी को कई और मुश्किलों का सामना करना पड़ता हैं – रावण के जासूस राक्षस छल और माया से उन्हें भ्रमित कर मार्ग से दूर ले जाना चाहते हैं. हनुमानजी छल से बोले प्रवचन भी भक्तिभाव से सुनते हैं लेकिन असलियत ज्ञात होते उससे निजात भी पाते हैं. यानि प्रभु भक्ति या ईश्वर गुणगान का सत्संग(इसे साहित्यिक गोष्ठीं आप समझें) का मौका किसी भी सूरत में नहीं छोड़ना चाहते. अन्त तक, कठिनतम समय में भी, दुर्गम राहां पर भी सदाचार, व्यवहार का दुर्लभ दृश्य यहां उपस्थित होता हैं.
समस्या ने अभी भी पीछा नहीं छोड़ा. भोर होने में बहुत समय बाकी नहीं. हनुमानजी संजीवनी तब पहुंच तो जाते हैं मगर बताए लक्षण बहुत सारी बूटियों में दिखते हैं. वे पूरा पहाड़ ही उठा लेते हैं.
हनुमाजी बूटियों के विशेषज्ञ नहीं हैं मगर ज्ञान व विवेक के विशेषज्ञ अवश्य हैं. हमारा भौतिक ज्ञान कहीं न कहीं जाकर सीमित हो जाता है, पर अभौतिक या आन्तरिक ज्ञान हमारे साथ हो तो चिंता की बात नहीं.
अंततः एक अंतिम प्रसंग जब आकाशमार्गी हनुमान को देखकर राम के भ्राता भरत उनहें मूर्छित कर धरती पर गिराते हैं- का प्रसंग है. (कोई राक्षस या पिशाच समझकर) संक्षेप में हनुमान सारी बातें भरत को बताते हैं और भरत क्षमा याचना सहित राम के काज में योगदान चाहते हैं- वे हनुमान से आग्रह करते हैं कि उनकी अनुमति मिले ओर वे अपने बाण पर उन्हें संधानकर तत्काल लंका पहुंचा दें, मगर हनुमानजी विनम्रतापूर्वक इसे अस्वीकार करते हैं. उनके समक्ष इस दायित्व को निर्वाह करने का दुर्लभ मौका हाथ लगा है, यह धर्म (कर्म) लाभ उन्हें लेने दें. उस विश्वास/आस्था को यथार्थ में बदल जाने तक प्रतीक्षा और प्रयासरत रहने दें. और अंततः हनुमानजी स्वयं की क्षमता से लंका समय पर पहुंच जाते हैं. कितना दुर्लभ संदेश है – महाकाव्यकार की कलम से!
कहने की आवश्यकता नहीं कि वे तमाम प्रसंग, घटनाएं, प्रतीक जीवन की बड़ी मार्मिक, गहरी और सुन्दर व्याख्या करती हैं. पाठक कहता है- वह पहले से जानता नहीं, मगर आगे बढ़ती कथा के साथ वह प्रतिक्रिया करता हैं- ठीक, बिल्कुल ठीक यही होना चाहिए था. वाह!
समय अल्प है, कठिन है, मगर ठीक यहीं जीवन के गहरे संदेश छिपे हैं. कथा का रोमांच यहां मौजूद है, लेकिन धर्मसंकट ने, जीवन के रास्ते आए अवरोधों व द्वन्द ने तथा महान चरित्र की सटिक भूमिका ने तमाम रोमांच, कौतुकता को परे ढकेल दिया है, ठीक वैसे ही जैसे एक बड़ा सत्य छोटे सत्य को पृथक कर देता हैं. उपस्थित धर्मसंकट को खत्मकर वास्तविक धर्म (कर्म) को स्थापित करता हैं.
कहने की आवश्यकता नहीं कि जो कथा या काव्य जीवन के गहरे प्रसंगों को छूते हैं- वह पाठकों को निरंतर आंदोलित, परिमार्जित और सुसंस्कृत एक बेहतर मानव बनाते हैं.
क्या आज के कथाकारों को हमारी विरासत की ओर लौटकर नहीं देखना चाहिए, जहां की कथाओं में भौतिक द्वन्द के साथ-साथ आत्मिक द्वन्द एवं संशय की स्थिति तथा उनसे निपटने के उपाय प्रचुर मात्रा में है!