प्रवेशांक-बहस-लोककथा

कला, साहित्य, संगीत, खेलकूद इत्यादि रचनात्मक चीजों की जरूरत हम महसूस करतें हैं- क्यों ?
यह तो एक तथ्य है कि मनुष्य जितना दिखाई देता हैं वह सिर्फ उतने तक ही सीमित नहीं हैं, अर्थात् मनुष्य के इस भौतिक आयाम के अलावा कई विभिन्न आयाम हैं- मानसिक, आत्मिक इत्यादि. जैसे-जैसे मानव विकसित होता गया है, उसका ऊपरी स्वरूप कम, भीतरी स्वरूप अधिक सुसस्ंकृत और सुरूचि सम्पन्न होता गया है। यह सहज है और प्राकृतिक भी- मनुष्य के विकास की गति उसके केंद्र की ओर! पर यह प्रक्रिया बहुत सरल नहीं, बल्कि एक जटिल, संश्लिष्ट किस्म का स्वरूप लिए होती है. कथा, कविता, चित्रकला से लेकर अभिनय, नाट्य-नृत्य जिस ओर नज़र दौड़ाइए – मानव अभिरूचि का खाका बहुत कुछ ऐसा ही दिखता प्रतीत होता हैं- सरल से जटिल होती जाती प्रक्रिया! अगर यह स्वाभाविक है तो इसे कोई रोक भी नहीं सकता, यहां पर विचार इसी प्रश्न पर करने की कोशिश की जा रही है कि लोककथा या लोककला या लोकसंगीत क्यों आज भी, चाहे वह मनुष्य जितना भी, सांस्कृतिक ऊंचाई हासिल कर चुका हो और अपनी सोच सुविकसित कर चुका हो, विचारों में संश्लिष्ट हो, मगर ‘लोक’ कला या संगीत या कथा के सहज जादू से अछूता नहीं रह सकता। अर्थात् वह उसे नापसंद नहीं कर सकता। (अपवाद छोड़ दें) क्यों ? क्या लोक कलाएं हमारे आदिम स्वरूप की पहचान हैं ? क्या यह इस कारण संभव है कि मनुष्य चाहे जितनी ऊंचाई या गहराई पा ले वह अपने आदिम वृत्तियों से परे नहीं जा सकता ?
यहां अनेक सवाल खड़े हो सकते हैं और तदनानुसार जवाब भी दिए जा सकते हैं.
थोड़ा लोककला पर विचार करते हैं, विशेषकर लोककथा के सन्दर्भ में!
लोककलाओं के साथ एक बहुत अच्छी बात ये रही हैं कि ये बहुत लचीली होती आई है. सभ्यता के इतिहास से एक ही कथा भिन्न-भिन्न अांशिक परिवर्तनों के साथ अपने समय व परिवेश को ध्यान में रखते हुए परिवर्तित होती रही हैं. कथा, गीत, नृत्य, चित्र, स्तर पर. और ये आज भी बदस्तूर जारी है. हम सभी जानते हैं कि इनके रचयिता अज्ञात ही रहे हैं, सच यह भी है कि ये अपने मौखिक रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी स्थानांतरित होते गये. इनका कोई इतिहास नहीं खोजा जा सकता है. मानव इतिहास ही इनका वास्तविक इतिहास प्रतीत होता है. जितना कठिन है लोककलाओं का इतिहास ढूंढना, उससे कमतर कठिन यह नहीं है कि इनका आकार-प्रकार खोजा जाए- यथा पौराणिक लोक कथाएं, परी कथाएं, वेताल कथाएं, मिथक कथाएं, जानवरों, पशु-पक्षियों पर आधारित कथाएं इत्यादि. जिनमें राजा-महाराजाओं के अविश्वसनीय किस्से होते हैं, जो सम्बन्धित धर्म-संस्कृति के जबरदस्त वाहक होते हैं, जिन नायकों-महानायकों पर लोगों को गर्व होता है और उनकी मिसाल को राष्ट्रीय/क्षेत्रीय पहचान के रूप में दिया जाता है। जिनका मिथक या पौराणिकता, ऐतिहासिक तथ्यों को एकदम से खारिज कर देती हैं – आज क्या यह विश्वास नहीं किया जाता कि हनुमानजी समुद्र पार कर गये थे, या हिमालय उठा लाए थे, या कर्ण कवच-कुण्डल के साथ धरती पर अवतरित हुआ था, कि विक्रम के सर पर वेताल सवार होकर कहानी सुनाता था और कहानी के अंत में सुनाई कहानी का उत्तर मांगता था, कि भीम को दस हजार हाथियों का बल था या भीष्म तीरों की शैय्या पर कई दिनों तक सोए रहे. कि मध्यकालीन वीर युद्धभूमि में लड़ते-लड़ते एक-दूसरें के सर कलम कर स्वर्ग चले जाते हैं और वहां भी बिना सर के एक-दूसरे पर तलवार से वार….. ! बहुत सारे उदाहरण हैं.
हालांकि रामायण-महाभारत को क्लासिक का दर्जा है पर ये अपने अन्तः स्वरूप में मूलतः लोककथाएं हैं जिनका अधिकांश अतीत ‘लार्जर दैन ‘लाइफ’ है, वह चरित्रों के मार्फत से जीवन में अविश्वसनीय, असंभव घटनाओं को अंजाम देता है. राम, समुद्र सुखा देने को तत्पर है, रावण के दस सिर हैं जो कटकर भी फिर-फिर से जुड़ जाते हैं उसके ‘प्राण’ भी कहीं और सुरक्षित हैं, जैसे एक राक्षस का प्राण किसी तोते में था और तोता किसी अज्ञात, दुर्गम स्थल पर गोपनीय तरीके से रखा गया था. राक्षस को मारना है तो उस तोते को मारना पड़ेगा.
तथ्य, यथार्थ, सत्य या इतिहास ? क्या आज कोई यह इनकार कर सकता है कि राम की जन्मस्थली अयोध्या नहीं है, या द्वारका, मथुरा, वृंदावन का पौराणिक महत्व नहीं है.
जो यह प्रश्न उठाते हैं कि क्या साहित्य व्यक्ति या व्यक्ति के विचार परिवर्तित कर सकता हैं, उन्हें ध्यान देना चाहिए कि गल्प या किस्सों ने तथ्यात्मक इतिहास को कब का खारिज कर स्वयं स्थापित हैं. इतिहास अर्थात् तथ्यात्मक सत्य-शायद मनुष्य हाड़-मांस का एक रोबोट होता तो इन तथ्यों की ओर भागता, मगर नहीं, मनुष्य उस अज्ञात, अविश्वसनीय चमत्कार या दुर्लभ की ओर भागता है जिनके अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिन्ह लगा रहता है. मनुष्य को यह फेंटेंसी, अतिअविश्वसनीयता, क्यों आकर्षित करती है ? क्योंकि शायद वह यथार्थ में स्वयं अधूरा महसूस करता हैं, या अज्ञात उसे आकर्षित करता हैं ? रोमांच, दूर की चीजों के प्रति गहरा लगाव ? कहीं ईश्वर (और शैतान भी) का जन्म भी इन्हीं कारणों के तहत हुआ प्रतीत नहीं होता ?
सवाल ढेर सारे हैं. पहले भी ऐसे प्रश्न पूछे गये हैं और जवाब भी दिए गये हैं -होंगे -होते रहेंगे.
पुनः अपनी बात पर आता हूं. लोककथाओं की अन्य विशेषता जो भिन्न देशां- भिन्न परिवेशों में अलग अलग तरीके से कही सुनी गयी हैं, अपने समय व परिवेशों के मद्देनजर परिवर्तित होते हुए. वेताल या भूतों की कहानी, कहीं गुस्सैल ऋषियों के शाप से उत्पन्न किस्से. कहीं देवताओं के अभिशाप या वरदान से उत्पन्न कहानियां. सुपर नैचुरल होना लोककथा की विशेषता है. चमत्कार या जादुई यथार्थ पग-पग में बिंधे हैं. आगे रास्ते में कैसा मोड़ आएगा, नहीं पता! मनुष्य की जिज्ञासा यहां खूब उत्तेजित होती हैं. रोमांच बना रहता है. और अंत में एक विश्वास- कि नायक या नायिका के साथ अंत अच्छा होगा.
इस अटूट विश्वास को पौराणिक या लोककथाओं ने कभी भंग करने का प्रयास नहीं किया. कथा में सजा का पात्र बनाया गया है तो सिर्फ खल को!
क्या इस गहरे विश्वासी होने का कारण ही यह तो नहीं कि चरित्र नायक से जुड़ी तमाम जगह, परिवेश हम सहज स्वीकार कर लेते हैं और तथ्यों की तरफ सोचना भी नहीं चाहते.
लोककथाआें में तथ्य या इतिहास गौण रहे हैं – हमने तो चरित्रों के ‘‘लार्ज देन लाइफ’’ को ही इतिहास मान लिया है. और यह कमोबेश दुनिया के सभी हिस्सों में है.
यहां फिर घूमकर वही बात आती है-विश्वास! क्या मनुष्य एक विश्वासी या सहज स्वीकार करने वाला प्राणी हैं, या यह कथाओं -मिथकां व क्लासिकों की ताकत हैं कि कथा तत्वों के प्रवाह में आकर वह कुछ भी यकीन करने को तैयार हो जाता हैं.
जाहीर हैं – सत्य एक आयामी नहीं हो सकता!
फिलहाल, लोककथाओं या अन्य कथाओं में वे चाहे परीकथाएं हों, वेताल या भूत कथाएं हों, एय्यारों की कथाएं हों, जानवरों को केंद्र में रखकर रची गई कथाएं हों- मानव मूल्य को हमेशा अक्षुण्ण रखा गया हैं. बच्चों के साथ-साथ अल्प पढ़े लोगों के लिए भी ऐसी कथाएं सहज ग्राह्य हैं. आज धर्म सम्बंधित उपदेशक लोककथाओं पर आधारित किस्सों के जरिए अपनी बात कहते हैं, यही नहीं, विश्वविद्यालयों में आधुनिक मैनेजमेंट-फंडा के पाठ तक लोककथाओं की तर्ज पर पढ़ाएं जाते हैं. जाहिर सी बात है इनकी ताकत ग्राहता, सहजता और परिवेश के अनुकूल इनकी लोच! ये सारी खूबियां समकालीन या आधुनिक साहित्य में ढूंढना मुश्किल ही है क्योंकि इनकी संरचना ही हर स्तर पर, भाषा से लेकर फार्म तथा विषय तक, बहुत जटिल होती हैं कर्म एक खास तरह के पाठक वर्ग की मांग करते हैं.
इसका सीधा सा मतलब ये हैं कि आधुनिक साहित्य का पाठक लोककथाओं का पाठक हो सकता हैं, लेकिन, संभव है लोककथाओं का पाठक आधुनिक साहित्य को छू भी न सके.
इन सारी बातों का यहां लिखने का क्या प्रयोजन है, खासकर हिन्दी के पाठकों के मद्देनजर. पिछले कुछ वर्षों से जिस तेजी से हमारा समय बदला है और जिस तेजी से तकनीक का हमारे जीवन में दखल हो रहा हैं – और यह प्रक्रिया और तेज होने वाली हैं – इसे देखते हुए साहित्य के समक्ष संकट तो नहीं, मगर चुनौती तो अवश्य खड़ी हो गई हैं. पाठक तो ऑडियो-वीडियों के सहारे चला गया हैं. शब्दों का अस्तित्व कथा सिर्फ ‘कम्यूनिकेट’ या ‘चैटिंग’ के लिए सीमित रह गया है ?
बेशक चुनौती गंभीर हैं और सिर्फ एक उपाय कारगर सिद्ध नहीं होंगे, लेकिन शब्द की सत्ता क्या मौजूद हैं, इसकी सत्ता हैं, इसके लिए शब्द की क्षमता, मानव के संवेदना -विचार-तंत्र इत्यादि को समझने का भरसक प्रयास करना समीचीन होगा. वरना आधुनिक साहित्य चंद आधुनिक लोगों के लिए लिखे जाते रहेंगे.
लोगों का राग, कथा से, कलाकर्म से बना रहे, वर्तमान ऑडियों-वीडियों के दौर में हमारी कथा कैसी हो, -प्रश्न विचारणीय हैं और इसका जल्द या आसानी से हल मिलनेवाला भी नहीं है. पाठकों की समस्या दुनिया की हर भाषा में बढ़ी हैं और दुनिया भर के लेखक-प्रकाशक अपने पाठकों तक अधिक से अधिक पहुंचने हेतु सतत् प्रयत्नशील है. (शायद हिन्दी भाषा-भाषी यहां अपवाद है, क्षमा करेंगे.)
लोककथाओं / कला पर विचार करते हुए हम इसे अस्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि मनुष्य आज जो एक ’सॉफिस्टकेड बॉडी’ बन बैठा है, आज भी कहीं न कहीं बहुत भीतर से ही सही, किसी कोने में ही सही, मगर अपने स्वरूप सा मूल में आदिम है.

राग, संस्कार, संसार की वासनाएं हमारा पीछा छोड़ने वाली नहीं-इन चीजों को हमारा बाजार आए दिन, सुबह शाम उत्तेजित कर रहा हैं, लेखक-विचारक क्यों पीछे हैं ? लोककथाएं / कलाएं हमारी आदिम भावनाएं-जिज्ञासा, रोमांच, अविश्वसनियता, महान आदर्श, प्रेम-घृणा, अज्ञात के प्रति लालसा जगाने में समर्थ रही हैं – हमें क्या करना चाहिए, क्या एक रास्ता इस और भी जाए यह उचित नहीं लगता ? हमें आज ऐसे आधुनिक साहित्य की जरूरत है जो ऐसा विकल्प तैयार करे जो टीवी या अन्य माध्यमों में दर्शाना संभव नहीं. यह एक तरह से कांटे से कांटा निकालने जैसा ही कुछ है – और यह कांटा हिन्दी साहित्य में ‘लोककथा’ नाम का कांटा हो तो क्या बुरा ?
अर्थात् आधुनिक रचनाशीलता कैसी हो – लोककथाएं और तमाम लोककलाएं हमें राह दिखा सकती हैं.