अर्ध रात्रि का ज्ञान-31 jul 22

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अर्ध रात्रि का ज्ञान
पकने का समय कई दिनों से अब तक/लिखने का समय 8.00 पी.एम. से 09.35 पी.एम. दिनांक-31 जुलाई 2022

धर्म के नये प्रगतिशील संस्कार
लेखक-सनत सागर, संपादक बस्तर पाति, जगदलपुर, छ.ग.

एक समय था जब कहा और लिखा जाता था कि अगर शहर और गांव में वेश्यायें न हों तो बलात्कार की घटनाएं बढ़ जायेंगी। इस बात को जनरलीकृत करके देखना मूर्खता के पैमाने की पराकाष्ठा होगी। और इस बात को किसी विकृत मानसिक व्याभिचारी प्रगतिशील ने अपनी कमजोरी पर परदा डालने के लिये ही कही होगी।
इस बात से इत्तेफाक न रखते हुये इस मुहावरेनुमा वाक्य का मात्र मंतव्य ग्रहण भी करते हैं तो हम समाज में कई ऐसे उपक्रम पाते हैं जिनके न होने से समाज के विकृत होने का भय व्याप्त हो जाता है।
हमने आपने कभी रेहड़ी वालों के अस्तित्व पर अच्छे से ध्यान दिया ही नहीं है कि अगर ये न होते तो समाज के जाने कितने ही परिवार अपनी इच्छाओं का दमन करके बेचारगी में जी रहे होते। ये बात बेहद ही कठीन है समझने में परन्तु दावा है कि एक बार अगर समझ आ जाये तो हमेशा के लिये समझ आ जायेगी बात।
यहां एक महत्वपूर्ण बात और है। अगर ये रेहड़ी वाले न होते तो ये कुछ लोग धर्म के मार्ग पर जाने कैसे चल पाते। बात कुछ यूं भी है कि अंगर अंधेरा न होता तो उजाला कैसे लाते।
हुआ यूं कि शहर के पार्क में लोग शुद्ध हवा की तलाश में सुबह से लेकर शाम तक पहुंचते रहते हैं। पार्क यानी तरह तरह के पेड़ों का स्थान जहां पर ऑक्सीजन का भंडार होता है। शहर भर के बूढ़ों का ठिकाना। बीमारों का जमघट।
चूंकि पार्क के चारो ओर सिर्फ पेड़ों और हरी झाड़ियों का घेरा होता है अतः मुख्य मार्ग की ओर खाली जगह होती है। ये जगह पहले गुपचुप चाट, आइसक्रीम और कुछ सब्जी वालों से पटती जाती है। फिर धीरे धीरे उनके ठेले गुमटियों में बदलने लगते हैं। गुमटियां पक्की झोपड़ियों में।
जहां शहरीकरण के चलते पैदल चलना भी दूभर हो चुका है वहां दोपहिया औैर चारपहिया वाहनों के लिये तो ट्राफिक विभाग को जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। वे तरह तरह के कारण ढूंढकर (गढ़कर) दोपहिया और चारपहिया वाहनों को सड़कों पर चलाने में हतोत्साहित करते हैं। इसके लिये दिनरात भयंकर पसीना बहाना होता है। वे ऐसे वाहन चालकों ओर मालिकों पर हजारों की दर से दिन भर में लाखों रूपयों का जुर्माना करते हैं। यहां भी अगर सामने वाला देने लायक न हो तो उससे कुछ ही पैसे लेकर ऊपर ऊपर ही निपटा लेते हैं।
गरीबों के लिये सरकार का हर विभाग हमेशा सेवा करने को तत्पर रहता है। आप चाहो तो आधी रात को प्रयास करके उनकी तत्परता देख सकते हैं।
रेहड़ी वालों को अगर उनका पसारा सड़कों पर न बिखेरने दिया जाये तो उन बेचारों का घर कैसे चलेगा उन बेचारों की पाक प्रतिभा, व्यापार प्रतिभा और शहरीकरण की दौड़ में शामिल होने की प्रतिबद्धता का क्या होगा ? आखिर कोई तो होगा उनकी मेहनत को समझने वाला मसीहा! उन बेचारों के लिये नगर निगम, ट्राफिक विभाग, पुलिस विभाग हर किसी को मसीहायी दिखाने का मौका मिलता है। अगर ये लोग अपने पर आ जायें तो कोई भी यूं सड़क पर अपना जीवन यापन नहीं कर सकता है। ये विभागीय कर्मचारी अपनी नौकरी दांव पर रखकर इनको जीवन यापन करने देते हैं। और इन विभागों के उच्चाधिकारी भी अपना सहयोग अलिखित सहमति प्रदान कर देते हैं। और वे भी बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं।
इस नेक कार्य के एवज में जरा सा प्रसाद चढ़ाना होता है। अपने ठेले, गुमटी से रोजाना दो तीन प्लेट चाट, समोसे, चाय के कुछ कप, मोमोज की कुछ प्लेट, कुछ सब्ज्जियां आदि इनके दर पर पहुंचानी होती है। ऐसा भी नहीं है कि उसी अधिकारी कर्मचारी को ही रोज रोज देना होता है, अलग अलग विभाग होते हैं उनके दिन भी अलग होते हैं। जरा जरा से सहयोग से सबका काम चल जाता है।
रेहड़ी पर छोटा मोटा कपड़ा व्यवसाय लगाने वाले अपनी दुकान से कभी टावेल, गमछा या फिर चड्डी बनियान दे देते हैं। इसका ये मतलब कदापि नहीं है कि ये लूटपाट सड़कों पर रेहड़ी लगाने के एवज में की जाती है। आप ही विचार कीजिये अगर कोई कहीं नाश्ते का होटल खोलता है तब उसे दुकान का किराया, बिजली का बिल, होटल का लाइसेंस, गुमाश्ता लाइसेंस, नल का कनेक्शन, होटल चलाने का फूड लाइसेंस नहीं लेना पड़ता ? उसके होटल की जांच समय समय पर निगम के द्वारा नहीं की जाती ? इतनी सारी परेशानियों से दूर करने के बाद भी आप चाहते हैं रोजाना का चार छै प्लेट नाश्ता सरकारी नुमाइंदों तक न पहुंचे तो फिर आपकी बुद्धि खराब हो गयी है। आप प्रगतिशील समाज में रहने लायक नहीं हैं। प्रगतिशील समाज में तमाम परेशानिं के बीच रहकर ही उन परेशानियों की निन्दा करने का नियम होता है। अगर आप प्रगतिशील नहीं हैं तो समाज के वंचित शोषक वर्ग के लिये कभी भी अच्छे भाव नहीं रखेंगे। आप प्रगतिशील नहीं हैं तो आप सरकारी कर्मचारियों के लिये कभी भी अच्छा सोच नहीं पायेंगे। उनकी परेशानियों का गट्ठर उनके कंधे पर लदा हुआ, कभी नहीं देख पायेंगे। उनके जनसेवा के कार्यों को कभी रेखांकित नहीं कर पायेंगे। वास्तविक समाजवाद की परिकल्पना यही तो है। समाज के वंचित वर्ग तक सहुलियतें पहुंचे इसके लिये भले उनके ही बनाये हुये नियमों को तोड़ने मरोड़ने में पेट में मरोड़ न उठे।
हां, ये अलग बात है कि इन प्रगतिशीलों की दूसरी विंग हमारे देश की प्रगति की तुलना समय समय पर विश्व के सबसे ज्यादा विकसित देश से करती रहेगी और गालियों का अम्बार लेकर निकलेगी कि देश के नेताओं ने और धार्मिक परम्पराओं ने देश का विकास रोक रखा है।
देश में वास्तविक समाजवाद तो सरकारी कर्मचारियों द्वारा ही सम्भाला जा रहा है। साथ ही दान और धर्म के नये रास्ते भी इन्होंने खोज निकाले हैं। वरना कूपमंडूक धर्माधिकारी तो सिर्फ ’पैसा डालो दान पात्र में’ ही धर्म और दान का पर्याय समझाते थे। अब तो वास्तविक मीमांसा हुई है ’जीयो और जीने दो’ की।हमारे साझेदारों, shoes पर जाएँ – फैशनेबल जूते में अग्रणी!

धर्म को प्र्रगतिशीलता से जोड़कर आखिर प्रगतिशील लेखक संघों ने इस देश को व्यवहारिक रूप से रास्तें में लाने का सफल प्रयास कर ही लिया है। उनकी प्रगतिशीलता के विकास और प्रचार के प्रति प्रतिबद्धता को नमन करते हैं।