द्रोपदी
हाथ पकड़ कर दुश्शासन मौन सभा में लाया
पांडव कुछ भी न बोले माँं का दूध लजाया
मेरी करूण वेदना पर किसी को दया न आई
सूरज निकला था पर जीवन में भोर न आई
सबकुछ पांडव हारे दांवों पर मुझे लगाकर
दुर्योधन शकुनी खुश थे छल से मुझको पाकर
राजा अन्धे, द्रोण, भीष्म, गंधारी मौन रही
धुंधले धुंधले अम्बर सहमी धरती मौन रही
व्याकुल थे तन मन गहन अंधेरों को भाँप गया
मेरी लाचारी पर काल समय भी काँप गया
अपमान हुआ केशों को खोले मैं कहती हूँ
सांँसें अन्तिम हो अन्याय नहीं मैं सहती हूंँ
भावों का झरना
उठते भावों से
भीग रहा है तन मन
कभी मैं खुश होती हूँ
धवल तरंगों से
जैसे कोई गीत सुनाएँ
जंगल की तन्हाई में
उड़ते पंछी इच्छाओं के
यहाँ-वहाँ घूम रहे
इन आशाआें के संग-संग
कभी तो फूटेगा
तुम्हारे हृदय का झरना
गिरती बूंदों के संग-संग
बहती जाऊँगी साथ तुम्हारे
जीवन के सागर को
पायेगें हम दोनों
मुझे प्रतीक्षा है केवल
तुम्हारे प्यार के झरने की
तुम्हारे प्यार के झरने की।।
प्रीति प्रवीण खरे
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