पूर्णिमा सरोज की कवितायेँ

आमंत्रण

आओ
मैं तुम्हें,
अपने मौन भाषण में
बस,
एक बार,
तुम मेरे जख़्मों की
गहराई में उतर जाओ।
मेरे
अंतर में
अपनी छवि पाकर तुम,
अचंभित रह जाओगे।
पर मेरी पीड़ा
जो तुम्हारी ही देन है
क्या
तुम उसे
महसूस कर पाओगे ?
क्या
तुम्हारा हृदय
मौन में
दर्द देखना जानता है ?
क्या पता
तुम्हारा हृदय
मुझ तक आकर
मेरी पीड़ा देख पायेगा ?
या
उसे कुछ और बढ़ाकर
लौट जायेगा ?
लगता है
मेरा दर्द
तुमसे
नहीं समझा जायेगा।
और
शब्दों के अभाव में
मेरा सबकुछ
अनकहा ही रह जायेगा।

तारा

तनहा थी मैं बैठी हुई,
किसी उलझन में थी खोई हुई।
यादों का एक झोंका आया,
धीरे से मेरे विचारों को सहलाया।
स्मृतियों के क्षितिज में एक ‘तारा’
तनहा, अकेला, बेसहारा।
कभी अतीत में
कभी वर्तमान और कभी भविष्य में,
खोया हुआ एक तारा।
ये तारा टूटकर गिरने को था,
कि उड़ते हुए बादल ने उसे थामा।
क्यों गिरते हो विचारों के बादल से,
गिरोगे तो गिरेंगी बूंदें।
बादल के वचन सुन तारा
कुछ विचार किया गुमसुम।
और पुनः चमकने लगा,
विचारों के आसमान पर।
उलझन मेरी सुलझा गया,
नव उत्साह से मेरा पूर्ण किया।

साथी

सबने देखा मुझको साथी,
मैंने देखा तुमको साथी।
आता है स्नेह तुम पे साथी,
है शिकवा भी तुमसे साथी।
है शिकायत भी तुमसे साथी
ये कैसा है रिश्ता साथी।
ये कैसा है नाता साथी,
बिन डोर का है बंधन साथी।
है प्रेम का ये बंधन साथी,
है हाथों का कंगन साथी।
है होंठों की लाली साथी,
है अधरों की मुस्कान साथी।
है आंखों का अंजन साथी,
है नयनों का सपन साथी।
देखो अब तुम मुझको साथी,
मैं देखूं बस तुमको साथी।

पूर्णिमा सरोज
व्याख्याता
मेटगुड़ा, जगदलपुर
जिला-बस्तर
मो-09424283735

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