पुस्तक अंश : लालाजी समग्र : हरिहर वैष्णव

लाला जगदलपुरी : जैसा मैंने जाना

लालाजी का सृजन इतना उत्कृष्ट और प्रमाणिक कि लोग उनका लिखा चुराने लगे।बाल साहित्य लेखन में भी उनका गुणात्मक योगदान उल्लेखनीय और सराहनीय रहा है। लालाजी के अतीत का थोड़ा-सा समय साहित्यिक पत्रकारिता को समर्पित रहा। वे जगदलपुर से कृष्ण कुमार जी द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक ‘अंगारा’ में सम्पादक, रायपुर से ठाकुर प्यारेलाल जी द्वारा ‘देशबंधु’ में सहायक सम्पादक, महासमुन्द से जयदेव सतपथी द्वारा प्रकाशित ‘सेवक’ में सम्पादक और जगदलपुर से ही तुषारकान्ति बोस जी द्वारा बस्तर की लोकभाषा हल्बी में प्रकाशित साप्ताहिक ‘बस्तरिया’ में सम्पादक रहे। वे इस साप्ताहिक के माध्यम से आंचलिक पत्रकारिता के सफल प्रयोग से चर्चित रहे। उन्हें देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन मिलता रहा। यद्यपि उनके खाते में 2004 में छत्तीसगढ़ शासन के पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान सहित 1972 से लगातार
प्राप्त होने वाले अनेकानेक सम्मान दर्ज हैं तथापि दो ऐसे सम्मान हैं, जिन्हें वे बारम्बार याद करते हैं। इन सम्मानों की चर्चा करते हुए उनकी आंखों में एक अनोखी चमक आ जाती है।
सन् 1987 के दिसम्बर महीने की एक शाम। जगदलपुर नगर के सीरासार हाल’ में शानी जी का नागरिक अभिनंदन किया जा रहा था। बस्तर सम्भाग के तत्कालीन आयुक्त सम्पतराम उस सम्मान-समारोह की अध्यक्षता कर रहे थे। ‘सीरासार (सिरहा-सार) आमंत्रितों से खचाखच भरा था। उस कार्यक्रम में लालाजी भी आमंत्रित थे। वे सामने बैठे हुए थे। कार्यक्रम शुरू हुआ। शानीजी को पहनाने के लिए फूलों का जो पहला हार लाया गया, उसे लेकर शानी जी मंच से नीचे उतर पड़े। लोग उन्हें अचरज भरी उत्सुकता से देख रहे थे। शानी जी सीधे लालाजी की कुर्सी के पास आ खड़े हुए। लालाजी भी तुरन्त खड़े हो गये। हार उन्होंने लालाजी के गले में डाल दिया। दोनों आपस में लिपट गये। आनन्दातिरेक की घड़ियां थीं। अप्रत्याशित और अनसोचा दृश्य था। प्रायः जैसा नहीं होता, वहां वैसा हो गया था। उपस्थित लोग भाव-विभोर हो गये थे। वातावरण में कई क्षणों तक तालियों की गड़गड़ाहट गूंजती रही थी। उस दृश्य को याद कर लालाजी कहा करते हैं- ‘उस अभिनन्दन समारोह में मुझे ऐसा लगा कि वहां अभिनन्दन मेरा हुआ है।’जगदलपुर स्थित मण्डी प्रांगण में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के मंच पर स्व. दिनेश राजपुरियाजी लालाजी को सम्मानित करना चाहते थे। वे लालाजी से मिले किन्तु लालाजी ने बड़े संकोच के साथ उनसे क्षमा मांग ली थी। उस रात कवि सम्मेलन को लालाजी के संकोच का जिक्र करते हुए घोषणापूर्वक उन्होंने लालाजी को समर्पित कर दिया था। लालाजी इस घटना को याद करते हुए कहते हैं-‘…..और मैं मन ही मन सम्मानित हो गया था।’
यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि वे प्रत्येक उस रचनाकार की रचना को बड़े ममत्व से पढ़ते और उस पर अपना रचनात्मक सुझाव देते हैं, जो उनसे अपनी रचना को ‘देख लेने’ का आग्रह करता था। ऐसे रचनाकारों में सुप्रसिद्ध कथाकार-उपन्यासकार शानी और आलोचना के शिखर पुरूष डॉ. धनंजय वर्मा के अलावा सुरेन्द्र रावल, लक्ष्मीनारायण पयोधि और त्रिलोक महावर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
किन्तु वे दोषी हैं। और दोष यह है कि वे निर्दाष हैं। सच ही तो है, निर्दोष होना ही तो आज के युग में दोष है। वे निर्लिप्त हैं प्रचार-प्रसार से कोसों नहीं बल्कि योजनों दूर रहने में भरोसा करते हैं। आत्म-संतोषी होना दोष है तो वे दोषी हैं। कारण, वे आत्म-संतोषी हैं। वे एक साक्षात्कार में कहते भी हैं कि उन्हें जितना और जैसा प्रकाशन मिला वह यथेष्ट है। उन्हें लोगों द्वारा सम्मनित किया गया, यही उनका असली सम्मान है। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के सम्मान को वे तूल भी नहीं देते। जगदलपुर ही नहीं अपितु पूरे बस्तर और बस्तर के बाहर छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में उन्हें जाना जाता है। लोग उन्हें पहचानते हैं और सम्मान देते हैं। बस! इतना ही उनके लिए पर्याप्त है। बस्तर और बस्तर के बाहर के लोग बस्तर सम्बंधी जानकारी के लिए उन्हें न केवल याद करते हैं बल्कि उनकी सामग्री का भी भरपूर उपयोग करते हैं और बदले में दिखा देते हैं ठेंगा। किन्तु लालाजी को इसकी कोई शिकायत नहीं। वे कभी किसी को कोई भी जानकारी देने से इंकार नहीं करते। उनका कहना है, ज्ञान बांटने से बढ़ता है। फिर उसे संदूक में बंद कर रखने या मन में छिपा कर रखने से क्या लाभ ? बस! उनकी इसी उदार और स्वाभाविक सोच ने उनसे उनका सारा ज्ञान चोरी करवा लिया। लोगों ने मांगा और चुराया भी। न केवल चुराया बल्कि उस चोरी के माल से राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति भी अर्जित की। वे नहीं चाहते कि उनकी चर्चा प्रान्तीय या राष्ट्रीय स्तर पर किसी ‘जुगाड़’ के तहत हो। वे दोषी इस बात के भी हैं कि वे सरकारी सुविधाएं नहीं झटक सके जबकि उनके चरणों की धूलि से भी समानता करने में अक्षम लोगों ने सारी सरकारी सुविधाएं बटोर लीं। यदि स्वाभिमानी होना गलत है, तो वे गलत हैं। कारण, स्वाभिमान तो उनमें कूट-कूट कर भरा है। वे अपने एक संस्मरण में कवियों के चार प्रकार गिनामे हैं, अफसर कवि, नेता कवि, व्यवसायी कवि और फक्कड़ कवि। उनके द्वारा किये गये इस वर्गीकरण में वे स्वयं को ‘फक्कड़ कवि’ की श्रेणी में पाते हैं। साहित्य की साधना करना दोष है तो वे दोषी हैं, क्योंकि वे तो साहित्य-साधक हैं; तपस्वी हैं। एकनिष्ठ होना यदि दोष है तो वे दोषी हैं क्योंकि उनका एकमात्र उद्यम है साहित्य-साधना। साहित्य की राजनीति और गुटबाजी से अपने आप को दूर रख कर रचना-कर्म में लगे रहना यदि दोष है तो लालाजी दोषी हैं, क्योंकि न तो उन्होंने साहित्य की राजनीति अपने पास फटकने दिया और न गुटबाजी की दुर्गन्ध की ओर अपनी नाक ही दी।

लालाजी अपनी दिवंगत माता को शिद्दत से याद करते हुए अत्यंत भावुक हो उठते हैं। उन्हें स्मरण कर आज 92 वर्ष की आयु में भी उनकी आंखें पनीली हो आती हैं। निम्न मुक्तकों में अपनी माता के प्रति उनकी श्रद्धा और भक्ति प्रदर्शित होती हैः-
आयु के तुमने भयानक वर्ष झेले,/नर-पिशाचों के गलत आदर्श झेले,
जन्मदात्री! खूब था जीवन तुम्हारा/खूब, तुमने खूब ही संघर्ष झेले।
माता की मृत्यु ने उन्हें विचलित कर दिया था। वे अपनी माता की मृत्यु से इतने व्यथित हुए कि उन्हें ‘भगवान-खोली’ यानी पूजा कक्ष भी माता की अनुपस्थिति में सूना लगता हैः-
हृदय सूना, प्राण सूने,/नयन सूने, कान सूने
क्या करें भगवान-खोली/मां बिना भगवान सूने।
माता का वरदहस्त उनके सिर पर था और ऐसे में जब उनकी मृत्यु हुई तो लालाजी पर मानो गाज ही गिर पड़ी। उन्हें अपनी माता से बहुत सम्बल मिला करता था। दीनता से भरे समय में भी माता के हाथ ऊंचे रहा करते, कटि झुकी होने के बावजूद उनका माथा ऊंचा रहा करताः-
पेट भूखा, हाथ ऊंचा!/कटि झुकी, पर माथ ऊंचा।
थी गिरी हालत, मगर मां,/ था तुम्हारा साथ ऊंचा!
लालाजी को इस बात का सदैव दुःख रहा कि उनकी माता के संगी केवल और केवल दुःख और दर्द ही रहे थे। यह दुःख उनको सालता रहा हैः- संगी थे दुःख-दर्द तुम्हारे,/ थीं तुम इतनी नेक, रहमदिल
सबकी फरियादें पी-पी कर,/ घुटती रहती थीं तुम तिल-तिल।
मां के रूप मिलीं तुम मुझको,/मुझे दे गई मेरी मंजिल।
मन के गगन तुम्हारी सुधियां,/रात-रात भर झिलमिल-झिलमिल।
माता की दिनचर्या में केवल और केवल काम हुआ करता था। विश्राम के पल आते ही नहीं थे। उन्होंने अपनी माता को हमेशा ‘कमेलिन’ की तरह काम में जुटी हुई देखा थाः-
कभी सीती-टांकती-सी दिख पड़ती हो/जख़्म ताजा आंकती-सी दिख पड़ती हो,
कभी कमरे में रसोई के कमेलिन मां!/खोलती कुछ ढांकती-सी दिख पड़ती हो!

आंतरिक स्फूर्ति मेरी खो गई,/हृदय-धन की पूर्ति मेरी खो गई,
वेदना ही वेदना में एक दिन/वेदना की मूर्ति मेरी खो गई!

नीड़ छोड़ कर चल बसी,/चिड़िये! तुम किस ठौर ?
किस तरू की किस डाल पर,/ किया बसेरा और ?

हरिहर वैष्णव
सरगीपाल पारा,
कोण्डागांव
जिला-कोण्डागांव,
मो.-09