लालाजी…….जैसा मैंने उन्हें जाना
विद्युत विभाग में नौकरी के चलते हम लगभग 18 वर्ष जगदलपुर में रहे। जगदलपुर आकाशवाणी की नियमित श्रोता, आकस्मिक कलाकार और कम्पीयर होने के कारण लालाजी मिले मुझे। बाद में उन्हें करीब से जाना और उनका स्नेह पाया। यदि उनकी हर मुलाकात को लिखकर रखती, तो मेरे पास उनकी बातों का एक बड़ा खजाना होता, पर मैं ऐसा न कर सकी। यादों के पृष्ठों पर जमी धुंध को हटाते हुए कुछ लिखने का प्रयास कर रही हूँ।
आकाशवाणी, जगदलपुर से प्रसारित उनके चिंतन, वार्ता, नाटक एवं रूपकों को सुनने के कई अवसर मिले। नाटक ‘गुंजली’, रूपक ‘पत्तों की पात्रता’, बस्तर के अनूठे वाद्ययंत्र, जगतू गुड़ा से जगदलपुर, लोकोक्तियों में झलकता बस्तर, विधात्री रक्तदंता आदि-आदि बार-बार प्रसारित होते रहे।
उनसे मिलने की इच्छा हुई। मैं अपने पति के साथ उनके घर पहुंची डोकरीघाट पारा स्थित कवि-निवास में। वे अपने छोटे भाई के परिवार के साथ रहते थे। दुबली-पतली काया, मध्यम कद, पीछे गर्दन तक लम्बे बाल, चौड़ी भौहें, बड़ी-बड़ी आँखें, लटकी हुई ठुड्डी, झुर्रियों से भरा चेहरा, चेहरे पर ब्रह्मचर्य का तेज और आवाज़ में युवाओं सा ओज। सफेद धोती, सफेद कुर्ता और कंधे पर गमछा डाले नगर-परिक्रमा करते उन्हें कई बार देखा था। उनके चरम-स्पर्श कर हम धन्य हुए। कुर्सियों पर रखे कुछ कागज और छोटे-छोटे सामानों को हटाकर हमें सादर बिठाया। हमारा परिचय लिया और अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव सुनाने लगे। उनकी बातें सुनते हुए हमने कमरे का अवलोकन किया। छोटा-सा कमरा, एक ओर पलंग-मच्छरदानी लगा हुआ। एक आराम कुर्सी, दो प्लास्टिक की कुर्सियाँ, एक मूढ़ा और एक स्टूल। दीवाल में बनी आलमारियों में किताबें, करीने से रखी हुईं। कुछ सम्मान-चिह्न और आलमारी के एक खाने में उनकी माताजी की एक तस्वीर थी। उनकी युवावस्था की एक तस्वीर भी जो किसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी से मिलती-जुलती थी। लालाजी ने हमसे चाय के लिए आग्रह किया। हमने सविनय टालते हुए सिर्फ़ पानी मांगा। कमरे के एक दरवाजे से आकर एक सम्भ्रान्त महिला ने हमें पानी दिया और कुछ बातचीत की। मैंने अनुभव किया कि यूँ तो लालाजी संयुक्त परिवार में भाई-भतीजां के साथ रहते हैं, पर उनकी दुनिया उनके कमरे तक सीमित है, जहाँ किताबों, रचनाओं और अपने साहित्यिक साथियों से बातें करते हुए ज्यादा से ज्यादा समय बिताते हैं। इसके बाद उनसे मिलने का सिलसिला शुरू हो गया। सन् 1992 में मैंने अपने पिता समान ससुरजी को खोया था। अतः उनमें मुझे अपने पिताजी ही दिखते थे। कम से कम हर पन्द्रह दिनों में एक बार उनके पास जाया करती। यदि कुछ नया लिखती, तो लगता कि कब उनके पास जाऊँ और अपनी रचना सुनाऊँ। उन्हें भी जैसे इन्तज़ार रहता था। कहते- कितने दिनों बाद आयी हो और पूछते कि क्या लायी हो ? उनका इशारा रचनाओं की ओर रहता। छोटी और हल्की रचना पर तुरन्त टिप्पणी करते। लम्बी रचना, कहानियों या अधिक संख्या में रचनाएँ होने पर कहते -छोड़ जाओ, फिर देखूंगा। अगली मुलाकात में रचनाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी करते, पर कभी भी सुधार या परिवर्तन के लिए अपनी मंशा नहीं जताते ताकि मौलिकता बनी रहे। उन्होंने मेरी कई कविताएँ, कहानियाँ पढ़ीं और सराहीं, कमियों की ओर इशारा भी किया। वे कहते थे – खूब पढ़ों और लिखो, लेखन-दोष नहीं हैं, प्रेरक और मार्गदर्शक हैं। उनकी नज़र में मैं अच्छा लिख रही हूँ, यह मेरे लिए संतोष की बात है। इसी तरह की मुलाकातों में मुझे उन्हें और करीब से जानने का मौका मिला। उनसे मेरी हर मुलाकात रोचक, प्रेरक और संस्मरणीय होती। कभी बस्तर की संस्कृति की चर्चा होती, तो कभी लोकजीवन की। कभी अंग्रेजों के अत्याचारों का ज़िक्र करते हुए भूमकाल आन्दोलन की दृश्य खींच देते, तो कभी बस्तर के राजाओं, राजघराने के बारे में बताते। कभी बातें होतीं बस्तर के तीज-त्योहारों, उच्छब-परब की। बस्तर के जंगलों की, वहां के धार्मिक मान्यताओं एवं रीति-रिवाजों की। कभी वनवासियों के अल्हड़पन की, भोलेपन की, कभी उनके शौर्य की या शोषण की। विभिन्न विषयों पर बातचीत करते हुए कभी जोश में आ जाते, कभी व्यंग्य करते हुए हँसने लगते। कभी अव्यवस्था और शोषण से दुखित हो जाते। उनकी हँसी बच्चों सी मोहक और अम्लान लगती थी। क्रोधित मुद्रा में बड़ी-बड़ी आँखें और चौड़ी तथा ललिमायुक्त हो जातीं, भृकुटियाँ तन जातीं और आवाज़ ऊँची होकर काँपने लगती थीं। लगभग 87 वर्ष की आयु में भी उनकी याददाश्त पक्की थी।
कई बार चर्चा का क्रम तोड़कर उठ खड़े होते थे। पलंग के पास स्टूल रखकर उस पर चढ़ जाते और आलमारी में पीछे की तरफ़ रखी हुई किसी संदर्भित पुस्तक को उठाकर, पृष्ठ तक खोलकर दिखाते या पढ़वाते थे। फिर सम्हालकर पुस्तक, यथास्थान रख देते थे। मैंने अनुभव किया कि उन्हें बहुत खुशी होती थी ऐसा करने में। एक जिज्ञासु की क्षुधा शांत करने में, अपना ज्ञान और अनुभव बाँटने में। बस्तर पर शोध कर रहे विद्यार्थियों और इच्छुक विद्वानों ने उनके अनुभव का लाभ उठाया है। वे बस्तर के माटीपुत्र हैं। उन्होंने यहाँ की संस्कृति को बहुत करीब से परखा है। सुविधारहित जीवनयापन करते हुए लोकसंगति में बस्तर को जिया है। तब कहीं अपने अनुभवों और चिन्तन से लेखनी को गति दी है।
बातों ही बातों में उन्होंने कहा था- बहुत दुख होता है उन लोगों से, जो बस्तर में पर्यटक बनकर आते हैं, दो- चार दिन रूककर लौट जाते हैं और व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं में अपने लेख चित्रों सहित छपवाकर, बस्तर के संबंध में अपनी विशेषज्ञता का दावा करने लगते हैं। बगैर काम किये नाम कमाने की आकांक्षा में जहाँ ये बस्तर के संबंध में भ्रामक जानकारियाँ परोसते हैं, वहीं बस्तर की गरिमामयी संस्कृति को विकृत रूप में प्रस्तुत करते हैं। उन्हें लताड़ते हुए लालाजी के शब्द हैं –
भागा-भागा फिर रहा इंसान
मर गये हम तो।
कैमरों का अभियान खुले वृक्षों पर
घोटुल माने सहवास
मर गये हम तो।
एक दिन दोपहर उनके घर पहुँची, तो देखा उनके कमरे में कई गुलदस्ते (बुके) रखे हुए थे। कपड़े भी नये लगे और माथे पर तिलक था। मन में विचार चल रहा था कि कहीं आज इनका जन्मदिन तो नहीं। उन्होंने मिठाई का डिब्बा आगे बढ़ाया और हँसते हुए कहा- अच्छा हुआ, तुम आ गयी। आज मेरा जन्मदिन है। 82 साल हो गये। मैंने चरणस्पर्श कर उन्हें बधाई दी। उस दिन फिर उन्हीं के बारे में बात होती रही- सुबह-सुबह अवस्थीजी आये थे, बंशीलालजी आये थे। अचिन्त्यजी भी अभी-अभी गये हैं। कुछ भेंट भी रखी हुई थी। बताया- फलां-फलां लाया था। इसी क्रम में उन्होंने बताया – 17 दिसम्बर 1920 को भोपालपट्नम के पास एक छोटे से गाँव मद्देड़ में उनका जन्म हुआ था। पिता का नमा श्री रामलाला (बाबू) था, माता श्रीमती जीरा बाई श्रीवास्तव के ममत्व और स्नेहभरे आँचल तले उनका पालन-पोषण के लिए उनके जीवन-संघर्षों को बताते हुए उनकी आँखें नम हो जाती थीं, गला रूंध जाता था। माता की जिम्मेदारियों में उन्होंने भी साथ निभाया-फलतः पढ़ाई-लिखाई नहीं कर पाये, परन्तु सरस्वती की साधना आजीवन की।
बातों-बातों में उन्होंने बताया कि उन्हें शाला में दाखिल कराने बड़े पिताजी का बेटा ले गया था। उसे सही नाम न मालूम होने के कारण लाला लिखवा दिया था, परन्तु मेरा नाम सेतलाल श्रीवास्तव है। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि लिखना सन् 1936 से शुरू किया। पहली रचना सन् 1939 में बम्बई के सम्मानीय साप्ताहिक पत्र श्री वेंकटेश्वर समाचार में लाला जगदलपुरी के नाम से प्रकाशित हुई थी। वे कहते थे- लिखता था, पढ़ता था और फाड़ देता था, जब तक खुद को संतुष्टि नहीं होती थी। बड़ी मिहनत और मुश्किल से रचना जन्म लेती है। मैं अधिक लेखन नहीं, उसकी गुणवत्ता का हिमायती हूँ। उन्होंने बताया था कि उनके प्रारंभिक लेखन-काल में बस्तर का पर्यावरण सर्वथा असाहित्यिक था। निष्पक्ष बोलने की भी मनाही थी। राष्ट्रीय विचारों के अखबार पढ़ना भी प्रतिबंधित था। स्वतंत्र चिन्तन और लेखन के लिए कहीं गुंजाइश नहीं थी। ऐसे शुष्क और विपरीत माहौल में मुझे बहुत छटपटाहट होती थी और यहीं से मेरी कविता का जन्म हुआ। एक बार मैंने सहजता से पूछ लिया- आप इतना अच्छा लिखते हैं, शब्दों का चयन इतना सटीक और प्रभावी रहता है, कैसे ? तो उन्होंने कहा था – मैं सायास लेखन से बचता हूँ। कोई भी रचनाकार शब्द-तालिका लेकर सृजन नहीं करता। सृजन-कर्म की मनःस्थिति में विचार चलते रहते हैं। इस समय मैं लगभग अंधा और बहरा हो जाता हूँ। राह चलते गेय बनने में मुझे मज़ा आता है। अपने भीतर आधार-पंक्तियों की गुनगुनाहट चलती रहती है और वह अब तक चलती रहती हैं, जब तक संबंधित रचना का उद्भव नहीं हो जाता। रचना-प्रक्रिया के दौरान मैं एकांत चाहता हूँ, लेकिन दिन-भर तो यहाँ बच्चे शोरगुल करते रहते हैं और रात रात बिस्तर पर जाते ही बड़ी देर रात तक शब्द चिल्लाते रहते हैं और तब तक चिल्लाते रहते हैं जब तक उन्हें गीत, ग़ज़ल, मुक्तक या क्षणिका की कतारों में बैठा न दूँ। परन्तु भूलवश यदि किसी काव्य पंक्ति में अयोग्य शब्द की घुसपैठ हो जाय, तो उस शब्द की छटपटाहट सुनते ही बनती है। उस शब्द को मैं तरस खाकर पंक्तिमुक्त करता हूँ, रिक्त स्थान पर प्रतीक्षाकुल अधिकारी शब्द को बिठाकर उसके साथ न्याय करता हूँ। तब कहीं मुझे नींद आ पाती है। विपरीत स्थिति में –
विचार आते हैं, नींद नहीं आती।
शब्द चिल्लाते हैं, नींद नहीं आती
कई बेहतरीन कल्पनाओं के पंख कट जाते हैं
नींद नहीं आती
जिस तरह मुझे उन्हें अपनी रचना दिखाने की तत्परता रहती, उसी तरह उन्हें भी देखने की आतुरता रहती थी। हमेशा मुस्कुराते हुए स्वागत के साथ शब्द हुआ करते थे- आज क्या लायी हो ? और मैं अपनी नयी रचना उनके सामने रख देती थी। मैं भलीभाँति जानती हूँ कि उनके सामने मैं कुछ भी नहीं, फिर भी एक अबोध बच्चे की तरह मेरी कोशिश को उन्होंने हमेशा स्नेह दिया, प्रोत्साहन दिया। बातों में ही बताया कि डॉ. धनंजय वर्मा, गुलशेर खां शानी के प्रारंभिक रचनाकाल को लालाजी का आन्तरिक स्नेह मिला है, जिसे दोनों ने खुलकर स्वीकारा है। इससे प्राप्त संतोष को लालाजी अपना स्थायी धन मानते हुए उनसे जुड़े संस्मरण सुनाने लगते। कवि लक्ष्मीनारायण पयोधि पर चर्चा करते हुए कि पयोधि ने उनके सहयोग से गुण्डाधुर नामक ऐतिहासिक पात्र पर गुण्डाधुर नाटक लिखा, जिसके मंचन ने पयोधिजी को प्रदेशस्तर पर सम्मान दिलाया। इसी तरह शानी को उनकी कहानी काला पानी पर बनी टेलीफिल्म ने खासी पहचान दिलायी। समकालीन वरिष्ठ रचनाकारों में कभी पं. केदारनाथ ठाकुर, ठाकुर पूरनसिंह, मावलीप्रसाद श्रीवास्तव, नारायणलाल परमार आदि के बारे में भी बहुत कुछ बताया। आयु के नवें दशक में भी इतने सारे साहित्यकारों, पत्रकारों, सम्पादकों, प्रकाशकों को रचनाओं सहित याद करते थे कि मैं अचंभित रह जाती थी, उनकी याददाश्त, अनुभव और ज्ञान पर। पं. गंगाधर सामंत, हरि ठाकुर, बस्तर के प्रथम पत्रकार के रूप में पं. देवीरत्न अवस्थी करील को पत्रकार योद्धा के रूप में निरूपित किया और बताया कि बस्तर की प्रथम न्यूज एजेंसी स्व. वी.आर.चिंचोलकर (आपाजी) ने शुरू की थी, जो अद्यतन चल रही है, जहाँ उस समय भी नागपुर टाइम्स, हितवाद, हिन्द स्टेट्समेन, बेनेट कोलमैन, युगधर्म आदि मिल जाया करते थे।
उन्होंने बड़ी ईमानदारी से स्वीकार किया कि बस्तर इतिहास के यशस्वी साधक डॉ. के.के.झा के सत्संग का भी उन्होंने लाभ उठाया है। वे वरिष्ठ साहित्यकारों को सम्मान देते थे, नये रचनाकारों को स्नेह देते थे और लेखन-पठन में रूचि रखनेवालों को उत्साहित करते थे। इस बात की पुष्टि आकाशवाणी द्वारा प्रसारित एक रूपक ‘बस्तर में हिन्दी साहित्य’ से होती है, जिमसें बस्तर के प्रारंभिक काल से लेकर समकालीन साहित्यकारों तक में हम जैसे नव रचनाकारों के नामों का भी उल्लेख किया है।
रचनाकारों और रंगकर्मियों में मद्य-सेवन की लत से वे दुखी थे। उन्होंने कहा था- शानी और दुष्यन्तकुमार को समय से पहले मौत नहीं, मद पी गयी। रंगमंच से जुड़े कुछ स्थापित रंगकर्मियों का नाम लेकर कहते थे कि अच्छा काम कर रहे हैं ये सब, पर मद्यपान कर सब गड़बड़ कर देते हैं। अपनी आयु तक घटा रहे हैं ये पढ़े-लिखे समझदार लोग।
लालाजी बहुत स्वाभिमानी थे। उन्हें भारत सरकार की ओर से उनके योगदान के ऐवज में आर्थिक सहयोग की राशि सात सौ रूपये मिलती रही। एकाएक वह बंद हो गयी। एक पत्र मिला जिसमें स्वयं के जीवित रहने का प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने के बाबत लिखा था। मैं यह जानती हूँ कि यह एक प्रशासकीय प्रक्रिया है, परन्तु इस पत्र से उनका स्वाभिमान आहत हुआ। उन्होंने मुझे वह पत्र दिखाते हुए कहा था कि मै लिखकर तो नहीं दूंगा, चाहे राशि मिले या न मिले। जिस दिन मैं नहीं रहूंगा, ख़बर उन तक स्वयं पहुँच जायगी। और कई महीनों तक उन्हें पैसा नहीं मिला। उन्होंने बताया कि उनका प्रकरण केन्द्र सरकार ने राज्य शासन को भेज दिया है। कई महीनों के बाद उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ शासन से देय राशि प्राप्त हो गयी। उनकी वृद्धावस्था में आकाशवाणी के मानदेय और शासकीय अनुदान के अलावा आय का कोई स्त्रोत नहीं था। घोर आर्थिक संकट के समय भी उन्हें राजकीय सहायता के प्रस्ताव प्राप्त हुए थे, परन्तु उन्होंने उन्हें स्वीकार नहीं किया। अपितु सिद्धांत पर अडिग रहे। शिक्षण, सम्पादन और पत्रकारिता से अर्जित आय से ही उन्होंने अपनी माँ को परिवार चलाने में सहयोग दिया।
उनका स्वाभिमान बना रहा। कभी किसी से कुछ नहीं मांगा। हमेशा सबको दिया ही दिया। सेवा भी किसी से नहीं करवाते थे। अपने हाथ-पैर पर तेल-मालिश स्वयं ही करते थे। सि़र्फ चाय और परोसी हुई खाने की थाली उन्हें दो वक्त मिलती थी। दोबारा कोई पूछता-परोसता नहीं था। वे दाल बड़े चाव से खाते थे। खाने के बाद थाली कमरे के बाहर स्वयं रख देते थे, जिस कोई ले जाता होगा। कई बार मैंने उनकी जूठी थाली देखी। दाल की कटोरी साफ, पर भात (चावल) बचा रहता था। मुझे लगता कि थोड़ी सी दाल और परोस दी जाती, तो शेष भात भी खा लेते। शायद यह यथार्थ हो या मेरी आत्मीयता की आवाज़।
दोपहर तीन बजे के बाद घूमने निकल जाते थे और पाँच-छह किलोमीटर का नगर-भ्रमण किया करते थे। चौपाटी पर चाट, दही-बड़ा आदि खाते उन्हें देखा जा सकता था। वे या तो खाने के शौकीन थे या दोपहर और रात के खाने के बीच लम्बा अन्तराल होने के कारण चाट-ठेले पर जाते।
समय के पाबंद तो इतने थे कि समय से पहले पहुँचना उनकी आदत थी। आकाशवाणी में ध्वन्यांकन के लिए दोपहर दो बजे बुलाकर तीन बजे रिकार्डिंग शुरू किये जाने पर कई बार नाराज़ हुए। फलतः आकाशवाणी के कार्यक्रम प्रभारी उनका विशेष ध्यान रखते थे। एक दिन हमनें उन्हें घर पर आमंत्रित किया। बात यह हुई थी कि सुबह ग्यारह बजे मेरे पति उन्हें लेने उनके निवास पहुँच जायेंगे, दिन भर वे हमारे साथ घर पर रहेंगे और शाम उन्हें घर वापस पहुँचा देंगे।उन्हें लिवाने जाने में वैद्य जी को दस मिनट का विलम्ब हो गया। लालाजी इधर-उधर टहल रहे थे। वैद्यजी के पहुँचते ही लालाजी ने कहा- 10.55 से तैयार होकर खड़ा हूँ। वैद्यजी उन्हें अपने स्कूटर पर बिठाकर घर लाये। दिन भर वे साथ रहे, मैंने उनकी पसंद की दाल और लौकी की सब्जी खास तौर पर बनायी थी। उन्होंने बड़े चाव से खाया, जिससे मुझे बहुत खुशी और संतुष्टि मिली। वे बच्चों से भी बातें करते रहे, हमारी फोटो एलबम देखी, मेरी तमाम डायरियाँ देखीं और पढ़ीं। मैंने अपनी प्रारंभिक रचनाएँ (कक्षा-छठवीं-आठवीं की) दिखायीं और कहा कि जब बच्चीं थी, तब लिखीं थीं। उन्होंने बड़े प्यार से कहा कि तुम अभी भी बच्ची हो। वे शब्द आज भी कानों में रस घोलते हैं।
वह दिन मेरे लिए अविस्मरणीय बन गया। उन्होंने भी कुछ कविताएँ सुनायीं और मैंने भी, जिन्हें मैंने रिकार्ड कर लिया, जिन्हें हम बार-बार सुना करते हैं। उनकी प्रस्तुति के अंदाज़ को गुनते हैं कि प्रभावशाली प्रस्तुत के लिए कहाँ ठहराव, कहाँ शब्दों में प्रवाह और वजन देना होता है। आज लालाजी की आवाज़ मेरे पास है और मैं जब चाहे उसे सुन सकती हूँ। यह मेरे लिए एक बहुमूल्य उपलब्धि है। घर पर ही हमारा फोटो-सेशन हुआ-हमारे और बच्चों के साथ। लालाजी का एक फोटो बहुत सुन्दर आया, जिसको फ्रेम करवाकर हमने उन्हें दिया, तो वे बड़े खुश हुए। उसे अपने कमरे में दीवार पर लगा दिया। कुछ दिनों के बाद बताया गया कि रायपुर के पुरातत्वों कर्मी आये और उन्हें अच्छा लगा, तो ले गये। हमारे पास उसकी एक प्रति सुरक्षित है।
लालाजी का लेखकीय व्यक्तित्व जितना विराट था, स्वभाव में वे उतने ही सहज और निश्छल थे। अपनी सज्जनता और सहजता के कारण किसी पर भी विश्वास कर लेने के कारण हर बार छले गये। कभी दिल्ली से, कभी भोपाल से कोई आता, उनके उकसाने पर लालाजी खोल देते अपने ज्ञान का अकूत खजाना। लोकभाषा और लोकसाहित्य के क्षेत्र में उनके काम का लाभ उठाकर कुछ लोग सामग्री ले गये, अपने नाम से प्रकाशित कर खुद नृतत्वशास्त्री और भाषाशास्त्री बन गये।
सन् 2005 में मेरा स्थानान्तर रायपुर हो गया। पत्रों के माध्यम से लालाजी के सम्पर्क में रही। उनके स्नेहाशीष भरे पत्र आज अमूल्य अमानत है। समयान्तराल के साथ पत्रों का क्रम घटते-घटते टूट सा गया। जब भी जगदलपुर जाती, पर्याप्त समय लेकर लालाजी के पास जाती। धीरे-धीरे उनका शरीर क्षीण हो चला, श्रवणशक्ति कमजोर हो गयी। काफी तेज बोलने पर सुन पाते थे। अतः हम लिख-लिखकर बातें करते। कभी लिखकर जवाब देते और कभी केवल मुस्कुराकर ही रह जाते थे। एक बार हम उनके जन्मदिन पर पहुँचे, तो वे इतना खुश हुए कि उनकी खुशी का बखान करना मुश्किल है। वे चाहते तो थे, पर उन्हें हमारे पहुँचने के उम्मीद नहीं थी। बातों ही बातों में उन्होंने एक बार कहा था- आज स्टेशनरी दुकान गया था, पारकर पेन देखा, बहुत महंगा हो गया है – 200 रूपये का। पहले पारकर से ही लिखा करता था। मैं उसे वापस रखकर आ गया। मेरे मन में यह बात अंकित थी। हमने उन्हें एक डायरी और पारकर पेन दिया, तो वे इतने अभिभूत हो गये कि उनके साथ हमारी आँखें भी नम हो गयीं। शतायु होने की कामना पर उन्होंने कहा था- बस!
क्रमशः जगदलपुर-प्रवास भी कम हो गया। फोन लालाजी सुन नहीं सकते थे। अतः सम्पर्क भी टूट सा गया। आठ वर्षों में बमुश्किल आठ बार गयी होऊंगी। साहित्यिक मित्रों और सहेलियों से जानकारी होती रहती थी। बीच में पता चला कि कवि-निवास का जीर्णोद्धार हो रहा है। परिवार किराये के मकान में चला गया है। लालाजी अब पैदल नहीं चलते। इच्छा होने पर रिक्शे में बैठकर नगर-परिक्रमा करते हैं। गोष्ठियों और आकाशवाणी में जाना बंद हो गया है। उनकी खराब तबीयत की वजह से उनके भाई केशवजी लोगों को उनसे ज्यादा मिलने नहीं देते और लालाजी की जिं़दगी कमरे तक सिमट गयी है। पता चला, ज्यादा बीमार चल रहे हैं। हम मिलने गये। नवनिर्मित मकान ‘आस्थायन’ में। वही छोटा-सा कमरा, ( जिसके दरवाजे पर कवि-निवास लिखा था )। लालाजी हमें आरामकुर्सी पर बैठे मिले, पर हमेशा की तरह उठकर स्वागत नहीं किया। शायद पहचान नहीं पाये। हमने चरणस्पर्श कर अपना नाम लिखकर दिया। पढ़ते ही सारी शक्ति समेटकर उठ खड़े हुए और हाथ जोड़ बोले- माफ़ करना बेटा, पहचान नहीं पाया, काफी दिनों बाद आयी हो इस बार। न पहचान पाने का उन्हें काफी़ अफ़सोस था। फिर बोले- हमेशा याद करता हूँ, पर पहचान नहीं पाया। मेरा दोष नहीं, उम्र का दोष है। नज़र कमजोर हो गयी है। फिर ढ़ेर सारी बातों हुईं। अपना संकलन निकालो, मैं भूमिका लिखूंगा। मैंने हामी भरी। लालाजी ने खूब बातें कीं। हम सुनते रहे। हमने लिख-लिखकर बातें कीं, वे मेग्नीफाइंग ग्लास से पढ़ते रहे। हमने चरणस्पर्श कर अनुमति मांगी। फिर उन्होंने हाथ जोड़ मुस्कुराते हुए कहा था- माफ़ करना, पहचान नहीं पाया था। उनकी वह विनम्र मुद्रा मैंने मोबाइल में कैद कर ली और उसका वॉल पेपर बना लिया। एक दिन मोबाइल पर ख़बर मिली की सरस्वती का सतत साधक सांसारिकता से ़मुक्त होकर अनन्त यात्रा पर चल पड़ा है। मेरी आँखों में आँसू थे, मन में अफ़सोस कि मैं उनकी अंतिम इच्छा पूरी न कर पायी। उन्हें मेरे प्रथम काव्य-संकलन की भूमिका लिखनी थी। नव रचनाकारों के लिए संदेश है उनकी यह कविता-
चलने दो
नयी कलम का हल चलने दो/जब तक माटी कंचन न बने
जब तक धूप चंदन न बने/तब तक….!
अंत में, मेरी श्रद्धांजलि इन शब्दों में-
स्वार्थवश दुनियावालों ने/उन्हें अक्सर छला है
ग़मों का गरल पीकर/जिनका जीवन अमृत सा ढला है।
दृढ़निश्चयी स्वाभिमानी/कभी न झुकनेवाला
अर्जित अनुभव ज्ञान के/सूरज सा लुटानेवाला
बस्तर-संस्कृति-मर्मज्ञ/काव्यकला की धुरी
साहित्य-साधना-संलग्न
ज़िन्दगी जिनकी पूरी
मां सरस्वती के साधक
प्रणम्य लाला जगदलपुरी।
श्रीमती किरणलता वैद्य
देवपुरी, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. 98265-16430