लालाजी की कविताएंः- मिमयाती जिन्दगी दहाड़ते परिवेश

लालाजी की कविताएंः- मिमयाती जिन्दगी दहाड़ते परिवेश

(कविता क्रमांक-1)

उन्मन हैं मनचीते लोग,
वर्तमान के बीते लोग।।
भीतर-भीतर मर-मर कर,
बाहर-बाहर जीते लोग।
निराधार खून देखकर
घूंट खून के पीते लोग।
और उधर जलसों की धूम,
काट रहे हैं फीते लोग।
भावशून्य शब्दों का कोश,
बांट रहे हैं रीते लोग।

(कविता क्रमांक-2)

न तुम हो न हम हैं
यहां भ्रम ही भ्रम है।
दिशाहीन राहें,
भटकते कदम हैं
नहीं कोई ब्रम्हा,
कई क्रूर यम हैं।
मिले सर्जना को,
गलत कार्यक्रम हैं।
यहां श्रेष्ठता में,
पुरस्कृत अधम है।
किसी के भी दुखड़े
किसी से न कम है।
पुकारा जिन्होंने,
अरे, वे वहम हैं।

(कविता क्रमांक-3)

विकल करवटें बदल-बदल कर
भोगा हमने बहुत जागरण,
गहराई चुप बैठे सुनती
‘सतह’ सुनाते जीवन दर्शन।
देव-दनुज के संघर्षों का
हमने यह निष्कर्ष निकाला,
‘नीलकण्ठ’ बनते विषपायी
जब-जब होता अमृत-मंथन।
सफल साधना हुई भगीरथ
नयनों में गंगा लहराई,
सांठ-गांठ में उलझ गये सुख,
पीड़ा आई पीड़ा के मन।
ऐसे-ऐसे संदर्भों से
जुड़-जुड़ गई सर्जना अपनी,
हृदय कर रहा निन्दा जिनकी
मुंह करता है उनका कीर्तन।
गूंज रही है बार-बार कुछ
ऐसी आवाजें मत पूछो;
नहीं सुनाई देता जिनमें
जीवन का कोई भी लक्षण।

(कविता क्रमांक-4)

मचल उठे प्लास्टिक के पुतले,
माटी के सब धरे रह गये।
जब से परवश बनी पात्रता,
चमचों के आसरे रह गये।
करनी को निस्तेज कर दिया,
इतना चालबाज कथनी में;
श्रोता बन बैठा चिंतन,
मुखरित मुख मसखरे रह गये।
आंगन की व्यापकता का,
ऐसा बंटवारा किया वक्त ने;
आंगन अंतर्ध्यान हो गया,
और सिर्फ दायरे रह गये।
लूट लिया जीने की सारी,
सुविधाओं को सामर्थों ने;
सूख गयी खेती गुलाब की,
किंतु ‘कैक्टस’ हरे रह गये।
जाने क्या हो गया अचानक,
परिवर्तन के पांव कट गये;
‘रीते-पात्र’ रह गये रीते,
‘भरे-पात्र’ सब भरे रह गये।

(कविता क्रमांक-5)

दर्द ने भोगे नहीं जिस दिन नयन,
मिल गया उस दिन हृदय को गीत धन।
जब अंधेरा पी चुके सूरजमुखी,
तब दिखाई दी उन्हें पहली किरण।
नींद टूटी जिस सपन की शक्ति से,
चेतना के घर मिली उसको दुल्हन।
फूल जब चुभ गये, तो मन को लगा,
है बड़ी विश्वस्त कांटों की चुभन।
देखते ही बनी बिजली की चमक,
जब घटाओं से घिरा उसका गगन।
छांह के अहसान से जो बच गया,
धूप के दुख ने किया उसको नमन।

(कविता क्रमांक-6)

दखा, पाहली बिहान
बेड़ा जायसे किसान
कुकड़ा बासली गुलाय
हाक देयसे उजेंर
आंधार हाजली गुलाय
तारा मन चो होली हान
दखा, पाहली बिहान।
मछरी, केंचुआ चाबुन जाय
कोकड़ा मछरी गीलुन खाय
ढोंडेया धरे मेंडकी के
सोनू दादा जाल पकाय
कोएंर-कोएंर होते खान
दखा, पाहली बिहान।
दसना छूटली पनाय
मिरली मारग मन के पांय
लेकी गेली पानी घाट
पानी लहरी मारून जाय
हाजुन गेली रात-मसान
दखा, पाहाली बिहान।

(कविता क्रमांक-7

कविता क्रमांक-6 का अनुवाद)
देखो, सबेरा हो गया है
किसान खेत जा रहा है
सब तरफ मुर्गे बोले
सब तरफ ढेकीयां बजी
उजाला पुकार रहा है
अंधेरा सब तरफ खो गया है
सितारों की हानि हुई है
देखो सुबह हुई है।
मछली, केंचुआ चबा रही है
बगुला, मछली निगल रहा है
ढोंढीया-सांप, मेंढकी पकड़ रहा है
सोनू दादा जाल फेंक रहा है
चिड़ियों के चहकते ही
देखो, सुबह हुई है।
बिस्तर कब छूट गया है
रास्तों को पांव मिल गये
लड़की पनघट चली गयी
पानी में लहरें उठ रही हैं
चुडैल रात नहीं रही
देखो, सुबह हुई है।

 

(कविता क्रमांक-8)

भोर के हुस चुग गये मोती,
बैठ कर तमिस्त्रा कहीं रोती है।
मौत बेवक्त भला क्यों आती
जिन्दगी यदि जहर नहीं बोती।
अस्मिता चिंतन की हरने को
चिंता रात भर नहीं सोती।
आदमी व्यक्त जब नहीं होता,
चेतना, चेतना नहीं होती।
वक्त बदले कि व्यवस्था बदले,
मनुष्यता पहाड़ ही ढोती।
पीर हृदय की युवा हो गयी,
कोहरे में हर दिशा खो गयी।
ऐसी वायु चली मधुवंती,
संवेदनाशीलता सो गयी।
चिथड़ों पर पैबंद टांकते,
जिजीविषा सुईयां चुभो गयी।
शब्द ब्रम्ह की चाटुकारिता,
अर्थों की अर्थियां ढो गयी।
मान गये चुप्पी का लोहा,
मन को अपने में समो गयी।
गयी सुबह कुछ ऐसे लौटी,
सूरज की लुटिया डुबो गयी।

(कविता क्रमांक-9)

हम-तुम इतने उत्थान में हैं
भूमि से परे, आसमान में हैं।
तारे भी उतने क्या होंगे,
दर्द-गम जितने इंसान में हैं।
सोना उगल रही है माटी,
क्योंकि हम सुनहले विहान में हैं।
मोम तो जल-जल कर गल जाता,
ठोस जो गुण है, पाषाण में है।
मौत से जूझ रहे हैं कुछ,
तो कुछ की नज़रें सामान में हैं।
मुर्दो का कमाल देखो,
जीवित लोग श्मशान में हैं।
मन में बैठा है कोलाहल,
औैर हम बैठे सुनसान में हैं।
किसने कितना कैसे चूसा,
प्रश्न ही प्रश्न बियावान में हैं।
सोचता हूं, उनका क्या होगा,
मर्द जो अपने ईमान में हैं।

(कविता क्रमांक-10)

छूट गये वनपाखी, रात के बसेरे
जाल धर निकल पड़े, मगन मन मछेरे
पानी में संत चुप खड़े उजले-उजले,
कौन सुनेगा मछली व्यर्थ किसे टेरे।
कानों से टकराती सिसकियां नदी की,
पुरवा जब बहती हैं रोज़ मुंह अंधेरे।
रोशनी कहां तुझसे हटकर ओ रे मन
ना चंदा के घर ना सूरज के डेरे।
जुड़े ही नहीं जिद्दी, किसी वंदना में
कैसे समझाऊं मैं हाथों को मेरे।

(कविता क्रमांक-11)

अल्पजीवी पुष्प इतना कर गया,
सूर्य को शबनम पिलाकर झर गया।
साथ मेरे सिर्फ सन्नाटा रहा,
चांद सिरहाने किरण जब धर गया।
कर दिया तिमिर ने दुर्बल बहुत,
मन अभागा रौशनी से डर गया।
लहलहाई जिन्दगी की क्यारियां,
किन्तु सोने का रिण सब चर गया।
हृदय तड़पा तो छलक आये नयन,
स्नेह सारा हृदय हेतु निथर गया।
क्या करे कोई सुराही क्या करे,
यदि किसी कण्ठ में विष सर गया।
(कविता क्रमांक-12)
दहकन का अहसास कराता,
चंदन कितना बदल गया है;
मेरा चेहरा मुझे डराता,
दरपन कितना बदल गया है।
आंखों ही आंखों में,
सूख गई हरियाली अंतर्मन की;
कौन करें विश्वास कि मेरा,
सावन कितना बदल गया है।
पांवों के नीचे से,
खिसक-खिसक जाता सा बात-बात में;
मेरे तुलसी के बिरवे का,
आंगन कितना बदल गया है।
भाग रहे हैं लोग मृत्यु के,
पीछे-पीछे बिना बुलाये;
जिजीविषा से अलग-थलग यह,
जीवन कितना बदल गया है।
प्रोत्साहन की नई दिशा में,
देख रहा हूं, सोच रहा हूं;
दुर्जनता की पीठ ठोंकता,
सज्जन कितना बदल गया है।

(कविता क्रमांक-13)

जिसके सर पर धूप खड़ी है,
दुनिया उसकी बहुत बड़ी है।
ऊपर नीलाकाश परिन्दे,
नीचे धरती बहुत बड़ी है।
यहां कहकहों की जमात में,
व्यथा कथा उखड़ी-उखड़ी है।
जाले यहां कलाकृतियां हैं,
प्रतिभा यहां सिर्फ मकड़ी है।
यहां सत्य के पक्षधरों की,
सच्चाई पर नज़र कड़ी है।
जिसने सोचा गहराई को,
उसके मस्तक कील गड़ी है
और कहां तक प्रगति करेगी,
बसती यहां कहां पिछड़ी है।