लघु पत्रिकाओं का औचित्य
साहित्य की सामाजिक भूमिका का विवरण यत्र-तत्र-सर्वत्र मिल जाता है। बहुतों की जुबान से होता हुआ पुस्तकों में दर्ज हो चुका है। साहित्यकार की सामाजिक भूमिका का प्रत्यक्ष प्रमाण, चश्मा आंखों में चढ़ते ही साफ दिखाई देने की तरह नजर तो नहीं आता है परन्तु भूमिका तो होती ही है। न जाने कितने ही गीत, लोककथायें जो दादी-नानी की जुबान से होती हुई हम तक पहुंचती हैं, वे किसी न किसी साहित्य प्रेमी की अलिखित/लिखित रचनायें होती हैं। इन रचनाओं से सामाजिक समरसता के बोल ही फूटते हैं, अनजाने भय से हिम्मत के साथ लड़ पाने का आत्मविश्वास फलता फूलता है। रीतिरिवाज संस्कारों को पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचाने का भी यही माध्यम होती है। क्षेत्र की बोली, भाषा और विशिष्ट पहचान को सहेजने वाला साहित्य ही होता है। क्षेत्र विशेष का इतिहास दर्ज कराने का काम भी साहित्य के खाते में रखा जाता है। अगर साहित्य और साहित्यकार न होते तो हम कैसे जान पाते कि मीरा, कबीर, तुलसी, रहीम, रैदास की अमिट स्याही से भजन दोहों के साथ ही साथ उस वक्त का दौर भी रचा तो जा रहा था। इस देश के समृद्ध साहित्य में तो इतिहास, भूगोल के साथ-साथ विज्ञान और आयुर्वेद भी रचा गया है। बहुत कुछ गुरू शिष्य परम्परा से होता हुआ आगे बढ़ा तो कुछ शिलालेख, भित्तिचित्र, ताड़पत्र लेखन, ताम्रपत्र लेखन आदि से हम तक पहुंचा है। इन सभी को सहेजने में एक और विधि का सहारा लिया गया है जो सीधे समझ नहीं आती परन्तु हमारे ही सामने है और वह है-साहित्य को धर्म के माध्यम से हम तक लगातार जोडे़ रखना। धर्म ही था, है और शायद रहेगा भी जिससे साहित्य समय के इस बिन्दु से आगे तक, अनंत बिन्दु तक जायेगा। साहित्य रचना और उसे लोगों के बीच ले जाना जितना महत्वपूर्ण कार्य है उतना ही महत्वपूर्ण है उसे सहेजना। किसी साहित्यकार के साहित्य को सहेजकर हम उस साहित्यकार को भी इतिहास पुरूष बनाते हैं। हम अपने देश के महान साहित्यकारों की रचनावाली प्रकाशित करके और उनके जन्मदिवस, महाप्रयाणदिवस आदि स्मरण कर उन्हें अपने समय के परिपेक्ष्य में समझने का प्रयास करते हैं, उन्हें पढ़कर स्वयं का आकलन करते हैं, उसके बाद अपने समय को सही ढंग से चित्रित करने का प्रयास करते हैं। अपने उलझे विचारों को एक दिशा देने का भी यह एक महत्वपूर्ण माध्यम होता है। अपने देश के महान रचनाकारों की सूची में अपने राज्य, अपने जिले और फिर जनपद के रचनाकारों को भी बराबर स्थान देते हैं, बल्कि हमारे अपने जनपद के नजदीक के रचनाकारों का स्मरण, उनका साहित्य हमारे लिए ज्यादा मददगार होता है।
हिन्दी के वर्तमान के परिदृश्य से यह सीखने को मिलता है कि ‘घर के देव ललायें, बाहर बांबी पूजन जायें’। हिन्दी में अनुदित विदेशी कूड़ा इतना फैला दिया गया है कि हम हमारे बाप को भी बाप मानने को तैयार नहीं हैं। ‘बाल की खाल’ वाला उत्तर आधुनिक साहित्य गोरी चमड़ी का दीवाना है। इस उत्तर आधुनिक विचार को प्रगतिशील लोग आंदोलन बना देने पर तुले हुए हैं। इस वैचारिक क्रांति के अध्येता अपने पीछे आशावान दृष्टि को वैचारिक रूप से अपाहिज बनाकर विदेशी वैसाखी के सहारे चलने को मजबूर कर रहे है। रहते-खाते यहां हैं और संस्कृति विदेशी पसंद है। विचार वहां के क्रांतिकारी हैं। वहां के लेखक नवीनता धारे हैं।
अपने-अपने क्षेत्र के साहित्यकारों को खोजकर उन्हें मुख्यधारा में लाने के साथ ही, पुराने साहित्यकारों की रचनाओं का संकलन, संचयन भी अति आवश्यक है। इस भुलावे के दौर में व्यक्ति खुद ही भुलावे में रहता है। स्वयं के विज्ञापन, प्रकाशन में व्यस्त होता है तब यह स्थिति बड़ी विकट महसूस होती है। बहुत से लोग तो पुराने साहित्यकारों की आलोचनाओं से ही ‘विशाल’ साहित्यकार बन जाते हैं।(बड़े नहीं)
लघु पत्रिकाओं का औचित्य इस दिशा में कुछ ज्यादा ही उद्देश्यपरक हो जाता है। उनका कर्तव्य और बढ़ जाता है।. दिल्ली, लखनऊ, भोपाल वाले भले ही किसी क्षेत्र विशेष के रचनाकारां को खोजकर न छापें पर उस क्षेत्र विशेष की लघु पत्रिका से यही उम्मीद रखी जाती है। बहुत सी लघु पत्रिकायें सारे देश को समेटने का प्रयास करती हैं सिवाय अपने क्षेत्र के साहित्यकारों को छोड़कर। कुछ लघु पत्रिकायें लगातार अपने क्षेत्र के लोगों को मौका देती हैं और उन्हें मुख्यधारा का पथिक बना देती हैं।। ‘बस्तर पाति’ इन्हीं कुछ लघु पत्रिकाओं की श्रेणी में आना चाहती है। इस कार्य के लिए हमारी पत्रिका का आधा भाग समर्पित होगा। हम अपने क्षेत्र के अमर साहित्यकारों को लगातार प्रकाशित कर उनकी रचनाओं को देश के मध्य रखेंगे। उन अमर साहित्यकारों की स्मृति सदैव तरोताजा रहे और साथ ही उन्हें उनका वास्तविक सम्मान मिले। जब वर्तमान दौर ही इस बस्तर क्षेत्र को वैचारिक रूप से पिछड़ा मानता हैं तो समझा जा सकता है कि बीता दौर किस हद तक क्रूर रहा होगा। तमाम मुश्किलों के बावजूद इस क्षेत्र ने साहित्यिक गतिविधियां जीवंत बनायें रखीं थीं। लाला जगदलपुरी, शानी (काला जल), करील, लक्ष्मीचंद जैन, डॉ. के.के.झा, के.एम.श्रीवास्तव आदि तो अमर हैं ही; वर्तमान के परिपक्व साहित्यकारों में से बहादुर लाल तिवारी, कृष्ण शुक्ल, के. एल. श्रीवास्तव, रऊफ परवेज़, मोहिनी ठाकुर, शांति तिवारी, शमीम बहार, नूर जगदलपुरी, ऋषि शर्मा ऋषि’ आदि हैं। उसके अलावा वे साहित्यकार जिनमें बस्तर का साहित्यिक समाज संभावनायें तलाशता है वे हैं योगेन्द्र राठौर, उर्मिला आचार्य, विजय सिंह, डॉ. सुरेश तिवारी, शफीक रायपुरी, खुदेज़ा खान, सुषमा झा, नरेन्द्र पाढ़ी, शरदचंद्र गौड़, शशांक शेण्डे आदि(जगदलपुर), चितरंजन रावल, सुरेन्द्र रावल, राजाराम त्रिपाठी, यशवंत गौतम, बरखा भाटिया आदि(कोण्डागांव), दादा जोकाल आदि(दंतेवाड़ा), संतोष श्रीवास्तव आदि(कांकेर), शिव कुमार पाण्डे, शिव शंकर कुटारे आदि(नारायणपुर) आदि हैं। भविष्य का साहित्यकार समाज जिनमें उमड़ रहा है वे हैं विक्रम सोनी, भरत गंगादित्य, हेमंत बघेल, जय मरकाम, सुनील कुमार लम्बाड़ी(भोपाल पटनम) आदि। बस्तर से जिनका जुड़ाव है वे भी बस्तर भूमि के ही हैं मान कर बस्तर आशान्वित है उनमें से प्रमुख हैं पूर्णचंद रथ, लक्ष्मी नारायण ‘पयोधि’, त्रिलोक महावर राजीव रंजन प्रसाद आदि।
इसके इतर भी अनेक रचनाकार हैं जो निस्वार्थ भाव से लेखन कर रहे हैं। साहित्य की सेवा में लीन हैं। त्रासदी यह है कि इतने सारे नामों के होते हुए भी बस्तर क्षेत्र साहित्यिक, वैचारिक दृष्टिकोण से पिछड़ा हुआ है। बड़े पुरस्कारों, सम्मान से अछूता और वंचित है। सारे रचनाकारों ने नये विचारों के साथ-साथ अपने समय का मूल्यांकन भी किया हैं परन्तु स्थिति विकट है।
प्र्रस्तुत अंक लालाजी को समर्पित है, कायदे से तो पहला ही अंक उन पर केंद्रित होना था, भूल सुधारते हुए यह अंक उनके चरणों में श्रद्धा सुमन स्वरूप अर्पित है। इस क्षेत्र की विशिष्टता, प्राकृतिक संपदा के भरपूर होने की तरह इस क्षेत्र की विशिष्टता, प्रकृति के निकट रहने की, बगैर किसी ताम-झाम और बगैर नाम की चाहत में, बिल्कुल इसी तरह हमारे साहित्यिक प्रकाश स्तंभ, लालाजी जीवन पर्यन्त रचनाशील, मनन शील रहे। उन्होंने इस क्षेत्र की बोली भाषा के संरक्षण में मूलभूत कार्य किये हैं। उनका लेखन समुद्र आज के लेखकों के लिए प्रेरणास्रोत बना है। उनकी रचनाओं के अंबार में से कुछ रचनायें इस अंक को सम्मानित करेंगी। बस्तर पाति का यह गौरवांक उनके आशीर्वाद का आकांक्षी है। उन्होंने साहित्य रचने के साथ वैचारिक आंदोलन भी खड़ा किया था। उनके समय में लगातार होने वाली गोष्ठियों ने वर्तमान के अनेक लेखकों को जन्म दिया और तराशा भी है। उन्होंने सीमित संसाधनों की सहायता से क्षेत्रीय बोली-भाषा के लिए मूलभूत कार्य किये। मुहावरों का संकलन, शब्दकोश की परिकल्पना, व्याकरण का लिप्यांतरण आदि कार्य किये। वर्तमान के समस्त शोध कार्य जिनके भी द्वारा किये जा रहे हैं वे उनके आधारभूत कार्यों पर ही आधारित हैं। ग़ज़ल गीत, लोक कथायें, रूपक न जाने क्या-क्या लिखा उन्होंने। उन्होंने तो हल्बी, भतरी स्थानीय भाषा में ग़जल लिखकर प्रयोग भी किये। लेखन के प्रति उनकी दीवानगी ही थी जो उन्होंने साहित्य से ही विवाह करके प्लेटिनम जुबली भी मनाई।
लालाजी अपने जीवन में स्वयं के लिए किसी सम्मान की अपेक्षा नही ंकी, परन्तु समय और साहित्यिक समाज भी इस ओर अपनी आंखें मूंदा रहा। यह सही है कि लेखन की गहराई ही उसे पुरूस्कृत करती है परन्तु हम साहित्यिक लोगों का कर्तव्य भी कुछ बनता है कि नहीं। बस्तर पाति इसके लिए प्रयास करेगा। अपने अंकों में लालाजी पर केन्द्रित एक पेज हमेशा आरक्षित रखेगा। और आह्वान है अपने सुधि पाठकों एवं लेखकों से कि वे लालाजी की रचनाओं के साथ समीक्षा भेजें उन्हें उचित स्थान दिया जायेगा।
बस्तर विश्वविद्यालय से अनुरोध है कि वह जल्द से जल्द हमारे लालाजी को डाक्टरेट की मानद् उपाधि प्रदान कर स्वयं को गौरवान्वित करे।
मिमयाती जिन्दगी दहाड़ते परिवेश।
लालाजी द्वारा रचित अनंत साहित्य को अध्ययन और उस पर चिन्तन, दुरूह और श्रमसाध्य है, क्योंकि वह साहित्य या तो चोरी हो चुका है और बहुत से लोगों ने जरा-जरा सा हेरफेर कर उस पर अपना नाम दर्ज कर लिया है या फिर साहित्य नष्ट हो गया है। लालाजी रचित साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए किसी भी प्रकार का निस्वार्थ प्रयास नजर नहीं आ रहा है। किसी दूसरे पर दोष डालने से ज्यादा अच्छा होगा कि इसे वर्तमान का दोष मान लें-लालाजी की ही रचना ने यह कह पूर्वानुमान लगा लिया था-
विकल करवटें बदल-बदल कर/भोगा हमने बहुत जागरण,/गहराई चुप बैठे सुनती/‘सतह’ सुनाते जीवन दर्शन।
देव-दनुज के संघर्षों का/हमने यह निष्कर्ष निकाला,/‘नीलकण्ठ’ बनते विषपायी/जब-जब होता अमृत-मंथन।
सफल साधना हुई भगीरथ/नयनों में गंगा लहराई,/सांठ-गांठ में उलझ गये सुख,/पीड़ा आई पीड़ा के मन।
ऐसे-ऐसे संदर्भों से/जुड़-जुड़ गई सर्जना अपनी,/हृदय कर रहा निन्दा जिनकी/मुंह करता है उनका कीर्तन।
कविता क्रमांक-3 की प्रथम चार पंक्तियों में सतत् रचनाशील, निस्वार्थ और सरल व्यक्तित्व के धनी साहित्य हृदय की व्यथा ही है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो ‘थोथा चना बाजे घणा’। अंतिम चार पंक्तियों में तो उन्होंने और स्पष्ट कर दिया, कि जिन रचनाओं में दम ही नहीं हैं वे ही बार-बार छापी/सुनाई जाती है। वर्तमान की तुलना लालाजी की इस रचना के काल से करें तो पातें है कि मात्र समय बदला है। इन्हीं संदर्भों को लेकर जीवन की सच्चाई को दिखाने वाली इस कविता पर दृष्टि डालिए-
करनी को निस्तेज कर दिया,/इतना चालबाज कथनी में;
श्रोता बन बैठा चिंतन/मुखरित मुख मसखरे रह गये। (कविता क्रमांक-4)
क्या वह जीवन की सच्चाई नहीं रह गई है। कविता के नाम परोसे जाने वाले हास्य और द्विअर्थी संवाद सृजन ने ही ‘‘कविता को’’ जिन्दा रखा है-
आंगन की व्यापकता का/ऐसा बंटवारा किया वक्त ने
आंगन अंतर्ध्यान हो गया,/और सिर्फ दायरे रह गये। (कविता क्रमांक-4)
गागर में सागर का अनुपम उदाहरण हैं ये चंद पंक्तियां जो प्रगतिशीलता के वर्तमान पैमाने पर उंगलियां उठातीं हैं। ये कैसी प्रगतिशीलता है जिसमें जोड़कर रखने के उपाय नदारत होते जा रहे हैं। स्थाई रूप से तोड़ने की परम्परा जोर-शोर से हाथोहाथ लेकर अपनाई जा रही है। आंगन जो परिवार को जोड़कर रखने का उपाय था वह अब घरों में होता ही नहीं हैं इसकी जगह दिवारें खींच दी जाती हैं जिससे लोग आपस में शक्ल न देख सकें।
लाचारों और लाचारी के प्रति संवेदनशीलता, लालाजी की लेखनी की धार बराबर बनाये रखती थी, उन्होंने अगर हिन्दी के अलावा स्थानीय बोली में भी सृजन किया तो उनकी संवेदनशीलता बराबर उनके साथ खड़ी रही।
जाने क्या हो गया अचानक/परिवर्तन के पांव कट गये। (कविता क्रमांक-4)
पंक्तियों की गहराई तो देखें दुनिया परिवर्तन की बात करती है पर जहां गरीबों की बात आती है वहां परिस्थिति नहीं बदलती है-
रीते पात्र रह गये रीते,/भरे पात्र सब भरे रह गये। (कविता क्रमांक-4)
अंतिम पंक्तियां देखें-
भाव शून्य शब्दों का कोश/बांट रहे हैं रीते लोग। (कविता क्रमांक-4)
सच्चाई की अभिव्यक्ति कितने सुंदर तरीके से की गई हैं। विकास की इस दौड़ में ‘समय बदल गया’ जरूर कहा जाता पर लालाजी के समय और वर्तमान में इन पंक्तियों का ही तो जीवन दर्शन नजर आता है।
फूल जब चुभ गये, तो मन को लगा,/है बड़ी विश्वस्त कांटों की चुभन। (कविता क्रमांक-4)
धोखे का दुख, जानकारी के दुख से गंभीर चोट करता है। फूलों से चोट लगने की आशंका शून्य होती है पर उनसे ही चोट लग जाये तो कांटे ज्यादा अच्छे लगते है, कम से कम हमें पता तो होता है वो गड़ेंगे नहीं-
रोशनी कहां तुझसे हटकर और मन/ना चंदा के घर ना सूरज के घेरे (कविता क्रमांक-10)
धर्म और आध्यात्म का सार इन दो पंक्तियों में उड़ेल दिया हैं कवि ने। ज्ञान का उजियारा अपने भीतर ही होता है भले ही हम बाहर ढूंढते हैं- उजले कपड़े-वालों में तो सूरज, चांद तारों में।
यूं लालाजी के संग्रह ‘मिमयाती जिन्दगी दहाड़ते परिवेश’ की कविताओं का संपूर्ण विवेचन कविताओं की गहराई के साथ -साथ लालाजी की सोच की गहराई, उनके अध्ययन की गहराई को भी हमारे समक्ष रखता है। उनके जीवन को उनकी कविताओं से समझा जा सकता है। वे कबीर की तरह फक्कड़ कवि थे और उनकी ही तरह संत थे, जो स्वयं के लिए शून्य की अपेक्षा रखते हुए, दुनिया को न्यासंगत देखना चाहते थे। उनका अविवाहित रहकर ज्ञान की खोज में लगे रहना और फिर ज्ञान की अनंत ऊंचाई को पा लेना अचंभित करता है। अपने काव्य में उन्होंने नये बिम्बों के माध्यम से अपनी बात रखी है। शोषित वर्ग के साथ लगातार खड़े रहे। उनकी यह प्रगतिशीलता उन जैसी नहीं है जो हर बात पर क्रांति की तलवार लेकर खड़े हो जाते हैं। हर सामाजिक विसंगतियों को बारीक नजर से देखकर लोगों के बीच लाया उन्होंने। सीधे चोट करने के स्थान पर वे गहराई से सांकेतिक चोट करते हैं। वर्तमान के साहित्यिक/असाहित्यिक लोगों को उनके ही शब्दों में संदेश है कि- भाव शून्य शब्दों का कोश/बांट रहे हैं रीते लोग।