प्यारे मित्रों को मेरा नमस्ते।
आप कैसे है। उम्मीद है सानंद और स्वस्थ्य होंगे। यहां सभी ठीक हैं। बस आपकी याद आई इसलिए खत लिखने बैठ गया। असल में मुझे कुछ याद आ रहा है, इसलिए आपको कहे बिना रह नहीं पाया। मैं आपको सब कुछ बताता हूं। पहले आप मेरे बचपन के दोस्त से मिलो, ये हैं श्रीमान् खखनू। हमारे स्कूल के दिनों के सहपाठी। हमलोग इन्हे दही कहकर पुकारते थे क्योंकि श्रीमानजी को दही खूब पसंद था। तो मिस्टर दही दसवीं क्लास तक खाखी नेकर पहने और कमीज का बटन मजाल जो गले तक न लगा हो। आज ये मुम्बई में एक कॉरपोरेट के संयुक्त निदेशक हैं। मगर बात ये नहीं जो मैं बताना चाह रहा हूं, बात कुछ और है। बात इनके गांव की है। गांव में सिर्फ एक मास्टर जी थे जो पढ़े लिखे थे। कई घरों से नौजवान नौकरी करने परदेश(?) जा चुके थे। वहां से चिठ्ठी आती थी तो घर में कोई पढ़ा-लिखा नहीं कि खत बांचे। बस मास्टर जी का दरवाजा सबको तब दिखता था। मास्टर जी अपनी अहमियत खूब समझते थे। लोग उनके पांव छूते, उनके आसन के नीचे बैठकर घंटों मान मनोव्वल करते। क्या भाव खाते मास्टर जी! बड़ी मान मनोव्वल के बाद मास्टरजी तैयार होते-वहां आसन बिछा कर ठंडा पानी, पान-सुपारी और शरबत गुड़-लेकर घर के लोग प्रतीक्षा करते-खत में किसके लिये क्या बात लिखी गई है।
आसन जमाकर जब मास्टर जी खत हाथ में लेते तो घर के छोटे-बड़े सबों के चेहरे पे रोमांच, रहस्य का भाव पैदा हो जाता। वे एक-एक शब्द अपने कान में जमा लेना चाहते।
मास्टर जी इस भाव से, इस अदा से चिठ्ठी बांचते कि प्रस्तुत श्रोतागण विभोर हो जाते। खत लिखने वालें के समस्त भावों को सामने प्रस्तुत कर देते। चिठ्ठी बांचने के बाद चिठ्ठी का जवाब भी उन्हीं को देना होता। मगर इतनी आसानी से नहीं। दो दिन, तीन दिन, सप्ताह भर तक उनको तेल लगाना पड़ता, अच्छे-अच्छे पकवान खिलाने पड़ते तब जाकर एक दिन मुहरत निकलता-चिठ्ठी लिखने का, घरवालों की तरफ से। उस दिन भी घरवाले अपने-अपने भाव व्यक्त करते! बेटे के बाप से पूछा जाता क्या लिखूं, बाप कहते लिख दीजिए आशीष। और क्या कहूं-जहां रहे खुश रहे। मां भी वैसा ही कुछ आशीष-बाशीष प्रेषित करती।
अंत में मास्टरजी घर की बहु की ओर इशारा करते-उसकी तरफ से कुछ लिख दें ? बहु घूंघट में कैद खिड़की से झांकती। शरमाकर ओझल हो जाती। क्या मजाल कि पत्नी अपने पति के लिए कोई संदेश भेजे!
दोस्तों! मैं यही बताना चाह रहा हूं कि कहां वो दिन और कहां यह आज का समय!(संभवतः आज भी यह अशिक्षा गांवों में मौजूद हो) आपका ईमेल, कमेंट्स, लाइक्स इत्यादि के ढेर लगे रहते हैं। मगर ख़त हमारे दिल के करीब हैं-ये जितने निजी हो सकते हैं उतने सार्वजनिक भी। और एक बात आप जानते हैं-ख़त लिखने से मनुष्य की आत्मिक, मानसिक तृप्ति मिलती है, यह अभिव्यक्ति का बड़ा सच्चा, सरल और सहज तरीका है। पता है-ख़त अपने में साहित्यिक गुणवत्ताएं भी रखते हैं। मित्रों, हम इस लुप्त होती विधा को साहित्य में न सिर्फ जीवित, बल्कि पल्लवित भी करना चाहते हैं। अतः किसी अज्ञात व्यक्ति को सम्बोधित कर सकते हैं और एक निजी, रोमॉनी, सोद्देश्य, आक्रोश से भरे-किसी भी विषय पर ख़तों के मार्फत लिख भेजिए। मेरे कम लिखे को अधिक समझिएगा, इस ख़त को ही अपना निमंत्रण पत्र समझिएगा।
भूलिएगा नहीं, मैं रोज डाकिए का इंतजार करता हूं।
प्रतीक्षारत
आपका बस्तर पाति