कहानी की शर्तें
टीवी, मोबाइल और इंटरनेट से घिरी युवा पीढ़ी किस तरह पुस्तकों, अर्थात् शब्दों की दुनिया में वापस लौटे यह चुनौती सबके सामने है। प्रकाशक, संपादक, वितरक और लेखक, विचारक, शायर और कवि सभी इस चुनौती को महसूस कर रहे होंगे। विशेषकर राष्ट्रभाषा हिन्दी के सन्दर्भ में। वैसे तो पठनीयता की समस्या दुनिया की तमाम भाषाओं में महसूस की जा रही है – मगर हिन्दी की स्थिति भला किससे छिपी है। वर्तमान में लगभग सत्तर करोड़ हिन्दी भाषा को लोग बोलते-समझते हैं। लगभग 40 करोड़ लोग साक्षर हैं। लगभग देश में अठारह करोड़ हिन्दी के अख़बार वितरित होते हैं। मगर हिन्दी का वर्तमान लेखक/कवि लिखकर सम्पन्न हुआ है या सिर्फ लिखकर अपनी आजीविका चला पाता है- ऐसा नहीं सुना गया। यहां लेखन से अभिप्राय पत्रकारिता नहीं है- अभिप्राय साहित्यिक लेखन व प्रकाशन से है। इस पर कई पहलूओं से विचार आवश्यक है- पूर्व में भी इन पहलूओं पर लिखे गये हैं। यहां लेखकों के समक्ष उत्पन्न चुनौती कि आज वे क्या लिखें, किस तरह लिखें कि एक आम पाठक, टीवी, इंटरनेट पे बैठा भोंदू किताबां मे आँख गड़ाए। पुस्तक प्रेमी बने। अंग्रेजी में तो वह ठीक-ठाक पढ़ लेता है (विभिन्न वजहों से) मगर-अपनी जुबान में ? यह सही है कि अंग्रेजी पढ़कर वह अधिक सम्मानित, गौरवान्वित और रोजगार उन्मुख हो जाता है- मगर फिर भी, अपनी जु़बान में रची रचनाएं दुनिया की कोई भी विदेशी भाषा विकल्प नहीं हो सकती। हम इस पहलू को यहां बार-बार रेखांकित करेंगे। फिलहाल, सवाल है आखिर हिन्दी की क्या ताकत है और क्या हिन्दी लेखक/विचारक इस ओर सतर्क हैं ? प्रश्न का उत्तर आप स्वयं ढूंढ लें।
किसी भी भाषा में गद्य, वह भी गल्प साहित्य सबसे अधिक पढ़ा जाता है। कहानी, लघु कहानी, लम्बी कहानी व उपन्यास, रचनात्मक अ-गल्प साहित्य जैसे सफलता, आध्यात्म, योग, वैकल्पिक-चिकित्सा प्रणाली, ज्योतिष, वास्तु इत्यादि पर लिखी विशेषज्ञों की किताबें भी हर भाषा में खूब बिकती हैं। युवा तो ‘सक्सेस’ की पीछे पागल है ही। आजकल ‘असफल होना जरूरी है- जैसी किताबें भी खूब पढ़ी जा रही हैं। पर, ऐसी पाठकीयता जिज्ञासावश है, ये साहित्य के रसिया नहीं हैं। हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि बदलते दौर से हर चीजें बदलती हैं, हमारे पाठक जो भी हैं, काफी परिवर्तित हो चुके हैं। आज स्पेनिश उपन्यासकार काउलो पेल्हो के गद्य में (उपन्यास) में युवा पीढ़ी मैनेजमेंट के फंडे ढूंढती है – प्रश्न सही और गलत का नहीं है, प्रश्न है युवा पीढ़ी के सम्मान का ! वह फिक्शन पढ़कर भी आजीविका की ओर ‘फोकस्ड’ है। खासकर ये मध्यवर्गीय युवा पीढ़ी जो हिन्दी पट्टी की रीढ़ हैं- जिनके माता-पिता ने इनकी पढ़ाई और अच्छे रोजगार के लिए पाई-पाई जमा किया। सब-कुछ झोंक दिया है। इनका लक्ष्य ही वो मछली की आंख है – और कुछ नहीं।
हमें इनकी चिंता है। ये साहित्य से दूर हैं। सद्-साहित्य से। क्योंकि ये ही हिन्दी के पाठक हैं।
क्या हिन्दी साहित्य के प्रचुर भंडार में वर्तमान जीवन के उलझे सवालों का जबाब इन्हें मिल पाता हैं ? अपनी भाषा में लिखना और पढ़ना, दोनों ही सहज है। फिर एक सक्रिय पाठक की स्थिति हिन्दी साहित्य में क्यां नहीं दर्ज हो पाती। क्या हिन्दी सिर्फ वे लोग अपनाते हैं जो किसी कारणवश अंग्रेजी पर अधिकार नहीं बना सके। अर्थात् हिन्दी प्रेम महज एक जरूरत भर हैं। इन्हें अपनी भाषा, परम्परा, प्रचुर साहित्य से कोई लेना-देना नहीं, क्योंकि हमें अपनी चीजों से प्रेम है ही नहीं। न ही इनका मूल्य हमें पता है।
वजहें कई हैं। हो सकती हैं। शायद उस मछली के आंख के सिवा उन्हें किसी और चीज से लेना-देना नहीं।
यकीनन भाषा में लेखन अंधकार से घिरा प्रतीत होता है। शायद हां, मगर यही वक्त है जब हमारा एक दीया भी दूर तक रोशनी करे। जी हां! तमाम हिन्दी लेखकों को पुनर्विचार करना चाहिए और युवा पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए रचनाएं लिखने, लिखने के तरीके पर विचार करना चाहिए।
सबसे पहले तो लेखक यह विचार करे कि वह उनके लिए कुछ लिख रहा है जो वीडियो गेम्स में मगन रहता है या सक्सेस की किताब के पीछे मगन है। उसे मनोरंजन (शुद्धतावादी साहित्यकार माफ करेंगे) के लिए किताब पढ़ने की जरूरत ही क्या। टीवी में दर्जनों चैनल, मोबाईल और इंटरनेट उसका यह काम पहले ही कर रहे है। अब लेखक क्या करें। उसका क्या दोष।
लेखक के पास एक ऐसी अनंत दुनिया है जिसे ना वीडियो, सिनेमा या चैनल या इंटरनेट पूरा कर सकते है। साहित्य का विकल्प मात्र साहित्य है। चाहे कोई भी युग हो कैसा भी समाज हो। हां, कुछ पहलूओं का गहन विचार अत्यंत जरूरी है। मससन, एजेंडा।
कहानी/गल्प में एजेंडा
जैसा कि इस बहस कॉलम में पहले भी रेखांकित किया जा चुका है कि भारत में कला एवं रचना के हर क्षेत्र में पश्चिम की नकल की जाती रही है। वह भी बिना विचारे। यर्थाथवादी कहानियां प्रेमचंद को समय से अपने यहां लिखी व पढ़ी गयी, मगर महान रचनाकारों ने अपनी जमीन नहीं छोड़ी। पर अधिकांश रचनाकारों और संपादकों ने ‘क्रांतिकारी’ होने के चक्कर में यूरोप और अमेरीका का भोगा हुआ यथार्थ हमारे यहां फिट करने लगे। हमारी संस्कृति विरासत, परम्पराएं, मिथक और लोक संस्कृति पश्चिम का विकल्प कैसे बन सकती है। वही बात उतनी ही सही है- पश्चिम का भोगा यथार्थ हमारा यथार्थ कैसे बन सकता है ? हमारी जलवायु, हमारी मिट्टी हमारे शब्द, हमारी भाषाई ताकत सिर्फ हमारे लिए है। अतः विशुद्ध साहित्यक आनंद या रस की प्राप्ति तो सिर्फ और सिर्फ अपनी ही भाषा में ली या दी जा सकती है। हम किसी स्त्री को द्रोपती या सीता या मंथरा कहकर सम्बोधित करते हैं तो इसका सीधा अर्थ पाठक समझता है। उसी तरह रावण या विभीषण या भीष्म कहकर किसी को सम्बोधित करने का अर्थ स्पष्ट है। ऐसे ही हजारों शब्द साहित्य, भाषा में सहजता से आते है और उन्हें परिभाषित करने की जरूरत नहीं पड़ती। मगर जब आप पश्चिम के लिए लिख रहे होते हैं तो स्वभाविक है आपको इस मिथकीय शब्दावली को परिभाषित करना ही एक टेढ़ी खीर होगी। सुरसा का मुंह और बजरंगबली की छलांग का अनुवाद क्या होगा ? ऐसे ही प्रतीक और चिन्ह पश्चिमवालों के हैं जिन्हें क्या हम समझ पाते हैं….?
इन सारी बातों का सन्दर्भ प्रमाणित करता है कि हमारा सन्दर्भ जितना हमारे लिए सहज और ग्राह्य है पश्चिम के लिए उतनी ही दुरूह और अग्राहय। पर अफसोस आज भी चंद भारतीय लेखक पश्चिमी एजेंडा की माला जप रहे हैं और हमें शानदार आलोचकीय टिप्पणी के साथ परोस रहे हैं-जबकि सच ये है कि इनकी साहित्यिक जमीन ही खिसकी है-वे ‘खिसके’ हैं उन्हें स्वयं नहीं पता। भला हिन्दी के आम पाठकों को कहां तक दोष देंगे!
इस तरह हमारे यहां वहां की देखा-देखी विभिन्न एजेण्डाबद्ध लेखन प्रारंभ किया गया मसलन स्त्री लेखन, (जहां स्त्री की स्वतंत्रता अहम है-जो सिर्फ यह आजादी कपडे की लम्बाई-चौडाई तक ही सीमित रही।) दलित लेखन (सिर्फ दलित ही दलित लेखन कर सकते हैं-जी हां भोगा हुआ यथार्थ की तर्ज पर।) उसी तरह सोवियत साहित्य की बाढ़ में लेखन में सद्देश्यता अथवा सार्थकता काफी पूर्व प्रचलन में आ चुकी है। इन सारी बातों पर विस्तार में जाने से बेहतर है कि हम इनके प्रतिकूल पक्ष पर विचार करें। इसका सबसे बुरा प्रभाव ये पड़ा कि ये तमाम आंदोलन एक फैशन बन गये। साहित्य या सृजन से ये बहुत दूर चले गये। साम्यवादी सोद्देश्य रचनाएं राजनीतिक पोस्टर भर बन कर रह गयीं। और स्त्री की आजादी दिल्ली के किसी संपादक के निजी कक्ष तक सीमित! इन महत्वपूर्ण पदों पर बैठे समाज को आईना दिखाने का दावा करने वाले महान बुद्धिजीवियों ने गजब का गैरजवाबदार, मूर्ख और अहंकारग्रस्त प्रकृति का प्रसार किया। इनके होल-विल ने देश के युवा लेखकों-लेखिकाओं में एक विभ्रम पैदा किया- यही साहित्य है। जिसमें एक स्त्री घर से बाहर निकलती है तो चौराहे पे घूरी जाती है, बस पे संवार होती है तो अनचाहे स्पर्श का शिकार होती है- ऑफिस में बॉस और सहकर्मियों की भद्दी निगाहों से घिरी होती है। घर आती है तो पिता या पति शराबी निकलता है। वे भी भद्दी टिप्पणियां करते हैं। दूसरे दिन वह स्त्री फिर से तैयार हो ऑफिस के लिए निकलती है क्योंकि उसकी बच्ची के भविष्य का सवाल है-कौन है उसके अलावा इस संसार में।
इस तरह एक दर्द भरे रिश्तों/स्थितियों/घटनाओं से ओत-प्रोत एक कहानी बनती है। स्त्री या तो चुपचाप सहन करती है या ज्यादा से ज्यादा एक दिन अपनी बच्ची को लेकर ‘घर’ से निकल जाती है। और इस तरह स्त्री ‘क्रांति’ घटित हो जाती है।
ऐसे एजेण्डाबद्ध लेखन से वर्तमान हिन्दी की कहानियों का ढेर मिल जाएगा। वास्तव में हम जिसे पल्प फिक्सन कहते है वह यही है। लुगती साहित्य! इसमें ‘सोद्देश्य’ या ‘क्रांतिकारी सोच’ को जबरदस्ती ठूंसा जाता है। प्राचीन या सामंतवादी मूल्यों (अवमूल्यों ?) के खिलाफ एक बेजान सा विद्रोह। एक ऐसा विद्रोह जिसका स्वंय की ही सांस उखड़ी हो!
किसी भी संपादक या आलोचक ने यह विचार नहीं किया कि एक कहानी मुकम्मल होने के लिए कुछ शर्तें भी होती हैं। क्या वे कहानियां उन शर्तों पर खरी उतर पा रहीं हैं ? फिर पाठकों ने ऐसी कहानियां खारीज़ की है क्या गलत ?
फिलहाल तमाम एजेण्डा लेखकों ने अपना सांचा तैयार रखा। जैसे थानेदार है तो वह बेईमान होगा ही, ऑफिस का बॉस क्रूर, नेता लम्पट, कॉरपोरेट लालची और आम आदमी सीधा, सच्चा, ईमानदार! व्यवस्था और सक्षम लोगों द्वारा शोषित!
इस एक रैखीय यथार्थ से जिन्हें लेखक भोगा हुआ यथार्थ समझकर लिखता है उससे इनकार नहीं है- एजेंडा से इनकार नहीं है- इनकार है कहानी के साथ हो रहे व्याभिचार से। जी हां, हमने सोद्देश्य या एजेण्डा या विमर्श के नाम पर एंटी-कला अथवा कलाविरोधी बातों को जान बूझकर बढावा दिया-क्योंकि यह हमारी जरूरत कम, प्रचलित फैशन ज्यादा थी।
क्या ऐसे ट्रीटमेंट हिन्दी साहित्य या हिन्दी के लेखकों, पाठकों के साथ अन्याय नहीं थे ? हैं ? क्या एजेंडा या मूल समस्या हमारे साहित्य से गायब हो जाए? नहीं! सिर्फ वह ढांचा गायब हो और रचनाएं अपनी शर्तों कला-तत्वों पे खरी उतरे। अब तक जो हुआ सो हुआ मगर आज यदि आप पाठक चाहते हैं तो झंडा दिखाने से काम नहीं चलनेवाला। आपकी रचना मे जीवन का स्पर्श हो, वे सच्चे हों और हां, कला विरोधी नहीं। हिन्दी के तमाम विद्वान आलोचकों, संपादकों को समझना चाहिए कि दुनिया में आज तक कोई भी महान रचना साहित्य फिल्म, संगीत, किसी भी क्षेत्र की बात हो-इसलिए महान हुई कि उनमें कला के पूरे तत्व अपने संतुलन में स्थित थे। आगे भी अच्छी रचनाओं की यही एक मात्र शर्त है- समस्त पहलूओं-तत्वों का बेहतरीन संतुलन! जी हां, तमाम विरोधी और परस्पर चीजों का संतुलन ही बेहतरीन कला है।
बात यहां साहित्य की हो रही है, विशेषकर गद्य लेखन में कहानी की। हम कहानी के ‘कहानी’ होने की कुछ शर्तें अनिवार्य मानते है- इसकी चर्चा आपसे बेहतर होगी।
कहानी में परिवेश-
कहानी में सघन परिवेश का वर्णन, चित्रण कहानी में जान फूंकता है। आखिर कहानी पात्रों के मार्फत घटित होती है, पात्र घटनाओं के घात-प्रतिघात से गति पाते हैं मगर ये सारी चीजें किसी निश्चित परिवेश या वातावरण में घटित होती हैं। घटनाएं या चरित्र आसमान में हो तो आसमान का चित्रण तो होगा ही। कहानी या कला की स्थानिकता है- स्पेश। इसमें विभिन्न रंगो से कहानी में जान आती है। किसी आम पाठक से पूछिए कि उसने प्रेमचंद की पूस की रात पढ़ी है- वह कहता है- कौन सी कहानी? वही जिसमें खूब ठंड लगती है- अलाव जलाता है…. और कुत्ते के साथ उछल कूद करता है। वह कभी इस तरह नहीं अभिव्यक्त करेगा- वो कहानी जिसमें एक किसान मजदूर बनकर भी भूखा है- भारतीय किसानों की दयनीय होती कहानी- एक मील का पत्थर! जी! ऐसी व्याख्या एक हिन्दी का प्रोफेसर देगा आम पाठक नहीं। उसी तरह गुलेरी जी की ‘उसने कहा था’ के बारे में पाठक इस तरह अपनी भाषा में कहते है- वह कहानी जिसमें लहना सिंह लाम पे जाता है। और जिसमें कुडमाई होती है।
जरा गौर करें कि ईदगाह कहानी में लेखक बुढ़िया के एंगल से कहानी प्रारंभ करके खत्म कर देते- मसलन बुढ़िया तीन पैसे देकर हामिद को रवाना करती है और प्रतीक्षा में बैठी है। दोपहर तक सभी बच्चे झूमते-खेलते विभिन्न खिलौनों के साथ वापिस आते हैं। उसका हामिद कहीं नहीं दिख रहा है- तीन पैसे में क्या खाया होगा या कौन सा खिलौना खरीदा होगा। अंततः हामिद उसके सामने प्रकट होकर चिमटा थमाता है और वही संवाद दोहराता है- उसके हाथ जल जाते हैं इसलिए यह चिमटा…।
कहानी का दृश्य तो इस एंगल से भी पूर्ण हो जाता पर क्या कहानी उतनी ही सशक्त बन पाती, बालमन का सम्पूर्ण और सशक्त चित्रण जो हुआ है क्या वह संभव हो पाता ? प्रेमचंद तो ईदगाह के बहाने जिस खूबसूरती से शहर की सैर कराते हैं- मेले का दृश्य दिखाते हैं- बालमन की कैफियत से हमे परिचित कराते हैं- वह सब हमारे समक्ष उनके ‘एजेण्डे’ को तीव्र शानदार और मुकम्मल ही बनाती है। ‘पूस की रात’ में तीव्र ठंड से जूझता हलकू, यहां तक कि उसे भान होता है कि नीलगायें खेत चर रही हैं-मगर आलस्य और ठंड के साम्राज्य के कारण हलकू से हिला भी नहीं जाता। यह ठंड की दास्तान से ज्यादा गरीब फटेहाल किसान की दयनीय दशा का चित्रण है कि अब खेत नष्ट हो जाने के बाद लगान कैसे पटाएगा। मगर वह प्रसन्न है-मजदूरी करेगा मगर ऐसी ठंड में अब उसे रखवाली नहीं करनी पड़ेगी।
उपरोक्त यह सभी सशक्त कहानियां दरअसल सोद्देश्य होने के साथ-साथ सशक्त वातावरण के कारण कालजयी हुई हैं। हमारे कहानीकार एजेण्डाबद्ध तो हैं-मगर उनकी रचनाओं से वातावरण का एक सामान्य चित्रण भी गायब है। सच तो ये है कि परिवेश का चित्रण ही एक पात्र की तरह होना चाहिए। हमारे मूल पात्र की भावनाओं, सोच का वाहक इन परिस्थितियों को होना चाहिए। हमने जो हामिद की आंखो से ईदगाह की सैर की है या हलकू के इस रांड पछिया हवा को झेला है या टांगेवाले द्वारा संकरे मार्ग में चलने का चिरपरिचित दृश्य देखा है, (उसने यहा था) वह सब कहानी के कथ्य के साथ-साथ कहानी में सजीव वातावरण के वर्णन के कारण संभव हो सका है।
अफसोस कि आज की कहानियों में-जैसा ऊपर कहा गया है पात्र अपने समापन की ओर तेजी से दौड़ लगाते दिखते हैं। दो-एक लाइन का चित्रण भी लेखक नहीं करना चाहता। एक कमरे से दूसरे कमरे में कहानी का दृश्य चला गया मगर लेखक की नजर इस परिवर्तन को जरा भी रेखांकित नहीं करती। वह एक तरह से आत्मालाप (चरित्रालाप) की स्थिति में है। उसकी दशा ऐसी ही है मानों उसका चरित्र रो रहा है तो वह खुद रोने लगा है। उसका चरित्र गम में है तो लेखक खुद वहां गम खाए बैठा है। सोद्देश्य रचनाएं गढ़ने/ बनाने के चक्कर में कहानी कला भी कोई चीज है- यह हम भूल ही बैठे। लेखक ंअपने पात्र के साथ रोए, गम खाए कि तटस्थ होकर वातावरण पर भी दृष्टि डाले….?
बहुत से कहानीकार वातावरण का इस तरह चित्रण करते है- वह शाम उदास थी। वह रात भयंकर थी। वह सबेरा रूला देने वाला प्रतीत होता है। बाहर की गर्मी ने उसके सारे तेज को मानो सोख लिया है।
अर्थात अपने मुख्य पात्र में खूब सारे विशेषणों का आलम्बन! शाम उदास नहीं होती या रात भयंकर नहीं होती-यह तो पात्र की मनोदशा का वर्णन है।
इसमें कुछ गलत नहीं है मगर दृश्य का चित्रण यहा गौण है अथवा होता ही नहीं-यहां तो पात्र की मनःस्थिति का चित्रण है, एक अलंकार की तरह! जबकि कहानियों में प्रतीकात्मक अलंकारों की जगह सीधा वास्तविक वर्णन अधिक प्रभावोत्पादक होता है। पाठक के मन में यह जिज्ञासा रही ही नहीं कि पात्र के बारे में जाने-लेखक ने खुद बता दिया रात भयंकर (डरावनी -पात्र डरा हुआ था) थी या सबेरा उदास। दूसरी हानि यहां जो एक सजीव वातावरण था जिसका चित्रण हो सकता था लेखक वह मौका गंवा रहा है। उसे तो वातावरण का दृश्य रचना ही नहीं था मुश्किल यही है। लेखक तो सीधा-सीधा अपने पाठकों को बताकर एजेंडा पूरा करने को व्याकुल है। सौ मीटर की दौड़ का झंडा गाड़ना!
वह उदास है-जरा इस चित्रण पर गौर करें-
आज का सबेरा भी रोज की तरह था, पूरब का क्षितिज लाल और शाखों पे पक्षी चहचहाते। गली में गायें रंभा रही थी और कुत्ते कूॅं-कूॅं करते हुए दुम हिला रहे थे। वह आदतन झरोखे तक गया पर जाने क्यों वापस अपनी कुरसी पर जा धंसा। उसके कंधे झुके थे, गाल पर हाथ रख वह दीवार के कोने ताकने लगा, वहां मकड़े ने जाल फैला रखा था।
उक्त दृश्य में पात्र की मनः स्थिति का वर्णन है। पात्र की मनःस्थिति उदास या कुछ ऐसा है जो ठीक नहीं है-वह आदतन झरोखे तक जाता है मगर आज अपनी कुरसी पर जा धंसा। और मकड़े का जाला देख रहा है- जबकि बाहर का दृश्य सुन्दर है हमेशा की तरह कुत्ते, पक्षी प्रसन्न हैं मगर इस प्रसन्नता से उसे कोई लेना-देना नहीं।
यह दो चित्र अलग-अलग रंगों के हैं जो पात्र की उदासी या खिन्नता को गाढ़ी लकीर से रेखांकित करते हैं।
यह चित्रण अधिक कला सम्पन्न क्यों है-
एक- इसमें दो विरोधी रंग के द्वारा मनःस्थिति/परिस्थिति का चित्रण है, दो- लेखक अपनी ओर से पात्र के बारे में कुछ नहीं कहता, दृश्य और स्थितियां ही सबकुछ बता देती हैं, तीन- पाठक के मस्तिष्क का भरपूर दोहन लेखक कर रहा है अर्थात पाठक में जिज्ञासा उत्पन्न करता है-उसे सोचने पर मजबूर करता है कि पात्र ऐसा आज क्यों हरकत कर रहा है और अंत में कि मात्र यह लिखने के कि आज वह उदास या खिन्न था, कुरसी पर मुंह लटकाकर बैठा था लेखक पाठक को समूचे परिदृश्य में घुमाता है बल्कि दौड़ाता है। पश्चिम की लाली पक्षियों का कलरव गली के कुत्ते व गायें….. और तब कमरे का वह दृश्य जहां पात्र को झोल नजर आता है। (इस झोल में आप उसकी मनःस्थिति देख सकते हैं।)
आप खुद सोचिए-उदासी या खिन्नता का दृश्य इस तरह रचा जा सकता है ? और इससे इतने फायदे?
हर अच्छी कला सब कुछ नहीं बताती बल्कि सब कुछ कहकर मूल बात छिपाती हैं। याद रहे बस्तर पाति सोद्देश्य है मगर कला विरोधी नहीं। हम कला साधक हैं। कला, कला के लिए, कला और अभिजात्य, कला और आवाम, कला की उपयोगिता नामक बहस अब इतिहास की वस्तु बन गयी है।
और सीधी बात-हर पात्र के साथ ‘स्थान’ मौजूद है- तो उस स्थान/ वातावरण को रेखांकित करने से हम क्यों चूकें। असल में लोक या कला में स्थान विशेषकर सजीव चित्रण पाठकों को अपनी दुनिया से उठाकर उस दुनिया में ला पटकता है जहां घटनाएं घटित हो रही हैं। जेठ की दोपहरिया को ‘पूस की रात’ पढ़ते हुए आपकों ठंड सी लगती है तो यह तो कलम का जादू है।
स्थान में समय-
हर स्थान में समय निहित है। समय का महत्व कला की पूरी दुनिया में स्वीकार किया गया है। एक निश्चित स्थान या परिवेश का समय कैसा है ? इसे कौन जी या भोग रहा है ? कौन दृष्टा है या कौन भोक्ता। हम इसे पृथक नहीं कर सकते। भारतीय दर्शन में महाकाल की अवधारणा है- महाकाल, काल की सवारी कर तांडव करते हैं। सृजन के लिए विध्वंस! अर्थात् प्रत्येक समय नामक इकाई की आत्मा है-इस पर सवारी नटराज करते हैं। इसका यह भी आशय है कि काल अपने आप में कुछ नहीं हैं- क्योंकि यह आत्मशक्ति है जो हर चीज नियंत्रित करती है। बात कुछ दार्शनिकता लिए हुए है मगर कला-साहित्य और दर्शन एक ही लक्ष्य तो पाना चाहते हैं- सत्य! सत्य की परिभाषा! सत्य का दर्शन।
दर्शनशास्त्र इस अखिल विश्व की, जीवन की शुष्क और कठोर व्याख्या करता है वहीं कलाएं/साहित्य जीवन के भावों ेको पकड़कर सत्य दर्शन करती हैं। यह अपनी जमीन से जुड़ी चीजे हैं- मगर उस जमीन का मूल क्या है ? हम जमीन या आधार की बात तो खूब करते हैं। मेरे ख्याल से मानवीय भाव ही वो जमीन है- जिस पर टिककर साहित्य या कला रचना संभव हो पाती है। इसे आज संवेदना भी कहते है। मानवीय स्पर्श, भावों का स्पर्श इत्यादि। इसीलिए साहित्य एक आनंद/रस का विषय है। आप रोटी यों ही खाकर पेट नहीं भरते। खेत में उगने के बाद गेहूं छांटना, सूखाना, पीसना, आटा गूंथना फिर पकाना। और रोटी भी अभी पूर्ण रसयुक्त नहीं बनी है- अन्य रसों की जरूरत पड़ती है। और ये समस्त रस ही साहित्य/कला के क्षेत्र हैं। भोक्ता द्वारा भोगा गया आनंद, सुख-दुख ही साहित्य का कच्चा माल है और अर्थात् यथार्थ है, सत्य है- जिसकी तलाश सारी-दुनिया के कवि, लेखक व विचारक भिन्न-भिन्न तरीके से आज तक करते आएं हैं।
अपने आप से पूछे कि क्या उस रचना को साहित्य का दर्जा देना सही होगा जो मानवीय प्रश्न या समस्या तो उठाते हैं मगर मानवीय भावों को स्पर्श करने से चूक जाते हैं। आज आपके जेहन में कितनी कहानियां, कविताएं, याद आ रही हैं जिसने आपके भावों को स्पर्श किया ?
यहां एक प्रश्न उठता है कि क्या किसी को सुख-दुख या आनंद का वर्णन या चित्रण कर अखिल विश्व का सत्य पकड़ा जा सकता है ? वह सत्य या यथार्थ का अंश कैसे हो सकता हैं ?
उत्तर है – गुड़ के साथ मुंह में घुल रहा रोटी का टुकड़ा क्या उस बेबस किसान की आशाएं, आकांक्षाएं, उसकी मेहनत, उसके भाग्य की दास्तान का रहस्य अपने में नहीं छिपाए है ? असल है सत्य की डोर थामना, सिरा चाहे जिस ओर का हो।
हमारा विषय था समय और स्थान का परस्पर आपस में गूंथा होना। आप एक अच्छे पाठक हैं तो किसी कालजयी रचना में इन तत्वों को ढूंढिए। आप एक रचनाकार हैं तो समय व स्थान (पात्र या घटना के संदर्भ में) उन्हें उचित स्थान दें। ऊपर के उदाहरण में पात्र की मन की बातें (उदासी) के साथ-साथ स्थान का चित्रण भी है और समय भी अनिवार्यतः मौजूद है। भौतिक रूप से और अभौतिक रूप से भी। पात्र की उदासी का गवाह समय व स्थान दोनों बनते हैं। जरा गौर करें – वह उदास था। या शाम उदास थी।- ऐसा लिखने पर क्या समय और स्थान का वो चित्रण संभव है जो हम बताने का प्रयास कर रहे थे ? आप स्वयं विचार कर लें।
इस समय या स्थान की कई प्रकार की उपस्थिति संभव है – कहानी में, कविताओं इत्यादि में। भौतिक तौर पर तो स्पष्ट है कि यह बारह बजे का दिन अथवा रात है। सर्दी या गर्मी है। पर एक ‘घड़ी’ पात्र मन या शरीर में भी संचालित है-उसका बारह या तेरह बजे से कोई लेना-देना नहीं है। वह घड़ी उसके भोग की गवाह है। आनंद, सुख-दुख, व्यथा, द्वंद, अंतर्द्वंद, अंतःकलह….उसके व्यक्तित्व के विखंडन या संगठन इत्यादि जैसी स्थिति है। इस घड़ी का चित्रण निश्चित रूप से रचनाकारों के लिए चुनौती है। ये जमीन बड़ी उर्वर होती है-घटनाएं और परिस्थितियां बाहर घटित होती हैं मगर पात्र के भीतर उसकी प्रतिक्रिया ? जैसे उबलते पानी में आलू, साग या अंडा डाला, सबकी उस गरम पानी के प्रति अलग-अलग प्रतिक्रिया। और यही पृथकता रचनाकार की रचना को सबसे पृथक करती है।
समय एक निश्चित कार्य-करण सिद्धांत को जन्म देता है। एक घटना के पीछे की योजना क्या थी ? कारण से कार्य को जानना या कार्य से कारण तक पहुंचना। कहानियों या उपन्यास में आपको अपने पाठकों को जस्टीफाई करना होता है। जैसे ‘पूस की रात’ में लेखक ने एक किसान (किसानों को सम्मान से देखा जाता था) को मजदूर (अपेक्षाकृत निम्न श्रेणी) होते और मजदूर होकर भी उसे प्रसन्न होते दिखाया गया है। इस विडंबना, एंटी क्लाइमेक्स या क्लाइमेक्स जो कहें-तक पंहुचने से पूर्व लेखक उस कारण और परिणाम को दिखा चुका है-पाठक को जरा भी संशय नहीं होता और अंत में सिर्फ संवेदना या मर्म पर प्रहार ही बाकी रहता है। उसी तरह कार्य-कारण का सटीक विश्लेषण दुनिया की तमाम अच्छी कहानियों में देखा जा सकता है। हर कार्य-कारण अपने समय से जुड़ा है, हर ‘समय’ अपने ‘स्थान’ से, और इन सबों की आत्मा (अथवा परमात्मा) है आपका पात्र! उसका अंतःकरण बाह्य घटनाओं और समय के प्रति किस तरह प्रतिक्रिया करता है ? सवाल यही है।
जिस एजेण्डाबद्ध लेखन की हम आलोचना कर रहे थे- उसका असली कारण यह है। इन कमियों को कारण गल्प एक-बेजान सी चीज है। मुर्दा। आप चारों ओर ऐसी मुर्दा कहानियों से घिरे हैं कहने की आवश्यकता नहीं!
कहानी में भाषा/बोली
भाषा या बोली-मिश्रित-भाषा के बल पर रचनाकार कहानी पूर्ण करता है। कई नवोदित रचनाकार यह भ्रम पाल लेते हैं कि गल्प या साहित्य लेखन के लिए भाषाविद् होना जरूरी है। जबकि सत्य कुछ और है, अनुभव यह बताता है कि भाषा की शुद्धता पर जोर या किसी भी तरह से भाषा पर जोर-साहित्य, खासकर कहानी का कबाड़ा करता है। कोई बात अनगढ़ तरीके से मगर ईमानदारी से कही जाए तो साहित्य में बात बन जाती है। उस कच्चेपन में सच्चाई होती है। एक कुटीर उद्योगवाला सौंन्दर्य होता है जबकि परिनिष्ठित भाषा में, भाषा पर-पूर्ण नियंत्रण वाली रचना से प्रतीत होता है फैक्टरी से निकला उत्पाद है। कहने का तात्पर्य यह नहीं कि भाषा पर आपका नियंत्रण न हो, पर-आप भाषाविद् होकर एक अच्छी कहानी लिख लेंगे, यह शर्त कतई जरूरी नहीं। मेरे ख्याल से परिनिष्ठित भाषा कहानी को जरूरत से ज्यादा कृत्रिम बनाती है।
फिलहाल, भाषा या बोली मिश्रित भाषा के उपयोग से कालबोध के साथ-साथ स्थानबोध अनिवार्य रूप से होता है। जैसे दरबान कहता है- ‘जहांपनाह! हुक्म हो तो गुलाम कुछ अर्ज करे।’ – स्पष्ट है यह मुगलिया कालखण्ड की ओर संकेत कर रहा है। अब सलीम जहांपनाह से ऐसा संवाद बोलता है- हे डयूड्! आप कैसे हो।‘- गौर करें – आप कहीं मजाक तो नहीं कर रहे हैं। कॉमेडी तो नहीं रच रहे हैं। मित्र ने दरवाजे पर खड़े होकर आवाज लगाई – ‘अरे डपोरशंख! जिंदा है कि मर गया, निकल बाहर……..! ’
कहने की आवश्यकता नहीं कि दृश्यों के ठेंठ वर्णन या चित्रण में अथवा पात्रों के मुंह से कहलवाए गये संवाद कहानी को सीधे-सीधे जमीन से जोड़ते हैं। एक ऐसी गंध और स्वाद इसी बोली भाषा के दम पर उत्पन्न होता है कि हमें कहना पड़ता है – वाह! चरित्रों को तो आसमान से उतार दिया गया है। लगता है हम पात्रों और उनके परिवेश में जी रहे थे।
कहानी इसी तरह विशिष्ट बनती है। और लेखक को इसमें खूब मेहनत करने की जरूरत नहीं है – वह किसी ना किसी बोली-परिवेश का सघन अनुभव लिये होता है- उसे अपनी ताकत का भरपूर दोहन रचनाओं में करना चाहिए।
जब बात भाषा या बोली की हो रही है तो एक बात स्पष्ट कर दूं कि अकसर हम कहानी में अच्छी गद्य रचना, सजीव वर्णन को भाषा की समझ और भाषा-ज्ञान से जोड़ते हैं। जबकि सच भिन्न है- यह ऐसा लगता है, मगर बहुत बड़ा फर्क है। असल में हम जिस बात की तारीफ या जिस सुन्दर गद्य के कायल होते हैं वह दृश्यों के सजीव चित्रण, मनः स्थिति के स्पष्ट उल्लेख से सम्बंधित होते हैं – साथ ही रचनाकार कहानी के सभी पैरे-सभी परिवर्तित होते ‘सेटिंग’ के प्रति बहुत सतर्क रहता है। जैसे एक कमरे से पात्र दूसरे कमरे में या बाहर कहीं जाता है तो उसी अनुसार उसकी जुबान (लेखनी ) भी चलती है। वह सारे छोटे-बड़े दृश्यों, स्थितियों को पकड़ते चलता है। इसके लिए रचनाकार भाषा का गुलाम नहीं बनता, बल्कि भाषा को अपना गुलाम बनाता है। कबीर को भाषा का डिक्टेटर भी कहा जाता है- वे जहां भी जाते थे, स्थानीय बोली का खूब प्रयोग करते थे। भाषा-बोली उनकी चेरी थी। प्रेमचंद ने अपने गद्य में शास्त्रीय व लोक शब्दों का सुन्दर मिश्रण किया हैं सशक्त गद्य में क्रिया का सशक्त प्रयोग होता है। दृश्यों में गति मौजूद रहती है। कहने का अर्थ ये कि रचनात्मक वर्णन रचनात्मक दृष्टिसम्पन्न होने से आती हैं- केवल भाषा ज्ञान उसकी शर्त नहीं है। हॉ, आम बोल-चाल की भाषा में हम जरूर कहते हैं- कहानी/साहित्य लिखने के लिए शुद्ध भाषा चाहिए। भाषा ज्ञान पूर्ण चाहिए, इत्यादि।
बहुत सारे लेखकों को पढ़ते प्रतीत होता है कि लेखक दांत और जबड़ा भींचकर कहानी लिख रहा है। किसी गुफा में जा बैठा है और लिखे जा रहा है। वहां शब्दों और वाक्यों का ऐसा-ऐसा जाल बुनता है कि हिन्दी का साधारण पाठक तो उस भूल-भलैये में ही गुम हो जाए। शानदार रचनाएं तो सहज भाव से आती हैं। भाषा दो और दो चार नहीं होती। कुछ रचनाकारों को भाषा ज्ञान इतनी सख्ती से जकड़े रहता है कि वे बेचारे बंधनमुक्त हो ही नहीं पाते।
और इस भाषा प्रवाह को क्या कहेंगे – प्यार का दुपट्टा लहरा गया…., इश्क के नशे की भांग खा कुंए में जा गिरा…, ईश्क का कद्दू कलेजे में छिल गया…., गम की कॉफी वह पी गया……, बेवफाई प्यार की छिपकली मेरे सीने की दीवार पर जा चिपकी….., भ्रष्टाचार रूपी चमगादड़ चारो ओर उल्टा टंगें थे और बेचारे दीनू की उम्मीदों का पजामा चिथड़ा-चिथड़ा हो रहा था……!
वैसे, हास्य रस पैदा करना हो तो ख्याल बुरा नहीं है। ‘‘हाय गाईज! मुझे मुआफ करना आज खुशी के मारे रह नहीं पाया क्योंकि हमारे सलीम जंग फतह कर तसरीफ़ ला रहे हैं। अबे चिकने! देख क्या रहा है – फूल-माला कौन लायेगा………., बीरबल! अनार के जूस का प्रबंध क्या मैं करूं…?’’
सच तो ये है कि आज ऐसा लेखन हो कि उसका विकल्प सिर्फ वही हो, न टीवी का फिल्म न इंटरनेट। आप चाहे तो एक सुझाव पे खूब गौर फरमाएं – स्थानीय बोली का अपनी भाषा में सुन्दर मेल! ताकि पाठक कहे-पढने का मजा ही अलग होता है। और यह आपके भाषाविद बनकर नहीं, भाषा और विभिन्न प्रचलित बोलियों की अच्छी समझ और अच्छे मिश्रण से संभव है। जब आप कहानी के लिये पात्र उठाएं-विचारे कि वह कैसी भाषा/बोली का इस्तेमाल करेगा। बस्तर पाति लोक रंगो में रंगे चित्रों का स्वागत करती है। इसी अंदाज के साथ-साथ आपके पास कथ्य हो (सोद्देश्य) और कहानी का मूल तत्व-आगे क्या…., तो निश्चित है आप एक सफल साहित्यिक थ्रीलर लिख रहे है।
अंत में एक स्पष्टीकरण देना चाहूंगा। यहां लेखन में ‘मनोरंजन’ शब्द का उल्लेख किया गया है। इससे तात्पर्य यह लगया जाए कि एक नौ वर्षीय बालक के लिए मनोरंजन का अर्थ अलग होगा, सोलह वर्षीय युवा सेक्स विषयों से रोमांचित होगा, वहीं संभव है बूढ़े आध्यात्म और पुनर्जन्म विषयक साहित्य में डूबें। इस शब्द का अर्थ फूहड़ता से नहीं है- हास्य भी आप देना चाहें तो वो शालीन ही अच्छा लगेगा।
अब इस मनोरंजन से आपका मनोरंजन करना बंद करने की इजाजत दें- मनोरंजन से हमारा तात्पर्य रचना की पठनीयता से है। और हां, अतंतः एक रचनाकार ही सही-सही जानता है उसे अपनी अभिव्यक्ति किस तरह करनी है। अंतिम स्रष्टा वही है-हमने तो ऊपर सिर्फ डेमो दिखाया है। पूरा जीवन तो आपके हाथ में है।
(कहानी और उसके तत्वों पर बहस अगले अंक में जारी -संपादक)