साक्षात्कार-महेश्वर नारायण सिन्हा (पार्ट-6)

आज हम शहीद पार्क की हरियाली का आनंद ले रहे थे। जगदलपुर शहर के हृदय में बना ऑक्सीजन जोन -शहीद पार्क! शहर के तमाम लोग सुबह-शाम अपनी सेहत तंदुरूस्त बनाये रखने के लिये यहां आते हैं। तरह-तरह के पेड़, पौधों और फूलों के संग अपने आपको तरोताजा करते हैं।
महेश्वर जी को यहां गोल गोल चक्कर काटने में बड़ा मजा आता है। वैसे तो वे अपने घर के आंगन में घंटों गोल गोल घूमते रहते हैं परन्तु इस पार्क में घूमना बीच बीच में चलता रहता है। जब उनको अपनी बात लम्बें में बतानी होती है तब वे इसी तरह जार्गिंग करते हुये ही बताते हैं। उनके साथ इंदिरा स्टेडियम भी मैंने कई बार नाप लिया है। मच्छरों का आतंक कम हो जाये तो इस पार्क से शानदार प्राकृतिक आक्सीजन कें लिये भटकना न पड़े।
आज शहीद पार्क की खुली हवा में खुली सांस अपने फेफड़े में भरकर मैं उनसे आखिर अपनी पूछताछ जासूस की तरह करने लगा। एक साक्षात्कार लेने वाले को जासूस बनना ही पड़ता है। तब तो वह साक्षात्कारदाता से उसके जीवन की दबी छिपी बातें खोद खोद कर निकलवाता है। समाज के महत्वपूर्ण विषयों पर अपनी प्रतिक्रिया लोग बड़े ही दबे छिपे ढंग से ही देते हैं। और साक्षात्कारकर्ता को ये दबा छिपा सत्य बाहर निकालने के लिये अपना पसीना उलटी दिशा में बहाना पड़ता है।
सनत जैन-खुलेपन के नाम पर आज लोग मस्तराम के साहित्य को भी मात देते हुए ’साहित्य’ बेच रहे हैं, बल्कि थोप रहे हैं क्या ये सब जरूरी है ? क्या वक्त की यही मांग है ? या फिर ये किसी साजिश के तहत देश की सांस्कृतिक विरासत पर हमला है ?
महेश्वर जी एक क्षण रूके और मुस्कुराकर मुझे देखे। मैं अचकचा सा गया कि आखिर मैंने ऐसा क्या पूछ लिया है। फिर कहने लगे।
महेश्वर जी-ऊपर इन प्रगतिशील साहित्यकारों के नजरिये, दिशा-दृष्टि और इनकी रचनात्मकता पर हम हमने विस्तार से…., वैसे उतना विस्तार से भी नहीं ये ऐसे भी नहीं कि इन पर लिखा-पढ़ा जाये, मगर, चूंकि युवा पीढ़ी अबोध होती है, साहित्य के शिशु होते हैं….(हम सभी होते हैं) अतः उन्हें अन्य आयाम से अपनी अभिव्यक्ति करना जरूरी सा लगता है। ये बात कोई उपदेश या प्रवचन सरीखा नहीं है जैसा कि वे साहित्य के पुराहित करते आयें हैं कि आओ हम तुम्हें ’मुक्त’ करते हैं। चले आओ ’दलित भाई’…चले आओ ’ललित भाई’, चले आओ ’सलील और सलीम भाई’……, चले आओ मेरी रात की रानी….चले आओ मेरे हुक्मरान आका…..ये सभी को ’मुक्त’ करते हैं, ये अलग बात है कि इनके पिछवाड़े के पीछे का पूरा मलाई कौव्वा खा गया…..जो इन्हें दिखता नहीं। ये अपना…..तम्बूरा, पुरोहित बन बजा रहे हैं। रात-दिन पंडितों-पुजारियों को गरियाते-गरियाते ये मादर…खुद वही बन गये हैं।
तो, कह रहा था कि यह सिर्फ अपनी अभिव्यक्ति है, कोई शिशु इस निप्पल में मुंह लगाये या थूके…यह उसकी आजादी…..! (ये साला आजादी, मुक्ति बीच-बीच में घुस ही जाती है -बेशरम…!)
तो यह प्रवचन नहीं!
पर किसी का स्पष्टीकरण और सफाई किसके सामने….! तो यह क्या है….?
यह खुद के प्रति की गयी अभिव्यक्ति है। यह एक व्यक्ति की निजी धारणा है। बस….!
अब यह व्यक्ति की अभिव्यक्ति, समष्टि का हिस्सा होती है….ये प्रश्न समय सापेक्ष है। उसकी चिंता नहीं।
अब आपके प्रश्न पर आते हैं, वैसे जैसा पिण्ड है वैसी ही तो उसकी अभिव्यक्ति होगी। पिण्ड….महामानव…..प्रगतिशील महामानुस कि वनमानुस….?
वास्तविक श्रृंगार-प्रेम या सेक्स पर लिखना प्रगतिशील बनमानुसों के बस का नहीं, वह तो मस्तराम ही लिखेगा।
फिर आपने पूछा कि क्या ये वक्त की मांग है!
जी नहीं, वह ऐसा कुछ नहीं मांगता। जब आप प्रेम से बनायी थाली नहीं परोसोगे तो भूखा तो प्लास्टिक और पिज्जा भक्षण करेगा ही। असल में, जब उत्सुक युवा पीढ़ी के लिये आप उत्कृष्ट, सार्थक सेक्स रचनाएं नहीं लिख सकते तो जाहिर है, उन्हें जो हासिल होगा वही उनके लिये अनन्य है। वही सच है। वही अंतिम। आप ऐसे लेखक या ऐसे साइट बंद कर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकते। देखा जाये तो ऐसा साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा जाना चाहिये जो युवावस्था, चौदह से बीस साल के युवाओं के लिये सही ज्ञान परोसता हो। प्रेम व सेक्स को सार्थक नजरिये से देखता हो। समाज में फैले हजारों मिथक या पूर्व भ्रामक धारणायें जो जहर हैं -उनका सफाया हो। कई-कई अपराध, बलात्कार इत्यादि अनावश्यक पोर्न लेखन व साइटों के भ्रामक चरित्र व वैचारिक जहर के कारण घटित होते हैं। एक युवा आजीवन या काफी वर्षों तक इसी ज्ञानपुंज को वास्तविक समझता है जिसमें स्त्री को स्त्री के नजरिये से देखा-परखा जाता ही नहीं। आप गौर करें तो जो हिन्दी में पाठकों का हम रोना रोते हैं वह क्यों ना हो -सच्ची बातें रचनात्मक तरीके से परोसने का सामर्थ्य आपमें नहीं तो जाहिर है वह भूखा मैला खायेगा…।
सार्थक व सच दिखाने वाली रचनाएं चाहे कितनी भी यौन विषयक हो – कैसे हमारी संस्कृति पर हमला हो सकती हैं ? हम अपनी अजंता-एलोरा और वात्सायन की विरासत को कैसे भूल सकते हैं ?
लेकिन जब हम स्वयं से, स्वयं की धरोहर से ही कट जायें तो अंजाम क्या होगा ?
दूसरी बात, ये मस्तरामी ज्ञानी हमारी या किसी की भी संस्कृति पर क्या हमला बोलेंगे ….! जो साले खुद ही फटेहाल हैं चिथड़ा-चिथड़ा हैं। आपको लगता नहीं है कि ये मुक्ति मसीहा, पुरूष सत्ता के गुलाम, असल में सेक्स या खुलेपन की आड़ में स्त्री लेखिकाओं से यौन विषयक लिखवाकर अपनी सदियों की कुण्ठा की ’मुक्ति’ देखते हैं। असली ’फ्रायड’ तो वहां है। मुक्ति है मगर कहीं और!
स्त्री अपना प्रेम और शरीर के सभी गोपन रहस्य गुप्त रखती है, यही उसका स्वभाव है। इनकी रचनाओं में चाहे स्त्री ने ही क्यों ना लिखा है -सिर्फ देह व्यापार का रोमांच होता है। यहां सच ये है कि वास्तविक स्त्री कभी अभिव्यक्त ही नहीं होती। वास्तविक स्त्री को देखना, परखना, समझना है तो उसका ये तरीका कतई नहीं। वेश्यालय जाकर शरीर का साक्षात्कार होता है। स्त्री केवल शरीर नहीं।
खैर, तो फिकर मत कीजिये, आपकी संस्कृति पर कोई दाग नहीं लगने वाला। संस्कृति बहुत गहरी चीज होती है, सतह के दो-चार छिछोरे मास-पात भला इसका क्या उखाड़ लेंगे। पर हां, सेक्स पर साक्षात्कार, साहित्य भी आना चाहिये और खूब आना चाहिये। अच्छी चीजें लाइये, नहीं तो मस्तराम बाजी मार लेगा। हजारों साल पुरानी पेंटिंग्स, मूर्तियां ऐलोरा या वात्सायन कब्र से प्रकट होकर आपकी रक्षा नहीं करने वाले। इस मस्तरामी को उत्तर इस तरह दिया जा सकता है कि उससे बेहतर शरीर आत्म-तृप्तिकर विचारों से सम्पृक्त, सार्थक व सच्ची रचना जो युवा पीढ़ी केन्द्रित हो, सेक्स पर हो। लिखी जाये। लेखकों को आगे आना होगा, प्रकाशकों, संपादकों को ऐसी रचनाएं ढूंढ कर लानी चाहिये।
हां, दोगले लोग चिल्लायेंगे -ये क्या है!
तो आप उठो एक माइक खरीद कर दे देना -जरा जोर से चिल्लाओ…., मजा नहीं आया।
राजेन्द्र यादव दलित…..अभिव्यक्ति…..
मैं किसी जितेन्द्र भार्गव को नहीं जानता। कौन कहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर रहा है, उसका व्यक्तिगत संज्ञान कौन लेगा। वैसे भी, लगभग दस वर्षों से ऊपर हुये मेरा हिन्दी साहित्य से कोई रिश्ता नहीं। सिर्फ कुछ अपवाद हैं। कायदे से, अब इस हिन्दी साहित्य से कट चुका हूं तो इस पर ऐसी टिप्पणी मेरे द्वारा नहीं की जानी चाहिये। पर, मेरी टिप्पणियां मेरे पूर्व अनुभव पर आधारित हैं और पूर्व अनुभव ये कहता है कि ये वनमानुष अत्याधुनिक अपनी आदतों से बाज आने वाले नहीं, हिन्दी साहित्य के राजनीतिकरण ये करते रहेंगे क्योंकि, क्यों कोमरेड…, तुम्हारे इनकिलाब का क्या समाचार है….? ये छूटने से रहा।
दूसरी बात ये कि मैं हिन्दी साहित्य से उतना जुड़ाव महसूस करता हूं जितना अपनी भाषा, बोली, संस्कृति, परम्परा…मायथोलॉजी (जिससे इनको उबकाई आती है।) वगैरह-वगैरह से मेरा जुड़ाव है। हिन्दी साहित्य सिर्फ बनमानुसों का आचार-शास्त्र तक सीमित नहीं, जैसा कि इन बकर-बोइंयों ने रोपा परोसा है। हिन्दी साहित्य, इसकी परम्परायें अथाह हैं। जरूरत है हिन्दी साहित्य को फिर से परिभाषित करने की, फिर से अपनी मिट्टी से जोड़ने की। आंख खोलकर दृष्टि पैदा करने की न कि, आंख फोड़कर उधार की आंख मांगकर उधारी चश्मा लगाकर कागज को पीकदान, थूकदान बनाने की। और………और……और क्या कहते हैं -माडर्न शब्दचित्रों की, उत्तर…….उत्तर…..उत्तर., वही आधुनिक शास्त्र का फंदा -जैसी पट्टी गले में बांधने की।
अब रहा सवाल का अन्य पक्ष कि – ’ऐसे लोग महिला रचनाकारों का ब्रेनवाश कर सुखभोग कर रहे हैं।. ऐसा है तो मुबारक हो!
सुख-ऐश्वर्य को हासिल करना सबका अधिकार है।
बस एक प्रश्न है -क्या निजी जब सार्वजनिक प्रसंग हो जाये या व्यक्ति का अनुभव व्यष्टि को समर्पित किया जाये तो क्या ऐसा करते हुये वहां ’कर्तव्य’ बोध है ? आप गटर में गिरकर सुख भोगों, चूल्हे में जाओ, मगर व्यक्तिगत अधिकार के साथ व्यक्ति का कर्तव्य भी है जो सीधे-सीधे हमारे समाज, हमारी परम्पराएं, हमारे लोगों जनमानस की भावनाएं शामिल हैं।
क्या यह दूसरा पक्ष यहां मौजूद है ?
सवाल ये है।

सनत जैन-सर! एक बात कहूं! आपके पास सरसों का तेल पिलाये कितने और लट्ठ हैं……इन बेहयों के लिये…हा…हा…हा…उनमें जरा भी गैरत हो तो ये सब पढ़ कर शर्म में डूबकर मर जायें….मुझे कम उम्मीद लगती है….सूअर से भी मोटी खाल है …शायद! खैर! सर, आपने किशोर अवस्था की बात की है। आपका मानना है कि इस अवस्था को केन्द्रित कर रचनाएं आनी चाहिये जिससे समाज में खासकर युवाओं में मानसिक संक्रमण दूर होगा। क्या वर्तमान में ऐसे लेखक नहीं हैं या लिखा ही नहीं जा रहा है या फिर संपादकों द्वारा अघोषित बैन है ? इन तमाम विषयों पर जरा प्रकाश डालिये सर!
महेश्वर जी-क्षमा चाहूंगा कि आजकल मैं हिन्दी साहित्य से परिचित नहीं हूं। पर, मुझे लगता है कि हिन्दी साहित्य में ऐसा कोई ट्रेंड या दृष्टिसम्पन्न संपादक है जो किशोरवय को ध्यान में रखकर (केन्द्र में रखकर) ऐसी रचनाएं छापते हों।
किशोरवय से मतलब 14-15 से लेकर 18-20 के युवा। यह उम्र ऐसी है कि स्वयं का अपना शरीर खुद से और बहुत कुछ अचानक अपरिचित सा हो जाता है। अथाह उर्जा, चेहरे में दाढ़ी-मूंछ, आवाज भारी, शरीर का अचानक ग्रोथ, बाढ़ आना जिसे कहते हैं। मन का अपने शरीर और विपरित लिंगी के प्रति एक अनजाना सा, अज्ञात किस्म का जबरजस्त खिंचाव! दूसरी ओर लड़कियों में भी वैसा ही बदलाव। अति सुंदर हो जाना, शरीर की बाढ़, अपने ही प्रति जिज्ञासा और शर्म, आवाज लड़कों की तुलना में सुरीली हो जाना। मेंस्टुरेशन। लड़की को प्रकृति द्वारा प्रेषित यह संदर्भ कि वह मां बनने योग्य है। समान रूप से विपरित लिंग, लड़कों के प्रति जिज्ञासा!
अब एक ओर जहां लड़का-लड़की दोनों के निजी शरीर, विचार, हारमोन्स इत्यादि में बड़ी तेजी से बदलाव आने लगते हैं, समाज, समूह के नजरिये और नजर में फर्क नजर आने लगता है। विशेषकर लड़कियों को लेकर, तो वहीं यौन विषय बरबस दोनों ओर ’खिंचाव’ प्रारंभ हो जाता है। युवावस्था के इस प्रारंभिक दौर में इस निजी प्रसंग में मन लिप्त होने की चेष्टा ना करे, संभव नहीं! विशेषकर हमारे समाज जैसे बंद और मूढ़ समाज के न केवल लड़कियों -बल्कि लड़कों के भी सार्थक यौन सम्बंधी जानकारी नहीं के बराबर प्राप्त हो पाती है। लड़के तो लड़कियों को लेकर इतने भ्रमित और कुछ मेनिया, कुछ मिथक और बकवास ज्ञान से परिपूर्ण रहते हैं कि कुछ धारणाओं से उबरने में शायद वर्षों लग जाते हैं। सच तो ये है कि पुरूष ’स्त्री’ के स्वभाव को लेकर आशंकित ही रहता है। वह कभी उसकी रखवाली करने बैठ जाता है तो कभी चौकीदारी तो कभी उसकी जासूसी करने! अधिकांश मर्द ता-जिन्दगी स्त्री या पत्नी को संशय से देखते रहते हैं जिसका संभवतः एक ही वास्तविक कारण होता है -वह है किशोरवय में प्राप्त स्त्री और सेक्स को लेकर हासिल किया गया कूड़ा ज्ञान!
स्त्री, पुरूषों की अपेक्षा सात गुना ज्यादा खाती है, स्त्री पुरूषों की तुलना में आठ गुना ज्यादा कामी होती है, स्त्री एक साथ कई पुरूषों के समागम पसंद करती हैं, कई-कई उसके प्रेम प्रसंग उसके हो सकते हैं….., स्त्री छद्म रूप से वेश्या ही होती है…..;
आदि….आदि!
दूसरी ओर युवाओं का ज्ञान गंगा कहां से शुरू उद्वेलित होती है ? मस्तराम….. भांग की पकौड़ी, किस्सा, तोता-मैंना जिसमें ऐसी कहानियां बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं जिसमें स्त्री अपने प्रेमी संग उस खाट के नीचे मिलन अभिसार कर लेती है जिस खाट पर उसका पति सो रहा होता है, या फिर दूध-दही माप-तौल करते-करते ही यदुआइन पंडिजी से छू-छुपाई कर लेती है। कुल मिलाकर स्त्री को कुत्सा और कुल्टा करते दिखाया जाता है और पुरूष चरित्र खूब सयाना, चौड़े सीने वाला और….और भी मजबूत माप-जोख वाला बंदा होता है जिसका लोहा गांव या कस्बे की हर सुंदर स्त्री उसके झांसे में होती है।
पोर्न कथाएं अगर इतनी ही होती तो युवा मनोविज्ञान पर उतना बुरा असर नहीं पड़ता मगर मिथ्या धारणायें तब जड़ जमा लेती है जब ऐसे चरित्र स्त्री के साथ एकांगी पहलू अर्थात पुरूष नजरिये, वह भी कैसा नजरिया, जो निहायत अवैज्ञानिक, फूहड़ ज्ञान और मूर्खतापूर्ण व्यवहार का नतीजा होता है।
सवाल है, इन सारी बातों का उल्लेख क्यों जरूरी हो जाता है और क्यों इस विषय पर सार्थक साहित्य की रचना की आवश्यकता महसूस होती है ताकि युवा पीढ़ी को स्त्री-पुरूष प्रसंग पर वैज्ञानिक, सही उत्तर प्राप्त हो जाये।
यदि आप स्वादिष्ट, पोषक आहार नहीं मुहैया करवायेंगे तो कोई भूखा, संभवतः कुछ वैसा ग्रहण करेगा जो ग्राह्य न हो। अवांछित हो। आप इसकी भर्त्सना और निंदा करते रहें। कानून बताते रहें। पोर्न साइटें बंद करते रहें। ऐसी चीजें ना रूकी हैं न रूकेंगी। कोई नहीं मिलेगा तो कोई बूढ़ा वाचक भैंसी में युवाओ को बैठाकर ऐसे-ऐसे विकृति कथाएं, गप्प लड़ायेगा कि आप वहीं ढेर हो जायेंगे।
कुत्सा जगाना आसान है। कुवृत्ति पैदा करने के लिये कुछ नहीं करना पड़ता। वह खर-पतवार है, गेंहू के साथ गेंहू जैसा खर-पतवार उग आता है, कैंसर की तरह बढ़ता है। और चारो दिशाओं में, दसों दिशाओं में फैल जाते हैं। फिर कहां असली गेंहू और कहां नकली!
लिप्सा और तृष्णा स्वाभाविक वृतियां हैं, तालाब में नये पानी की आवक हो अन्यथा तालाब कचड़ों से भर जायेगा। तालाब छिछला हो जायेगा। फिर वहां भैंसें भी डुबकी लगाना पसंद नहीं करेंगी।
तो इसका हल….?
आप सार्थक लिखें, वैज्ञानिक लिखें, ऐसा लिखें कि पढ़कर प्रेम भाव जागृत हो, कुण्ठा, तृष्णा और कुत्सा नहीं।

सनत जैन-महेश्वर जी क्षमा चाहूंगा बीच में ’रूकावट के लिये खेद है’- यह कि आपकी सोच से ऐसा प्रतीत होता है कि आप युवा पीढ़ी या पुरूषों को मक्खी बनने की भर्त्सना करते हैं, उसे सुंदर तितलियों की तरह होना चाहिये जो विषय को जाने, समझे मगर लिप्त ना हो पाये। शहद का निर्माण करे मगर मक्खी की तरह शहद में चिपक ना जाये। क्या मैं सही हूं ? यदि हां तो कृपया मार्गदर्शिका के रूप में ही सही, युवा पीढ़ी को केन्द्रित साहित्य कैसा हो ? जाहिर है आपके अनुसार सेक्स विषय को ’अछूत’ नहीं माना होगा। अन्यथा गलत साहित्य गटर-रचनाएं हम पर हावी हो जायेंगी और हम क्रांति का नारा देते रह जायेंगे -लड़कियों का बलात्कार हुआ, घरेलु हिंसा बढ़ी आदि-आदि पोस्टर बैनरनुमा ’इंकलाब’ राजनीति का हिस्सा बनते देखे गये हैं। कानून की एक सीमा है मूल बीमारी कहीं और….। कृपया विस्तार से बताने का कष्ट करें।
महेश्वर जी-सनत जी धन्यवाद, इस ‘रूकावट’ के लिये, और हां, कोई ’खेद’ की बात नहीं। बिलकुल सही पकड़ा आपने…बल्कि मेरी बात को और अच्छे से प्रश्न के माध्यम से सुलझा दिया।
आभार…!
वैसे आपने नहीं भी पूछा होता तो मैं अवश्य इस विषय पर रौशनी डालता ही, क्योंकि ’ये करो -ऐसे करो, वैसे नहीं, ऐसा नहीं-’ नीतिपरक बातों से मुझे चिढ़ है, आधुनिक मनुष्य को प्रवचन की नहीं तर्क व विसडम – प्रबुद्धता की आवश्यकता है। अपना ’दीपक’ सभी को ढूंढने की दरकार है। अतः यदि मैं कहता हूं कि ये ऐसा हो – तो अपना तर्क होता है, ठोस कारण होता है ऐसा कहने का, क्यों ? इसका समाधान जरूरी है।
हम भारतीय प्रश्न नहीं पूछते, एक टांग पर खड़े होने वाले हम ’महावीर’….! आदेश कीजिये….हुकूम कीजिये सरकार!
आपके प्रश्न के हिसाब से कैसा साहित्य हो ? उसका स्वरूप ?
वह सार्थक हो….
वह कुत्सा न जगाये, बल्कि उसे मारे…
सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित करे…
स्त्री-पुरूष को समझे…वैज्ञानिक तरीके से….
सही तथ्यात्मक ज्ञान परोसे….
यौन विषय की अतिश्योक्ति ना करे….
ये ऊपर के सारे वाक्य मिथ्या प्रवचन हैं यदि हम इसका उद्देश्य ठीक-ठीक अर्थ न निकाले। सही-सही परिभाषित ना करें। साहित्य कोरी नारेबाजी नहीं। यहां कोई इन्कलाब नहीं लिखना है। या लाल झण्डा हमारा है -फहराने की जरूरत नहीं।
कृपया अपना झण्डा झुका दीजिये -शोक में नहीं आनंद में!
सच ये है कि यह सवाल ना युवा पीढ़ी (लड़का-लड़की) ये सम्बंधित है, बल्कि तमाम स्त्री-पुरूष से सम्बंधित है।
तमाम स्त्री-पुरूष मतलब सम्पूर्ण प्रकृति…!
तमाम स्त्री-पुरूष मतलब सम्पूर्ण पुरूष…..!
और इनका संयुक्त समागम मतलब ये सृष्टि जो हमारी रचना है हमसे है, हममें है, साथ ही हम उससे हैं, हम ’उसमें’ ही हैं। हम दोनों भिन्न नहीं। अभेद हैं। रूप और विस्तार पृथक-पृथक हैं। खण्ड और पिण्ड में रूप व स्वरूप का भेद है -गुण का नहीं। स्वभाव का नहीं। शक्ति का नहीं।
हमने ऊपर कहीं कहा है कि मनुष्य कोई खण्डित इकाई या प्राणी नहीं।
हमने ऊपर कहीं कहा है कि -मनुष्य कोई खण्डित इकाई या प्राणी नहीं है। यह उतना ही सम्पूर्ण है उतना ही अनंत है जितना ब्रह्माण्ड! मनुष्य के जीवन से धर्म राजनीति, शिक्षा, खेल, साहित्य या भाषा या यौन शिक्षा या यौनिकता, स्त्री- पुरूष प्रसंग इत्यादि खण्डित करके नहीं समझा जा सकता!
और सबसे बड़ी बात-’प्रकृति हमें क्या सिखा रही है, कुछ इशारा है ?
आगे मैं ’प्रकृति’ पर भी पृथक से कुछ कहना चाहूंगा। आखिर यह प्रकृति है क्या…कृपया याद दिला देंगे…।
तो, वापस आपके प्रसंग पर कि जैसा आपने कहा कि ’युवाओं को जबरन यौन पिपासा, कुण्ठित मानसिकता का शयन करने के लिये, ऐसी रचनाएं प्रकाशित की जाती हैं।
मैं अपने बचपन के एक प्रसंग का जिक्र करा चाहूंगा। सच ये हैं कि इस प्रसंग को कहा ही नहीं जा सकता। अब आप सोच सकते हैं कि आखिर बात क्या और कैसी हो सकती है….!
मेरी उम्र बालमन की ही रही होगी। किशोरवय भी तब दूर था। तीन-चार हमउम्रों की हमारी दोस्ती थी। हम स्त्री-पुरूष के तौर पर सिर्फ यही जानते थे कि यह लड़का है, और यह लड़की है। 12-13 या 14 साल, अंदाजन हम सब सी उम्र के थे। हमारे बीच एक बूढ़ा, बिना दांतवाला, सर से गंजा जो कालोनी में ही रहता था, वह हमारे बीच आ जाया करता था। न जाने किस बात पर वह पुरूष व स्त्री अंग के बारे में मजे ले लेकर बताने लगता। वह इन प्रसंगों को इस तरह हमें वाचिकता शैली में प्रस्तुत करता मानो अलिफ लैला के किस्से कह रहा हो। हम इधर-उधर अपने में मशगूल होते मगर उसकी बातों से हममें से कोई न कोई हंसता ठहाके लगाता। उसकी बात का अर्थ तो हममें से शायद किसी के पल्ले नहीं पड़ता। बाद में, उससे विमुख होते हम फिर अपनी स्वाभाविकता में लीन हो जाते। अब उसकी कुछ बातें मुझे याद हैं। उसके भाव से लेकर, अभिनय के साथ व्यंजन के तरीके। वो सब कुछ इतना अभिष्ट है कि बयां करने योग्य नहीं। मगर आज सोचने पर विवश जरूर हूं कि आखिर कैसी कुण्ठा, कितना भीषण अज्ञान व कुत्सा भरी उसकी लिप्सा उसकी बातों में होती थी। क्यों ? वह क्यों हम अबोध बच्चों के बीच अपनी वाचिकता, भाव-भंगिमा के साथ लगभग रोज ही हमारे बीच अशिष्टता प्रकट करता!
दबी कुण्ठा!
सीधा सा उत्तर है। और यह क्यों …! हम यह अनुमान लगा सकते हैं, उसके लिये स्त्री के क्या मायने होते थे -पुरूष का मतलब क्या होता है।
कुछ इसी तरह के किशोरवय में हमारे ’अनुभव’ रहे हैं। एक भी वैज्ञानिक सच नहीं, मिथ्या धारणायें, स्त्री के विषय में तो और भी वैज्ञानिक सनातन सच…..! मजा ये कि हम इन चीजों को तब सही मानते थे। यही सच है। फिर धीरे-धीरे अच्छी पुस्तकों का साथ मिलता है -बहुत सी मिथ्या धारणायें, कुछ मेनिया से निजात मिलता है। ध्यान रहे, इन विषयों पर एक पढ़ाकू होने और जिज्ञासु होने के कारण। आप अंदाजा लगा लें एक ऐसे ज्ञान को लेकर एक बच्चा युवावस्था को प्रवेश करे और मस्तराम पढ़े तो उसका हश्र क्या होगा !
ये वास्तव में चिन्तनीय विषय है, मगर हमें क्रांति से फुरसत मिले तब तो….। मजेदार कि सभी क्रांतिकारी (???) भी शायद….शायद कहीं ना कहीं ऐसे सूखे-अंधे-गहरे कूप ज्ञान के स्वामी हों। ता-उम्र ऐसी कुण्ठायें नहीं निकलती। ऐसे ही मर्द या तो स्त्री के चौकीदार हो जाते हैं, अपनी कटन-भाभी के सूबेदार, बेटी के जज…., और पत्नी के थानेदार! कुछ तो ऐसे भड़वे-भांड होते हैं कि अपनी बीबी के पेटीकोट के टांके गिन लें….!
यदि आप यहां तक सहमत हैं कि हां, ऐसे साहित्य जो किशोरवय को समर्पित या केन्द्रित है, प्रचुर मात्रा में आना चाहिये। अब इसके बाद सवाल उठता है जैसा कि आपके प्रश्न में है कि उसकी दिशा-दशा क्या हो…, उसे किस तरह लिखा जाये ताकि अच्छे साहित्य बाहर सकें।
जरा गौर करें-
-) एक कमसीन उम्र की लड़की अपने प्रेमी /बायफ्रेण्ड के साथ भागती है धन घर से कुछ चोरी भी की है। बायफ्रेण्ड उसे ’महानगर’ में लाकर दलालों के हाथ बेच देता है।
-) कुछ खाये-पीये घर के धन दौलत से सम्पृक्त लौंडे लड़की फंसाकर, विवाह का झांसा देकर अपने मित्रों के साथ ऐश (गैंग रेप) करते हैं। खतरा आने पर उसे मार कर फेंक देते हैं।
-) लड़का-लड़की दोनों अबोध हैं, नादान, सच्चे हें मगर प्यार और विवाह, रीति-रिवाज, परम्परा सभी को धता बताकर भाग खड़े होते हैं। उनकी जाति अलग है और गांव वाले उन्हें इज्जत के नाम पर किसी तरह ढूंढकर उन्हें ’ठीक’ करने की प्रतिज्ञा करते हैं। अकसर इसमें लड़की के ही हाथ-पांव बांधकर घर में कैद कर दिया जाता है या किसी रिश्तेदार के यहां प्रवासी बना दिया जाता है।
-) कुछ बायफ्रेण्ड तो इतने घाघ होते हैं कि अपनी गर्लफ्रेण्ड को ही खड़े खड़े बेच देते हैं -उसे वस्तु की तरह, चार लौण्डों के बीच या किसी एक प्रभावशाली मर्द (?) के हवाले जबरन किया जाता है -कर्ज माफी का तरीका…नौकरी बचाओ…, वगैरह…!
-) किसी लड़की की उसकी मर्जी के इतर दूसरे से शादी की जाती है। (दहेज, जाति इत्यादि कारणों से)।
-) अबोध व 18 के आसपास या उससे कम उम्र की लड़की या उसका बायफ्रेण्ड या वो शख्स जिसने उसे प्रेगनेंट किया है -सबके समक्ष आग…।
-) लड़की 18 पार है वो शादी के पूर्व ही प्रेगनेंट हो जाती हे -वह बच्चे को जन्म देना चाहती है। मगर कैसे …? क्या समाज, आनेवाला समय उसे स्वीकार कर पायेगा ?
बदलते समय व शहरी, मेट्रोपॉलिटन व नये ग्रामीण परिपक्ष्य में -हर जगह ’टीन एज’ किशोर-किशोरियों के जीवन में प्रेम, आर्कषण, सेक्स, विवाह, समाज की स्वीकृति -अस्वीकृति आदि सवाल उठते हैं। बल्कि पहले से कहीं ओर ज्वलंत। अविश्वसनीय घटनाएं। कहीं पूंजीवादी नजरीये का खुलापन, दिखावा, ढोंग, चमक-दमक में अंधे युवा (लड़कियां खासकर जिन्हें रातों-रात सफलता चाहिये) वर्ग के सामने अनेको अनेक ऐसी घटनाएं और अपराधों का जन्म इस नये समाज, हमारे उत्तर-उत्तर मानसिकता में समा चुका है। जिसका विचार बहुत गंभीरता से जरूरी है।
ये तो कुछ बानगी है जो नये समाज, युवाओं के बीच नयी सोच से अंतःसम्बंध स्थापित कर नयी -नयी अविश्वसनीय घटनाएं दर्ज करा रही हैं।
अब आप कहेंगे इन अपराध कथाओं के भीतर जाने की क्या जरूरत ? इनका साहित्य से क्या लगाव! हमारी बातचीत तो युवा पीढ़ी और सेक्स की सार्थकता पर केन्द्रित थी।
जी, सही शंका है आपकी, मैं उम्मीद करता हूं आप यही सोच रहे होंगे।
तो इसका समाधान ये है कि -पहली बात- कि लक्ष्मण रेखा हर जगह है। कहीं न कहीं तो एक दायरा खींचना होगा कि हम कितना फैलें और कितना सिकुडें कि ताना-बाना अच्छे से बुने। याद कीजिये महात्मा बुद्ध को!
दूसरी बात- दुनिया का कोई भी अपराध हो खासकर इस उम्र में घटित होने वाला -प्रेम व यौन आकर्षण ही (भी नहीं) अधिकांशतः उसका केन्द्र होता है। यहां तक कि हर वो मर्द जो मादरजात बलात्कारी होता है वह कहीं न कहीं नामर्द, नपुंसक होता है, और यह बीमारी कब लगती है -बचपन -किशोरवय में। उसे जरूरत तो प्रेम की होती है मगर वह न जाने क्यों यह मान बैठता है कि वह इस लायक नहीं (आत्महत्या, सेल्फ काम्पलेक्स) और प्रेम तो नहीं हां, स्त्री शरीर को अधिकृत, जबर व दमन करने की प्रकृति पाल लेता है।
मेरा निजी ख्याल है और गारंटेड ख्याल है कि ऐसा युवा ’अपने जैसा’ चरित्र पर किताब, कहानी, फिल्म देख-सुन ले तो उसका रोग आधा खत्म। कलाएं व साहित्य-सिनेमा हमारी कुण्ठाओं को जबरदस्त विरेचन करती है।
अब कौन सी व कैसी रचना ऐसी कुण्ठा से बाहर निकालेगी ?
पोर्न…?
स्त्री मुक्ति आंदोलन…?
किताब-ग्रंथ में दर्शाये थ्योरी अनुसार…?
उत्तर आपको ज्ञात है।
स्पष्ट अभिमत है कि प्रेम व सेक्स के संदर्भ में साफ सुथरे व शिक्षा के साथ-साथ व्यवहारिक बातों से किशोरों को अवगत कराया जाये। उन्हें बताया जाये कि हर काली लड़की उतनी ही सुंदर है जितनी लाल गुलाब! उन्हें बताया जाय कि हर फेल होने वाला लड़का कहीं न कहीं कोई न कोई गुण से भरा होगा जिससे समाज व परिवार को लाभ हो -वह उतना ही अहम है व प्रेम योग्य है जितना एक अमीर, स्मार्ट, पढ़ाकू, खिलाड़ी और चैम्पियन! हाशिए पर होना कमतरी नहीं! यदि स्वयं को आकाश के मध्य खड़ा किया जाये तो ये कायनात उसके इर्द-गिर्द घूमती नजर आयेगी- वह इतना महत्वपूर्ण हो सकता है! सोशल नार्म, रूढ़ियां, प्रचलित धारणायें मिथ्या हैं बशर्ते वह अपने महत्व को पहचाने।
ऐसी शिक्षा स्कूल कालेजों में दी जा सकती है -पर, एक-दो कहानी-कविता चिपका देने भर से शैक्षणिक व सामाजिक क्रांति नहीं आने वाली। एक स्वस्थ समाज की सब की जवाबदारी है। यह नैतिक कर्तव्य है। पूर्वधारणाओं, मिथ्या धारणाओं से मुक्ति का पाठ कर स्वस्थ व स्वच्छ बौद्धिकता विकसित की जाने पर गंभरता से विचार जरूरी लगता है।
और जिस दिन से सचमुच ऐसी बातें कि शीघ्रपतन एक रोग है, स्त्री को सेक्स की भूख आठ गुना….., लड़की हंसी तो फंसी…., लड़की ’नहीं’ बोल दी तो उसके घमंड को चूर कर दो….गैंग रेप….! मर्द बनाम मर्द का आठ अंगुल!
तो बैधराज भीमकुमार….., बैध का काढ़ा…., बैध जी के नुस्खे…., चमत्कारिक तंत्र-मंत्र…, फकीर बाबा के ताबीज और टोटके…., पाण्डे जी की अंगूठी…, लाल-पीली…, सड़क पर बिकने वाला सांडा का तेल…, मोहिनी अस्त्र…., मोहन भोग मिठाई…., पलंगतोड़ पान…., इंद्रजीत का ब्रहमास्त्र शीलाजीत…., सांय-सांय और खटिया खट-खट…ये सब फितूर….लाइलाज खाज-खुजली सब गायब….मगर धीरे-धीरे…!
उचित शिक्षा….
सही व प्रचुर साहित्य, कला, सिनेमा….।
आपके प्रश्न से उत्तर में बहुत से विषयों पर विचार प्रकट करने पड़े। जैसा मैंने पहले कहा था कि यदि सचमुच आप किसी मुद्दे को लेकर गंभीर है तो खण्डित ’पाठ’ से झोल के सिवा कुछ हासिल होने वाला नहीं। विचार समग्रता में किया जाना में किया जाना पहली शर्त….समग्रता….अखण्डता भारतीय विचार हैं, दर्शन हैं, सूक्ष्म व मानसिक, शारीरिक शरीर (सेल) को भारतीय शास्त्र ने पांच भागों में विभक्त किया -इस ज्ञान से मिलता-जुलता फ्रायड का मनोविज्ञान है कि मनुष्य का चेतन, अचेतन और अवचेतन जैसा स्तर है। अवचेतन बहुत गूढ़, शक्तिशाली होता है। पश्चिम के ज्ञान को हमने जैसा कि देखा-समझा है, भारतीय विद्वान आंख मूंदकर बिना सवाल स्वीकार करते हैं और बहुत ही फूहड़ या बहुत ज्यादा एकेडमिक शोध प्रस्तुत करते हैं। उन्हें भारतीय सुस्पष्ट ज्ञान की विवेचना नहीं दिखती। खैर, जैसा कि हमने इसी साक्षात्कार में कहा भी है कि फ्रायड का मनोविश्लेषण भी हिन्दी साहित्य में चर्चा पाता है, मगर इस पर एक भी कहानी आम पाठकों के पल्ले नहीं पड़ती, या शायद ये कहानी बन ही नहीं पाती। व्यक्तिगत तौर पर मैंने एक भी ऐसी कहानी मेरे दिमाग में हंट करती। बस इतना याद आता है कि शुरू से आखिर तक ये कहानियां बहुत बोझिल होती थी।
शायद यह मेरी कमी हो….!
यह हॉलिस्टिक ट्रीटमेंट क्या है। अखण्ड नीति क्या है।
किसी एक बीमारी का इलाज नहीं, अपितु पूर्णतः बीमार का इलाज। और पूर्णः बीमार का इलाज करने के लिये बीमार का केस हिस्ट्री जानना जरूरी होता है। भारतीय समाज विशेषकर युवा संदर्भ में विशेषकर पुरूष संदर्भ में कहां, किस जगह पतन और शीघ्रपतन से ’पतित’ है -का इलाज तो सूक्ष्मता से करना ही होगा। फिलहाल इस बीमारी का इलाज किसी वैधराज के काढ़े या डॉक्टर साहेब के कैप्सूल से नहीं मिलने वाला। इसकी जड़ें गहरी हैं जिस पर ऊपर चर्चा की गयी, दुबारा यहां उल्लेखित करने का आशय यह था कि अमेरिका का कोई शोधार्थी अपनी युवा-पीढ़ी के हिंसक होने के कारणों का पता लगाता है तो उसकी देखा-देख हम भी एक शोध-पत्र की कॉपी पेस्ट यहां न प्रस्तुत करें, वरन अपने रोग का इलाज अपनी परम्परा, अंधविश्वास, सामाजिक मान्यताएं, शिक्षा इत्यादि के संदर्भ में की जानी उचित होगी -और यही हमारे विचार से हमारे अपने साहित्य होंगे।
ग्लोबल या अखण्डता विश्व बंधुत्व के संदर्भ में मायने रखता है -मगर एक व्यक्ति की पहली प्रतिबद्धता उसका अपना शरीर है, फिर उसके परिवार और सगे। साइबेरिया और अमेजान के लोग बाद में आयेंगे। यह विश्व कुटुम्ब है -मगर जिसकी शुरूआत और जिस घर के खिड़की दरवाजे स्वयं के घर से प्रारंभ होता है। यही वास्तविकता है। यह नहीं कि चीन का दलित किसान, हमारी पहली प्रायोरिटी बन गया और अपने गये तेल लेने। बहुत पाखण्ड-अशिष्टता की हद तक अशोभनीय।
सार में कि इसकी थ्योरी हमारी मिट्टी में ही है – उसे खोजा जाना चाहिये न कि हमेशा की तरह बाहर से ’आयात माल’ उड़ा लाना। अपनी अखण्डता की शिनाख्त अपनी होगी। बीमारी की जड़ अगर हमारे शयन कक्ष में है तो लंदन या लीबिया के शयन कक्ष ये माल क्यों चुराना!
आज के संदर्भ में जहां हमारी अर्थव्यवस्था और समाज उत्तरोत्तर विश्व के लिये खुलता जा रहा है- सभ्यताएं उदार होती जा रही हैं, क्या हमारी मानसिकता भी उसी स्तर से, उसी गति से खुल पा रही है ?
जिस तरह हमारे यहां रातों-रात मध्यम वर्ग करोड़पति बनते जा रहे हैं क्या उसी अनुपात में मानसिक विकास भी देखने को मिल रहा है ?
किस कारण या किन कारणों से एक भारतीय पुरूष चाहे पिता, भाई, पति, प्रेमी…सम्बंधित स्त्री या बच्ची-बच्चियों पर निगरानी रखता है, क्यों ? वह वास्तविक खुलेपन से डरता है …, वह जानता है भारतीय मानसिकता को….कि बौद्धिक बातें, कानून अपनी जगह, सड़ी मानसिकता अपनी जगह। वह अपने मित्रों-सगे-सम्बंधियों को ही अच्छे से जानता है कि किस तरह पुरूष नाम का महावीर बारह वर्ष की बच्ची के साथ मौका लगते ही परमवीर चक्र जैसा प्राप्त करने जैसा दुस्साहस कर डालता है। हमारे समाज का पुरूष वर्ग और स्त्रियां भी अच्छे से इस पुरूष मानसिकता को जानते- समझते हैं।
सार ये, कि वही…, शरीर में महंगे कपड़े आ गये, घूमने के लिये महंगी कार.., आलीशान बंगला, शानदार बैंक बैलेंस….मगर -, अगर वही कि…घर की कामवाली को घूर कर देखते हैं। बच्ची की सहेली की ’ग्रोथ’ पर मूडिया जाते हैं।
बाहर की अमीरी का, हमारे भीतर की ’दरिद्री’ से कोई मेल नहीं। और, यह स्थिति तो और खतरनाक है। आप किसी पर भरोसा करने लायक नहीं रहते। हमारे समाज की लड़कियां, स्त्रियां, बच्चियां कब कहां शिकार हो जाये -नहीं पता! कारण..?
यौन कुण्ठा!
ठीक है फ्रायड महोदय ने इस पर बहुत लिखा है, मगर इस कुण्ठा और अन्य तरह की कुण्ठाओं को समझना है तो मेरे विचार से पूरी दुनिया में महाभारत से अच्छी पुस्तक (महाभारत) और नहीं!
जिस तरह ज्ञान का शिखर होता है, उसी तरह अज्ञान का भी तल होता है। एक उत्कर्ष की तरह, दूसरा निकृष्ट जैसा। हम इनके बीच की दूरी शायद पूरी तरह कभी मिटा न पायें -मगर इस दिशा में सार्थक प्रयास जरूर कर सकते हैं। यह कोई ऐसी दवा नहीं कि आसमान से या समुंदर से टपका और आपने इनहेलर से इनहेल किया। ऐसा हेलम -हेल बहुत हो चुका, अब आप जहां हैं -जिस स्थिति में, ज्ञान-अज्ञान के जिस तल में -पहले स्वयं से पूछिये -मैं खुद कितना बड़ा चूतिया हूं। मेरे प्यार की परिभाषा क्या है ? पत्नी-बच्चे, बहन, सगे-सम्बंधियों को कितना और कैसा रेसपेक्ट देता हूं। क्या मैं स्वयं शीर्ष पर हूं -साफ हूं -स्वच्छ हूं -निर्मल, बुद्धि सम्पन्न हूं जो प्रेम, आकर्षण, परम्परा और स्थितियों की भली-भांति पहचान कर लेता है। क्या मैं ऐसा हूं या मैं भी भीतर से दोगला, भड़वा और मौका परस्त एक लम्पट ही हूं!
और सच पूछिये -जिस दिन ये चुतियापा सा लगने वाला सवाल आपके जेहन में घुस जायेगा, कुछ न कुछ सकारात्मक आपके साथ घटित होगा ही। कोई अच्छा या बुरा जैसा नहीं, बहुत अच्छा या बहुत बुरा जैसा भी नहीं, सत्य जो हम स्वीकारते हैं वही हमारे स्वास्थ्य की निशानी है। यही हमारी जीत। वरना बहुत अच्छा, बहुत गंदा, डर्टी एंड वेरी डर्टी मैन -ये जुमले मायने नहीं रखते। दोहरी नीति सबसे घातक है।
साहित्य या कथा-कहानियों में नकारात्मक स्थिति से सकारात्मकता की ओर स्थानांतरण अथवा इसका उल्टा घटित होना दिखाया जा सकता है। फर्ज कीजिए एक व्यक्ति को कूड़े से (गरीबी और वैचारिक) उठाकर परिस्थितियां उसे जीवन के सच्चे मकसद की ओर प्रेरित करती हैं -चरित्र भी इस अवसर का लाभ उठाकर मुक्त होना चाहता है। ठीक विपरीत इसके उलट एक सम्पन्न व सही सोच वाला व्यक्ति भी गलत परिवेश, गलत संगत, गलत अध्ययन के कारण पतित होता जाता है और अंततः कानून व समाज की नजर में एक अपराधी का तमगा प्राप्त करता है।
उक्त दोनों स्थितियां साहित्य के लिये प्रेरणा हैं। साहित्य में एजेण्डा नहीं इंटेंशन महत्वपूर्ण होता है। सावधानी की बात ये है कि क्या हम पुनः इन विषयों को किसी ’एजेण्डा’ की तरह घोषित -नारा के तहत लिखें व छापें ? फिर तो अंजाम वही है जो तय है। कहने का तात्पर्य ये कि हमारा विषय ’अमुक’ पर केन्द्रित’ तो हो मगर उससे साहित्य में अंतःसम्बंध स्थापित करते वक्त कोई ढर्रा, कोई फोटो मशीन, कोई कार्बन कापी का कबाड़ न बने। विषय जितना उन्मुक्त है -उसके साथ साहित्यिकों का ’ट्रीटमेंट’ भी उन्मुक्त, विधि और बिना ढर्रे का हो। इसलिये, अपनी बात कहते हुये हम सिर्फ बानगी, उदाहरण के तौर पर ही हमने इन विषयों की ओर रेखांकित किया है -ये बस प्रारंभ है और निश्चित ही अंत तो नहीं। ये बस, एक यात्रा है।
आपको हमारे साथ चलना है ?

सनत जैन-अद्भुत जवाब है सर आपका! ’साहित्य में एजेण्डा नहीं इंटेंशन महत्वपूर्ण होता है।’ आदर्श साहित्य की रचना इस वाक्य से ही सार्थक होगी। सकारात्मक साहित्य ही वास्तविक साहित्य है इस बात को साहित्यकार कब समझेंगे पता नहीं। महेश्वर जी, एक प्रश्न को लेकर स्पष्टता चाहता हूं, यह मेरी और शायद मेरी तरह हजारों लोगों की शंका हो सकती है कि हम श्रृंगार या अश्लील के बीच भेद कैसें करें ? शिष्ट अथवा अशिष्ट सुसंस्कृत अथवा कुसंस्कृत ? आप चित्रकार भी हैं और न्यूड पेंटिंग भी बनाते हैं -कैसे, कोई पेंटिग न्यूड होकर भी वैभवपूर्ण व अशिष्ट नहीं लगती ? विस्तार से बताने का कष्ट करेंगे।
मेरे सवाल पर महेश्वर जी शहीद पार्क पर लगी गुलाब की झाड़ियों के पास रूक गये। बेहद सुंदर सफेद और लाल-गुलाबी गुलाब नजर आ रहे थे। कुछ पल शून्य में बीते। शायद अपने भीतर के वैचारिक उफान को रोकर कुछ विशेष निकालने के लिये वक्त लिया था।
महेश्वर जी- सनत जी, अच्छा सवाल किया आपने।
सर्वप्रथम मैं काम या कामपिपासा, काम और नैतिकता, काम और परम्परा, मिथक, मिथ्या धारणाएं इत्यादि पर कुछ संकेत करना चाहूंगा। अलग से तो इस पर किताब लिखी जानी चाहिए।
सबसे ज्यादा टेढ़ी नजर से काम को लेकर कामना या, काम विरूद्ध नैतिकता का सवाल उठाया जाता है, जिस पर हमारे जैसे बंद समाज में इस पर खुला व बौद्धिक निष्कर्ष शायद ही देखने को मिले। हमारा समाज उतना बंद या वर्जित नहीं जितना इस काम सेक्स को लेकर। यहां इस कदर इस विषय को वर्जित रखा गया है कि सिर्फ और सिर्फ आज भी वर्जनाएं ही देखने सुनने को मिलती हैं। कारण स्पष्ट है -ऊपर जैसा मैंने कहा -बंद मानसिकता। चीजें जब स्वतंत्र रूप से न देखी जाएं -या तो मध्यकालीन पर्दाप्रथा की आड़ में हम इसे देखें या फिर सीधा फ्रायड के चश्मे से, या मार्क्स बाबा के महामंत्र से -चीजों का गड्मड होना लाजिमी है। हम सिर्फ फरेब करते रह जायेंगे -सिवाए और अपने लिये वर्जनाओं और बाड़ और मजबूत दीवारों के साथ। अचानक अपने देश में एक आधी रात के पब में डांस करती, सॉफ्ट ड्रिंक लेती मध्यमवर्गीय आधुनिका है तो किसी भीतरी गांव में घर की बहु घर के ससुर से ही लम्पटता में संलग्न! ये दोनों ही स्थितियां हमारे यहां मौजूद हैं और ’स्वस्थ मानसिकता’ एक दूर की कौड़ी!
सच कहें तो सेक्स या काम या श्रृंगार के नाम पर जहां नजर उठाओ, वहीं वर्जनाएं हैं।
ऊपर वर्णित दोनों तरह की स्त्रियां इन्हीं वर्जनाओं की शिकार हैं। एक जोरदार तरीके से -आधुनिका बनकर मुक्तिमार्ग पर चल पड़ी है।
क्या श्रृंगार -प्रेम -काम की यही परिभाषा होनी चाहिए ?
दूसरी स्थिति भी ठीक उसके विपरीत कुण्ठा है। शरीर के भीतर का व्रण!
अब सवाल उठता है -सेक्स-श्रृंगार-काम क्या है ?
सेक्स-श्रृंगार कब अनैतिक और कब नैतिक ?
सेक्स-श्रृंगार क्यों किसी में अधिक प्रदर्शित या कोई महाबली अपना सामर्थ्य प्रदर्शित करता है -मतलब क्या सेक्स प्रदर्शन है, या दर्शन ? भीतरी है या बाहरी ? क्या लक्ष्मण रेखा इस पर भी लागू ? सेक्स का नाम लेते ही क्यों नैतिक चौकीदारों की मूंछें तन जाती हैं और ऑनर कीलिंग, हुडदंगी….आदि आदि देखने को मिलते हैं।
ये सारे सवाल हमारे समक्ष सर उठाकर खड़े हैं उन्हें जवाब चाहिये।।
देखा जाये तो नैतिकता जो अधिकांशतः यौन व यौनिकता को लेकर ही है -यथा,
लड़की ने अशिष्ट तरीके से लिबास पहना है। गंदी….!
नाजनीन ने पर्दा किया, सर से पांव तक। वाह, खूब…!
कुड़िए का दुपट्टा लहरा रहा है, बेशर्म है।
क्या टाइट जींस है और उभार….! बेशरम….!
देखो…क्या हंस-हंस कर बातें कर रही है….!
छिछोरी है, चार यार हैं उसके….!
उसके तो बस बायफ्रेण्ड हैं…., उसी के साथ घूमना…..!
दस मर्दों के बीच अकेली लेडी वर्कर है, छी…..! सब उसे नापते होंगे….!
बहु / लड़की बहुत सोनी है अपने सास-ससुर का सोने से पहले पांव दबाती है…, अच्छे संस्कार मिले हैं….!
बहु तो सबेरे सबसे पहले उठ जाती है पति के उठते ही बिस्तर में गरमा गरम चाय…, लौंडे की क्या किस्मत है….!
ऊपर ’अच्छी’ बातें या ’बुरी’ बातें किसी के चरित्र, आचरण का प्रमाणपत्र नहीं….। यहां तक कि कोई ये बताये कि क्या वैध और क्या अवैध…., इसकी क्या परिभाषा हो और कौन बनाये….?
नैतिकता एक ऐसा प्रश्न है जो परम्परा से हम पर मनमाने तरीके से ’थोप’ दी जाती है। हर काल, समय का अपना ’सच’ होता है -हरियाणा और राजस्थान में आज भी लड़कियों का जन्म निराशाजनक माना जाता है। आज लड़कियां गर्भ में ही मार दी जाती हैं। (बहुत कुछ अब भी।)
अब इस नैतिकता को कौन सही-सही परिभाषित करे ?
शायद यहीं और ठीक यहीं पर साहित्य का महत्व है।
आवश्यक-आवश्यक परम्पराओं (नैतिकता इत्यादि पाखंड, ढकोसला) पर प्रश्न उठाया। चीजों को तार्किक बनाना। चीजों को जजमेंटल होकर देखे बिना स्वतंत्र आयाम में उसकी महत्ता देखने की कला -यह संभवतः साहित्य सिखाएगा, न कि मौलाना या पंडित या पादरी! न समाजशास्त्र के ग्रंथ….!
सात्हित्य आवाम से निकलकर आने की चीज है -किसी शास्त्र द्वारा निर्धारित एजेण्डा से होकर नहीं -आवाम, युवा पीढ़ी स्वयं अपना मापदण्ड बनाये। स्वयं अपनी लक्ष्मण रेखाएं खींचे। यह एक दिन में घटने की चीज नहीं।
फिलहाल तो इतना ही कहना पर्यापत होगा, वरना तो हमारी परम्परा तो ये है कि सबसे पृथक-पृथक मापदण्ड बनाओ राजा, सामर्थ्य के अलग….(समरथ के नहि दोष गोसाई) हर जाति, हर वर्ग के अलग….!
कृष्ण की हजारों पत्नियां थी, कहते हैं राम जब त्रेतायुग में सीतामुक्ति के लिये अभियान किया तो इस दरमियान कई चेतनाएं, कई स्त्रियां उन पर मुग्ध थी उन सभी की मुक्ति द्वापर में कृष्ण रूप में प्राप्त होती है। राम के लिए युद्धरत वानर सेना ’द्वापर’ में आकर सभी गोपियां हुयीं और कृष्ण में विसर्जित!
आख्यानों व पुराणों के प्रति हमारी आस्था अटृट है। इसलिये भरी सभा में लाख दुःशासन के बावजूद द्रोपदी नग्न नहीं होती और लम्बे समय तक अशोक वाटिका में कैद सीता सुरक्षित ही रहती है।
मूल रूप से देखा जाये तो इस या ऐसी नैतिकता आवाम की ओर से ही प्रेषित होती है। वहीं इसका अपवाद भी दिखता है जब एक धोबी अपनी पत्नी को घर-निकाला देता है और राम-सीता का उदाहरण (उलाहना) देते हुये।
कहने का अर्थ ये कि आवाम ही इसका निर्णायक है न कि कोई ग्रंथ या यूनिवर्सिटी के लेक्चर…!
पर आधुनिक समय में बदलते परिवेश में यौन व यौनिकता पर प्रश्न तो उठे, खासकर पूर्वाग्रसित धारणाओं के विरूद्ध!
अब सुनिये…, आज भी आपको महान आदर्श वाले नैतिक लोग मिल जायेंगे……,
’कन्या से मैं पांव नहीं छुवाता, कन्या तो माता जगदम्बा का साक्षात स्वरूप है…., बल्कि मैं उनके पांव छूता हूं….!’
’तुम्हारे स्कूल के सह-पाठिनें तुम्हारी भगिनी…., राखी बांधो…।’
’चाची, मौसी, पड़ोसिनें सब तुम्हारी मां…, अम्मा…, जगदम्बा…, ललिताम्बा…, महामाई…, माई…., भाभी…., भौजाई….मतलब सब मातारानी….!
ये क्या चूतियापा है…!
अब आप ऐसी नैतिकता को लेकर इस ब्रहमाण्ड में कहां जायेंगे….संतुलन चाहिये मगर ’हद’ भी तो हो…भाभी..अम्मा…जगदम्बा जब ’कट मार के’ कटि प्रदर्शित करेंगी तो नैतिकता की ’लिस्ट’ पर पानी की बूंदें तो टपक ही जायेंगी….।
मतलब, आज जो भी प्रश्न हो, तर्क सम्मत हो, सहज व स्वाभाविक हो…। और वह आवाम की बौद्धिकता हो, लम्पटधिराजों बाबाओं के फतवे नहीं।
आपके प्रश्न पर सीधा लौटता हूं….!
आनंद महात्मा बुद्ध (मैं उन्हें ’भगवान बुद्ध’ नहीं सम्बोधित कर रहा हूं।) के खास शिष्य थे। सन्यासी-भ्रमण के लिये स्त्री, स्त्री विषय, सीधा-सीधा यौन विषय वर्जित थे। एक बार महात्मा बुद्ध ने एक युवती को कंधे पर उठाया और मार्ग में पानी से भरे नाले को पार करने में मदद की। युवती वह इस नाले को पार करने में असमर्थ थी। आनंद संशय व सवालों से घिर गये कि आर्य ने यह क्या कर डाला, वर्जित (?) विषय को गोद लिया। स्पर्श किया।
मन का संशय लेकर वे रात्रि विश्राम के पूर्व आनंद ने आखिर पूछ ही लिया कि वर्जित स्त्री को आपने किस स्पर्श किया ?
महात्मा बुद्ध ने स्पष्ट उत्तर दिया कि उस असमर्थ स्त्री की मदद की गयी, भले उसे गोद लेना पड़ा मगर तुम्हारे (आनंद के) मन से वह स्त्री अब तक न जा सकी। ’नाला पार कर’ महात्मा बुद्ध तो स्त्री को उतार दिये लेकिन आनंद के मन से वह स्त्री उतर न पायी!
एक सन्यासी के लिये यही नैतिकता का प्रश्न है। बुद्ध स्त्री को स्पर्श कर भी अनैतिक नहीं होते बल्कि आनंद स्त्री को स्पर्श किये बिना अनैतिक हो जाते हैं।
यह ऐसा प्रसंग है जो निजी है, हम अक्सर नैतिकता-अनैतिकता का प्रसंग सामाजिक परम्पराओं के सन्दर्भ उठाते हैं।
ध्यान से देखें तो यहां सीधा-सीधा प्रश्न ’वर्जना’ का है -ये करो, ये मत करो। जहां-जहां ’वर्जना’ है वहां-वहां नैतिकता!
अब आप ढूंढते रहें….,कहां क्या है!
तो क्या, बिना वर्जनाओं के यह संसार अधूरा है ? चूल्हे के पास मत जाओ, हाथ जल जायेगा -ऐसे कथन नैतिकता के घेरे में नहीं आते -कोई वर्जना नहीं। क्यों ? क्योंकि सीधा-सीधा तर्कसम्मत तथ्य है। मगर समाज व्यक्ति का आचरण कोई स्पष्ट दिखता चूल्हे की आग नहीं जिसकी शिनाख्त तुरंत की जा सके। मगर समाज-व्यवहार में ऐसी ’आग’ होती हैं -इनकी पहचान समय सापेक्ष, स्थितियों-परिस्थितियों के मद्देनजर हो, न कि पहले से चली आ रही ’परिपाटी’ के तौर पर…!
एक और सुंदर उदाहरण याद आ रहा है।
अद्वैत दर्शन -वेदांत को पुनस्थापित करने वाले दक्षिण के महान ज्ञानी-संत शंकर, जिन्होंने भारत के चारो शीर्ष में चार धाम (मठ) स्थापित कर वेदांत की महत्ता प्रतिपादित की -क्योंकि हजार साल बाद बौद्व धर्म हजारों सेक्ट में बंट गये थे।
शंकर सन्यासी ने -अपने शास्त्रार्थ के दरमियान मिथिला प्रांत (बिहार) के महान बौद्ध ज्ञाता मंडन मिश्र से शास्त्र कह स्थापना में मंडन मिश्र की हार लगभग निश्चित हो गयी। मिश्र की पत्नी देवी भारती ने एक प्रश्न पूछकर शंकर को लौटा दिया कि क्या एक पुरूष-ज्ञानी स्त्री प्रसंग को जाने बगैर ज्ञानी कहलाने का हकदार है ? शंकर ने इस चुनौती को स्वीकारा और यह भी स्वीकार किया कि स्त्री को बगैर समझे -अर्थात पुरूष नजरीये से संसार की समझ अधूरी रहेगी। शंकर ने समय की मांग की और पुनः लौटकर उत्तर-प्रतिउत्तर करने की अपेक्षा। देवी भारती समझ चुकी थी -यह पुरूष पूर्ण-सम्पूर्ण होकर लौटेगा और तब उसकी जीत निश्चित होगी।
कहते हैं तब वापस आकर शंकर ने स्त्री संसर्ग, स्त्री रति-क्रिया, प्रेम-रस व श्रृंगार के रहस्यों को जाना। वापस मंडन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ में शंकर की जीत हुयी।
अब महत्मा बुद्ध ने तो सिर्फ गोद ही लिया था स्त्री को…., (याद रहे वे एक पिता व पति रह चुके थे।), मगर यहां शंकर तो अवश्य ही रमणी के साथ रमण कर रहे होंगे….।
नैतिकता का प्रश्न ? वर्जनाएं एक साधु सन्यासी के लिये ?
उत्तर साफ है -पानी में ’डूब’ जाना पुरूषार्थ नहीं है, समंदर में तैर जाना पुरूषार्थ है।
आनंद बिना स्वार्थ के ही ठहर गये थे, इसलिये बिना कुछ किये भी अनैतिक थे। बुद्ध व शंकर सब कुछ या कुछ न कुछ कर के भी नैतिक ही रहते हैं।
’इंटेशन’ भाव, भावना, प्रबल चीज है। वह सही तो सब सही। यह ऐसा विषय है कि आपको किसी पंडा के पास जाकर पूछना नहीं है -यह आपका बोध है। आपकी जागरूकता।
न्यूड पेंटिंग नग्न दृश्यों का वर्णन ये सब अच्छे भाव से व सही प्रयोजन से कला व सिनेमा, साहित्य में दर्शित है तो नग्नता प्रदर्शित कर भी अनैतिक नहीं और पड़ोस की भाभी, पड़ोस के किशोर युवा को देखने और उसे लुभाने के लिये अपना पल्लू खिसकाती है, नाभि दर्शना बनती है -वह अशिष्ट है। पोर्न है। इसलिये वेश्याएं अपना शरीर बेचकर भी ’पवित्र’ हो सकती हैं। और गृहणी बिना पराया शरीर स्पर्श के भी अनैतिक हो सकती हैं…, ये सारे विषय निजी, ’सब्जेक्टिव’ हैं, आब्जेक्टिव नहीं कि दो प्लस दो बराबर चार! किसी के लिये ’मिलन’ खुद से खुदा होने जैसा है तो किसी के लिये खुद ही खुद की मुहर लगाने जैसा…! इसलिये राधा या मीरा अपना घर अपना पति छोड़ती हैं तब भी पूज्यनीय बनी रहती हैं। क्यों….?

सनत जैन- ’पानी में ’डूब’ जाना पुरूषार्थ नहीं है, समंदर में तैर जाना पुरूषार्थ है।’ एक से एक साहित्य के नीति वाक्य मिल रहे हैं सर आपके मुखारबिन्दु से। वास्तव में ये विषय दो और दो चार होने वाला विषय नहीं हैं। सर, आपकी बातों में प्रकृति और प्रकृति के बारे में खूब बातें होती हैं। प्रकृति से हमारा तात्पर्य क्या है ? क्या जंगल या पहाड़ के करीब होना ही प्राकृतिक या प्रकृति के साथ होना है, या कुछ और कृपया स्पष्ट अभिमत देंगे।
महेश्वर जी-सनत जी, बहुत आभारी हूं आपके सवालों से। बिल्कुल ही वाजिब और सटिक प्रश्न आप बीच-बीच में ’पूछ’ लिया करते हैं, इससे उत्तर और समाधानपरक हो जाता है।
जैसाकि आपके सवाल से ही लक्षित है कि पेड़ों या जंगल के पास, नदी किनारे या सैलानीपन के साथ, पहाड़ की सैर करना या दरिया में बोटिंग वाला प्राकृतिक होना, प्रकृति के करीब होना नहीं है। प्रकृति व प्रकृति के तत्वों पर ज्यादा बल दिया जाने के पीछे मेरे निहितार्थ अलग हैं, उनका ब्यौरा और उन पर खुलकर चर्चा होनी ही चाहिये।
एक शख्स या सॉफ्टवेयर इंजीनियर बारह घंटे कम्प्यूटर साइटों में झख मारता है, कुर्सी पर बैठा-बैठा आधा सोता है, आधा जागता है। रात को तफरीह के लिये छत पर आकर सितारों को ताकने और शीतल चांद को निहारने में उसे आनंद या कहें सुकून मिलता है।
उसी तरह एक व्यक्ति मुम्बई, दिल्ली जैसे सीमेंट के दरबार में और दीवारों के बीच मशीनों के बीच, लैपटॉप, वाट्स-अप के साथ झख मारता है क्योंकि यही उसकी रोजी-रोटी है। वह महीनों, हफ्तों शाम कैसी होती है उसे नहीं पता, सबेरे का सूर्य कैसा होता है, नहीं पता। पहाड़ों के पीछे डूबता सूर्य कैसा दखता है -नहीं पता। उसी तरह ऊंची मीनारनुमा दो सौवीं मंजिल में रहने वाला कभी बरामदे (दो हाथ का) पर आता तो है मगर उसे चारो तरफ बिल्डिंग और मीनारों से कार्बन गैस की मुक्ति का अहसास होता है -क्योंकि हर कमरे से, हर घर से एसी चालू हालत में मिलते हैं। उस शख्स को ना शुद्ध हवा मिल पाती है ना आकाश का खुला टुकड़ा! ना चांद ना बादलों का दीदार! हरियाली देखी है उसने आसपास के गमले के छोटे पौधे! बस….!
खेत और जंगल उसने देखे थे -बचपन में! वे बस स्मृतिशेष की बातें रह गयी हैं। पर, वह अपने जीवन से संतुष्ट है। शाम के वह पार्टियों, बीयर व विहस्की व गर्ल-फ्रेण्ड के साथ नाचा पार्टी कर खुश है और दिन भर कमरे -अच्छे से एसी कमरे में कैद! उसे अपने आप से, अथवा अन्य किसी से -कोई शिकायत नहीं!
उस या उन जैसे लोगों को नहीं पता कि उनकी रूचि क्या है, उनकी स्मृति में क्या है, उन्हें बचपन में कब प्रेम हुआ था, उनके बचपन के साथी कौन थे, वह बचपन में क्या खाता व खेलता था। उसकी, दूसरे शब्दों में, वर्तमान वैभवपूर्ण जीवन ने ’स्मृतिलोप’ कर दिया है। वह स्वयं की निजता, अपने वास्तविक अस्तित्व से कट गया है। अब उसे इन चीजों को लेकर ना कोई पीड़ा है ना अफसोस…क्योंकि नये चमक-दमक में वह गुम है।
ऐसे गुमशुदा लोगों की किस थाने में एफ आई आर की जाये ?
जी हां, ऐसे ही लोग हैं जो पूरी तरह प्रकृतिविमुख हैं। प्रकृति से कटे। अपने ’स्व’ से परे…। अपने ’अस्तित्व’ बोध से अनजान! अपनी वास्तविक आजादी से गुम, अपनी गुलामी आधुनिक जीवन शैली को समर्पित!
अब जरा ठहरें।
प्रकृति है क्या…. ?
अग्नि का ज्वलनशील होना….,
पानी का तरल होना….,
वायु का चंचल होना…..,
धरती का स्थिर रहना….,
आकाश का अनंत होना…,
अब देखें…,
आकाश तो सीमित हो गया।
धरती पर हम हैं ही नहीं। पांव को पता नहीं कि धरती का स्पर्श कैसा होता है। मन और हमारे चैतन्य की पता नहीं -वह भूल गया है कि धरती का जीवन क्या होता है। वास्तविक मनुष्य होने की परिभाषा क्या है ? भिन्नता क्या है, सारण्य भाव क्या है, सखि भाव क्या है, प्रेम क्या और समर्पण क्या, कर्तव्य क्या व बोध क्या, कुटुम्ब क्या और पराया कौन ? वायु से सम्पर्क टूट गया। एसी की हवा, कूलर-पंखें जिन्दाबाद! वायु हमारा प्राण है, हमारा प्राण कहां है ? हमारा मेटाबॉलिज्म कहां है ? डॉक्टर साहब के पास….डायबटिज की रोज गोलियां, बीवी की थाइरॉइड की….विटामिन्स…., प्रोटीन डिब्बाबंद…, यह है शरीर का प्राण वायु! बाहर स्वच्छता मिल भी जाये तो भीतर तो पर्यावरण प्रदूषण खतरे के निशान से ऊपर …, कब हार्ट अटैक आ जाये, नहीं मालूम!
जल ही जीवन है। तरलता जीवन है। समाप्त! हम इस जल में तैरने में नहीं डूब मरने के आदी हो चुके हैं। हमारा समयबोध सफलताओं, आर्डर….शाम की पार्टियों में सिमटकर रह गया है। हमारी ऐसी आदत हो गयी है कि भीतर का जल सूख गया, रिश्ते-नाते मर गये, बस सफलता की गारंटी ही सबकुछ है। सबसे दुखद कि आंख के आंसू भी समाप्त हो चुके हैं।
अग्नि को नियंत्रित करने वाला जल ही जब सूख चुका है तो अग्नि, अहंकार का क्या कहना! जरा गौर कीजिए-
मैं कौन हूं…?
एक शरीर, एक मस्तिष्क, एक स्प्रिट (आत्मा)…..,
सिर्फ शरीर….,
शायद नहीं….!
सिर्फ मस्तिष्क, ब्रेन जो कहते हैं तेईस ट्रिलियन मैटर से यह दिमाग कनेक्ट हो सकता है ?
शायद हां, शायद नहीं…!
या फिर, सिर्फ आत्मा…?
सिर्फ आत्मा ? एनर्जी ? शायद नहीं, संभवतः इन तीनों का जोड़…, मन…आत्मा व शरीर! एक-दूसरे में समाए। जैसे चाय में समाया जल, शक्कर, दूध और पत्तियां….! कौन ढूंढे, कौन कहां है….कितनी-कितनी मात्रा में…!
अगर मैं इन तीनों का जोड़ हूं तो मेरा इस यूनिवर्स, ब्रहमाण्ड से क्या रिश्ता ?
यह ब्रहमाण्ड हमें धूप प्रदान करता है। समस्त ऊर्जा का स्रोत…!
यह संसार हमें वायु प्रदान करता है। प्राण-वायु, समस्त चैतन्य प्राणों की संजीवनी…!
यह दुनिया हमें जल प्रदान करती है…., जीवन के स्रोत और उत्पादन में जरूरी….
इसी संसार ने हमें धरती की स्थिति प्रदान की है -जहां हमारा बसेरा है।
इतनी बड़ी बात…., फिर इसमें मेरा ’स्व’ का क्या…, ये सारे ’तत्व’ तो मेरे भीतर भी हैं। पर मेरा क्या…,
मेरा रक्त….?
मेरी मज्जा, अस्थियां….?
मेरा समस्त शरीर….?
मेरी आत्मा…?
या मेरा मस्तिष्क…..?
क्या ये सब जो मेरे भीतर हैं -वाकई मेरे हैं! ये जो धड़कन है -क्या सही सही उस पर हमारा नियंत्रण है। मेरी रक्त वाहिनियों पर…, मेरे शरीर पर…, मेरे मन पर….?
फिर, वास्तव में मेरा क्या ….?
फिर, मैं जो हूं कौन…?
ऐसा प्राणी प्रकृति को आश्चर्य से देखता है और उसे प्रणाम करता है। समर्पण भाव रखता है।
यही मानव प्रकृति के अधीन है।
नहीं, यही मानव प्रकृति के साथ है। हां, प्रकृति के सह-अस्तित्व के साथ! वह न उसका गुलाम है न उसका मालिक! दोनों का निजी अपना-अपना ’स्पेस’ है -अंतर सम्बंध है। साहचार्य है।
मनुष्य का इस धरती पर पदार्पण का हजारों लाखों वर्षों के इतिहास में आज-तक का मानव यही, कमोबेश यही मानव विकसित हुआ है। मगर पिछले कुछ ही सौ-पचास, दो सौ सालों के भीतर जो आधुनिक मानव, नया मानुष पैदा हुआ वह पूरी तरह, पूरे के पूरे इस प्राकृतिक मनुष्य के विरोध में खड़ा है। वह कैसा है-
वह जो सांस ले रहा है, वह तो उसका फेफड़ा है,
वह जो उसके भीतर खून प्रवाहित है, वह तो उसका निजी है,
वह जो खाता है, कमाता है वह जो उसकी मांसपेशियां हैं हड्डी और लीवर, किडनी है, सब उसके अपने हैं -और अपने तो बस अपने होते हैं। परायों का क्या काम!
दुनिया उसकी है, सूर्य की ऊर्जा उसकी…
वायु उसके अधिकार की चीज, वह तो ऑक्सीजन अपने फेफड़ों के लिये खरीद सकता है, वह विटामिन -डी खरीद लेता है, जल हो या जंगल, सब उसके बाप ने उसी के लिये तैयार किये। समस्त ब्रह्माण्ड की बपौती उसकी। यह उसकी कमाई है। उसके हिस्से की चीज। मिट्टी, पानी दूषित हो तो हो, वह कारखाने लगाकर लाभ कमाएगा। यह उसका अधिकार है। उसे उसके अधिकारों के बारे में कोई कुछ न कहे। वह उन्हें खूब जानता है। मन उसका, चेतना उसी की, शरीर उसका और सिर्फ उसी का! उसकी दुनिया में सिर्फ उसका अपना ही अस्तित्व रखता है -शेष उसके गुलाम!
इंसानों से उसका जी नहीं भरा, वह मशीनों के लिये इंसान बना डाले। गुलामी बजानेवाले। उसके हुकुम ठोकनेवाले। उसे इस बात की फिकर नहीं कि इस धरती का क्या होगा, वह तैयार है, चांद, मंगल की अग्रिम बुकिंग उसने करा ली है। ब्रह्माण्ड उसके कदमों में…!
और तो और, ये वही आदमी है जिसने आवाम के लिये ऐसी चमक-दमक सजा रखी है कि आवाम की बुद्धि गुम! आवाम जाये तो जाये कहां। उसके लिये उसने ऐसी चमकीली दुनिया सजा रखी है कि उसकी गुलामी कर मनुष्य स्वयं को धन्य समझता है।
उसी ने भोली जनता को उसके अपने ही न केवल जमीन से बल्कि उसकी जमीर से भी विस्थापित कर दिया है। हां, यह नये किस्म का ’डायरफोरा’ है! पहले महामारी, बाढ़, आगजनी, युद्ध के कारण गांव और कसबे अन्यत्र स्थानांतरित होते थे-आज इस गैर-प्राकृतिक ने आदमी तकनीक के नाम पर अरबों-खरबों लोगों की जमीन उसके पांव के नीचे से सरका दी है, वह भी रातों-रात! आवाम वही खड़ी-खड़ी विस्थापित!
इस तकनीक और गैर-प्राकृतिक इंसान ने लोगों के चरित्र, उनके जमीर भी उनसे छीन लिये।
गैर प्रकृति ने प्रकृति को अपदस्थ कर दिया।
गैर प्रकृति सार्वभौम हो चला!
और इस प्रकृति-विरूद्ध मानव एक उत्तर-उत्तर-उत्तर महामानव है जिसके समझ ये पूरी कायऩात घुटने टेक रही है।
वह नहीं पूछता कि मैं कौन हूं ?
वह पूछता है तुम कौन हो ?
वह नहीं पूछता तुम कौन ? मेरी ऊर्जा का स्रोत कौन ?
वह पूछता है तुम कौन ? मेरी ऊर्जा मेरी लैब में।
वह रास्ते के पर्वत, दरिया या समंदर की परवाह नहीं करता, वह जमीं से ऊपर है -आकाश का प्राणी। आकाश ने उसे छत दे रखा है। नीचे धरती की आम जनता उसकी ओर ’दृष्टि’ किये है -वह उनका खुदा है। रहनुमा है।
उसे विश्वास है वह अनंत काल तक जीवित रहेगा, वह अमर है -इसलिए पूरे संसार की संपति पर उसी का हक है। वह इस धरती का स्वामी है। वह जीता है उसके प्राण, तकनीक ये बसते हैं। मशीनें मर नहीं सकती, मशीनें रिसायकल होती हैं -फिर…फिर….!

सनत जैन-महेश्वर जी, बीच में फिर से ’रूकावट के लिए खेद’ कहना चाहूंगा। मेरा प्रश्न सीधा सा है कि क्या इस समस्या का कि दुनिया स्वाभाविकता से दूर होती जा रही है अपनी प्रकृति से, अपनी सहजता से…, यह तो घोर अनैतिक है अगर देखा जाए तो, तो क्या इस विषय में देश दुनिया खासकर भारतीय संस्कृति क्या हमारी मदद कर सकते हैं ? परेशानी क्यों है ?
महेश्वर जी-सनत जी, एक बार फिर मैं कहना चाहूंगा कि ऐसे ’रूकावट’ के लिए ’खेद’ व्यक्त नहीं करते। सभ्यता-संस्कृति के इतिहास में ऐसे ’खेद’, ’रूकावट’ होने ही चाहिए ताकि मनुष्य अपनी समीक्षा ठीक-ठीक कर सके। मुझे लगता है आज इस कोरोना काल में प्रकृति के बीच (या मानव निर्मित) ने अच्छा बल्कि यही संदेश दिया है कि थोड़ा ठहर जा। सुस्ता ले। देख ले, कहां निकल गये। क्या पाये, क्या खोये…! बस तू तो भागे जा रहा है!
जैसा आपने कहा, प्रकृति के साथ इस तरह का बलात्कारी रवैया अनैतिकता की पराकाष्ठा है। सारी हदों से परे!
इस उत्तरआधुनिक महामानव ने लैब में औषधि तो खूब बनायी मगर उसका मूल्य नहीं समझ सका। उसके लिये हर चीज एक उत्पाद है। उसके लिये हर दो हाथ बेचे गये श्रम हैं। हर स्किल एक पैकेज है। हर संसाधन उसके दोहन के लिये संभावना है। प्रकृति व मनुष्य सब के सब सिर्फ एक संसाधन भर हैं…। कैपिटल! पूंजी निकाल लो। प्राइस टैग सबमें लगा है।
एक औषधि के डब्बे में 100/- का प्राइस टैग लगा है। औषधि जाने कितनों की जान बचा सकती है, उसका मूल्य केवल बीमार ही समझे यह जरूरी नहीं, मगर जब हमारा संस्कार, हमारी सोच महज उसे 100/- की ’चीज’ ही माने तो इसे क्या कहेंगे ? अवमूल्यन..? दिमागी दिवालियापंती…? पागलपंती…? कुसंस्कृति…? अपसंस्कृति…? नये मनुष्य की नयी सोच….? अनैतिकता…..?
यह नया नजरिया पूंजीवादी सोच की पराकाष्ठा है। जो बेलगाम इस दुनिया में अश्वमेघ का घोड़ा दौड़ा रहा है। ये हमारे शहर के मॉल कल्चर, सुपर मॉल और सुपर कम्प्यूटराज और सुपर रोबोट, आर्टिफिशियल इंटलिजेंस पूंजीवाद की पराकाष्ठा नहीं है -पूंजीवादी सोच कि हर चीज ’बिकाऊ’ है, हर चीज बिकती है चाहे नैतिक या अनैतिक कुछ भी हो -इस सोच को आधार माननेवाला पूंजीवादी (जहां श्रम व प्राकृतिक संसाधन सिर्फ संसाधन हैं -दोहन के लिये हैं – लाभ कमाने के लिये हैं -अनंत धन (बगैर पूंजीनिवेश) के लिये है – इत्यादि…।) की सबसे अनैतिक पराकाष्ठा यह मूल्यहीनता है जहां जीवनरक्षक औषधि भी सिर्फ एक ’प्राइस टैग’ है -महज सौ पचास सौ रूपये की सामग्री!
अब आपने पूछा कि इस समस्या का समाधान कहां है -देश-विदेश या भारतीय संस्कृति ?
पहले ये कहा हूं कि इस अपसांस्कृतिक सोच के पीछे की सोच क्या है -जी, अभी हमने पूंजीवादी सोच का जिक्र किया। यदि आप कहेंगे तो इस ’वाद’ पर कुछ पृथक से कहना चाहूंगा, किन्तु बाद में। आपकी इजाजत लेकर, आखिर में क्या है पूंजीवाद..? सभी इसकी चर्चा करते तो हैं, मगर क्या हम ठीक-ठीक इसे समझते भी हैं ? (इसे कहते हैं बात होगी तो बात बहुत दूर तलक जायेगी…., सवाल सिर्फ युवा व सेक्स व नैतिकता पर नहीं रूक सकती -हॉलिस्टिक रूप से, सम्पूर्णता से, पूर्णता से भी नहीं, सम्पूर्णता से हमें चीजों को तलाशने की व तराशने की जरूरत होगी!)